जीवन व्यवहार के लिए ज्ञानेंद्रियों के साथ कर्मेंद्रियां भी आवश्यक हैं। जिससे जब ज्ञानेन्द्रियां ज्ञान करायें, तो कर्मेन्द्रिया उसे व्यवहार में उतार सकें। मान लीजिये हमारी आंखें देखकर हमें कुछ ज्ञान करायें, व्यक्ति को यह भी समझ आना चाहिए कि अगला कदम क्या हो? तभी उददेश्य पूरा होगा। यह काम बुद्धि करेगी, फिर बुद्धि के साथ पांव और हाथ भी चाहिए, अन्यथा जीवन तो अधूरा है। इस प्रकार एक सार्थक कर्मयोग के संबंध में भगवान श्रीकृष्ण समग्रता की आवश्यकता पर बल देते हैं। ऐसा कर्मयोग जो कर्मकांडों में न उलझा हो, क्योंकि कर्मयोग तो जीवन का राजमार्ग है।
वैदिक कर्मकांड, यज्ञों का कर्मकांड अथवा उन क्रियाओं का कर्मकांड जो हमें तरह तरह के झंझावातों में उलझा देता है कि अमुक पूजन करें इसी से सब मिल जाएगा। वास्तव में इस कर्मकाण्ड ने व्यक्ति को भाग्यवादी बनाकर रख दिया है। इन सबको लेकर अक्सर लोग भ्रम में आ जाते हैं कि किसी तरह के गंडे, ताबीज, कागज पर लिखा हुआ कोई मंत्र आदि हमारा कल्याण कर देगा। वास्तव में व्यक्ति गलत समझ बैठे हैं कि मुझे इसके अतिरिक्त कुछ करने की जरूरत ही नहीं, इसी से सब कुछ मिल जाएगा। जबकि इस सबका कर्मयोग से दूर-दूर तक सम्बन्ध नहीं है। कोरा कर्मकाण्ड जीवन में कोई खास उपलब्धि नहीं ला पाता।
इन्हीं विभ्रमों को लेकर भगवान श्री कृष्ण ने अपने समय में एक बड़ा क्रांतिकारी कदम उठाया। उस समय के प्रचलित कर्मकांड से अलग हटकर नव ऊर्जा से भरे ‘कर्मयोग’ की अवधारणा दी। भगवान कहते हैं जिस राह पर चलकर लोग मंजिल पाएं, जिस योग के द्वारा जन-जन का कल्याण हो वह है कर्मयोग। ऐसे कर्मयोग की अवधारणा पर चलकर किये गये कर्म का कभी नाश नहीं होता।
सामान्यतः व्यक्ति भयभीत रहता है कि अमुक कर्म व कर्मकांड को अपनाते समय यदि कोई त्रुटि रह गयी, तो कहीं उसका फल विपरीत न मिल जाय, जैसे मंत्र पढ़ने में गलती हुई तो विपरीत फल, किसी याज्ञिक प्रक्रिया की विधि में दोष हो गया, तो लाभ मिलने पर शंका। इन सभी विसंगतियों से बाहर निकालते भगवान श्रीकृष्ण ने प्रचलित सामाजिक विसंगतियों को हतोत्साहित करते हुए समाज को कर्मयोग का ऐसा जीवंत प्रयोग दिया, जिसको करने से न तो उसका कोई उल्टा फल मिले, न ही किये गये कर्म का कभी नाश हो, यही है भगवान कृष्ण का कर्मयोग। तभी तो श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म रूपी धर्म का थोड़ा सा भी आचरण बड़े से बड़े भय से मनुष्य की रक्षा करता है।
नेहाभिक्रमनाशोऽस्तिप्रत्यवायो न विद्यते। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रयते महतो भयात्।।
“ स्वल्पं अस्य धर्मस्य त्रयते महतो भयात्महानय” अर्थात ऐसा कर्म जिसके करने से व्यक्ति को बडे़ से बडे़ भय से रक्षा प्रदान करे। एक प्रकार का धर्म है, इसे कर्म का धर्म कहते हैं।
“ न इह प्रत्ययवायो अभि क्रम नासोस्ति” अर्थात प्रारम्भ किये गये अभिक्रम का कोई उल्टा फल हो जाए ऐसा नहीं है। कर्मयोग भाव से किये कर्म का नाश नहीं होता। दूसरे शब्दों में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि तुम्हें जिस कर्मयोग के संबंध में, जिस धर्म के संबंध में बता रहा हूं, इसेे प्रारंभ करने से उल्टा फल नहीं होता। साथ ही ‘‘त्रयते महतो भयात्’’ अर्थात बड़े-बडे़ डर से यह तुम्हारी रक्षा करेगा। ऐसा कर्मयोग, ऐसा धर्म, जिसके प्रयोग विधि से बड़े-बड़े भय, डरों से मुत्तिफ़ मिल जाएगी। यह तत्कालीन दौर के जीवन से जुड़ा बहुत ही क्रांतिकारी कदम था, भगवान श्रीकृष्ण हमें ऐसा मार्ग दिखाना चाहते हैं, जिससे जीवन की मंजिल, जीवनलक्ष्य सम्पूर्णता के साथ मिल सके।
व्यावहारिक स्तर पर भगवान श्रीकृष्ण हमें समझाना चाहते हैं कि केवल सांख्ययोग समझकर जानकारी तो मिल सकती है, लेकिन जानकारी मात्र से जीवन बदल जाना असम्भव है। इस दुनिया में जानकारियां इसलिए दी जाती हैं कि व्यक्ति जागरूक हो जाये और अपने उद्देश्य के लिए जुट जाय, लेकिन जानकारी मिल जाने मात्र से सुरक्षित हो पाना असम्भव है, इसके लिए सुरक्षा के उपाय करने होंगे। जैसे हम सब अक्सर जानते हैं कि हम अपना स्वास्थ्य ठीक रखे, बीमार न पड़े अथवा अमुक दुःखद स्थान पर न जायें, अमुक की संगति अच्छी नहीं है, अमुक तरह की बातें न सोचें, चोरी-छीना झपटी न करें, छल-कपट बुरी चीज है आदि व्यक्ति ये सब जानता तो है, लेकिन क्या उस जानकारी मात्र से भला हो पाया है? जबतक कि इन्हें जीवन से न जोड़े। अक्सर लोग सत्संग में जाकर बैठते हैं, घर-पड़ोस के लोग तथाकथित ज्ञानी लोग अच्छी बाते बताते मिल जायेंगे, लेकिन दूसरी तरफ वही व्यक्ति उन्हीं विसंगतियों में फंसे मिलेंगे। यह सब इसलिए है कि उसकी जानकारी जीवन व्यवहार से नहीं जुड़ पायी। स्वयं वह आदमी सच्चा, अच्छा इसलिए नहीं बन पाया, क्योंकि वह जो बोल रहा था, उसे वह अपने जीवन से नहीं जोड़ पाया और यह जानकारी, इंफॉर्मेशन बनकर मात्र रह गयी।
वास्तव में यह इंफॉर्मेशन (सूचनाओं) का युग है। एक क्लिक करते ही आपके सामने पूरी दुनिया भर की जानकारी आ जाती हैं, उसके बाद भी इसी युग में दुनियां में दुःख-दर्द बढ़ा है। आज ज्यादा जानने वाले ही दुनिया में बहुत ज्यादा दुखी हैं। लोगों ने जानकारी के आधार पर ही एटॉमिक पावर-परमाणु बम बनाया, तो उसका परिणाम जापान की तबाही रूप में सामने आया। लाशों के ढेर लग गए, जिंदगी नरक बन गई। कहते हैं उस विनाश को देखकर दुनिया भर के लोग दहशत में आ गए। अंत में वह साइंटिस्ट पछताता रह गया कि हमारी बुद्धि ने इस दुनिया को क्या विनाश दे दिया। अल्फ्रेड नोबेल को इसी घटना ने परिवर्तित कर दिया। वास्तव में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग में प्यार का संदेश दिया है। हम इस दुनिया में प्यार बांटने के लिए ही तो आए हैं। अर्थात जिससे दूसरे का भला हो, अपने अंदर संतोष जगे, वही है कर्मयोग। इसीलिए श्रीकृष्ण का कर्मयोग व्यक्ति को कभी पछतावा नहीं देता।