अपनी वर्तमान जीवनशैली बदल कर अंतरिक्ष में विद्यमान कर्मों की सूक्ष्म धाारा में भी उलट-फ़ेर किया जा सकता है। वैज्ञानिक शोधाों से महसूस किया गया कि उस दिव्य दुनिया को ही ‘चेतना का दिव्यलोक’ या कर्म का दरिया कहते हैं। साधाारण आध्यात्मिक भाषा में इसी को ‘प्राणलोक’ कहते हैं। इसे हम सब अपने पुण्यकर्मों से भरते हैं या दुष्कर्मों से यह हमारे ऊपर निर्भर करता है।
अधिकांश मनुष्य के क्रिया-कलाप में उसकी आदतों का विज्ञान काम करता है। सामान्य जीवन जीने वाले इन्हीं आदतों के अभ्यासी होते हैं, लेकिन जो सावधानी पूर्वक बेहोशी मुक्त जीवन जीते हैं, उनके क्रिया कलाप में प्राण चेतना का दिव्य विज्ञान काम करने लगता है। जिसके द्वारा वह व्यक्ति विशेष चेतना जगत की विशिष्ट-प्राण ‘लेयर’ से जुड़ता जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो हर व्यक्ति के जीवन का अपना प्राण स्तर होता है। जिस ‘प्राण लेयर’ से सम्बद्ध होकर मनुष्य जीवन जीता है, उसके लिए उस प्राण परत के अनुरूप जीवन के मूलभूत संसाधन उसकी प्रतीक्षा करते रहते हैं। संसार के बीच प्राप्त होने वाले भौतिक पदार्थ उसकी सम्बन्धित प्राण प्रवाह की फ्रिक्वेंसी के अनुसार उस व्यक्ति की ओर खिचते चले आते हैं। इसके लिए व्यक्ति को अपनी प्राण चेतना के स्तर अनुरूप अपनी जीवनशैली में बदलाव के अतिरिक्त कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। कहते हैं व्यक्ति जिस जीवन स्तर की प्राणधारा में जीवन जीता है, उस लेयर से कम उसे कुछ भी नहीं मिलता। नउस लेयर से अधिक, न कम। वस्तुतः प्रत्यक्ष जगत में हमारा एनर्जी लेविल (प्राण चेतना) जिस स्तर का है, हमें प्राप्त हुए संसाधनों का एनर्जी लेविल भी वही होता है। इसे जीवन शैली का व्यावहारिक आत्म विज्ञान कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में व्यक्ति के जीवन स्तर के इस विज्ञान के अनुसार वैसे ही पदार्थ, वैसे ही संगी-साथी, आदि सब आकर उसके चरणों में गिरने लगते हैं। मान लीजिए हमारी जीवन शैली में शराब व नशे का विशेष महत्व है तो प्राण चेतना का लेयर भी वैसा ही होगा, ऐसे में हमारे पास पैसा हो या न हो, हमें नशा प्रवृत्ति के लोग मिलेंगे और हम उसी कृत्य में डूबते जायेंगे। हमारे ट्टषियों ने इसे प्राण चेतना के आकर्षण का विज्ञान भी कहा है।
साधानों का पुण्य विज्ञानः
पदार्थ का अस्तित्व भी प्राण लोक के उसी आयाम में प्रवाहित रहता है, जहां हमारे चेतन प्राण प्रवाह का अस्तित्व केन्द्रित है। लेकिन जैसे ही मनुष्य ज्ञात-अज्ञात व सपुरुषार्थ से ‘प्राण चेतना’ के आयाम को बदल लेता है अर्थात् नये चेतन प्राणधारा में पहुंचता है, ठीक उसी क्षण उसके सम्पर्क के सम्पूर्ण सांसारिक संसाधन परिवर्तित हो जाते हैं। उदाहरणार्थ घर, मकान, गाड़ी, पद-प्रतिष्ठा यहां तक कि सम्बन्धी भी, पुराने सभी कुछ छूट कर नये जुड़ जाते हैं। विशेष बात यह कि यदि हमारे प्राण का स्तर अपेक्षाकृत न्यून लेयर में पहुंचता है, तो हमारा सम्पूर्ण जीवन व्यावहार की अवस्था भी उसी स्तर में स्वतः अपने को बदल लेगी। सब कुछ वहां भी सहज छूटता नजर आयेगा। अर्थात् पूर्व की अपेक्षा प्राण चेतना का स्तर उच्च हुआ, तो हमारा सम्पूर्ण तंत्र उच्च कोटि का हो जायेगा। सम्पूर्ण जीवन स्तर एवं जीवन शैली स्वतः उच्चता प्राप्त कर लेगी। इसी सिद्धांत पर यह बात अक्सर लोग कहते मिलते हैं कि ‘अपनो ने भी मुँह मोड़ा व परमात्मा ने चमत्कार कर दिया है’’ आदि जबकि खास बात यह कि इस बदलाव के सिद्धांत के कारण ही कोई चाहकर भी किसी के लिए संसाधनों को जोड़ने में सहयोग नहीं कर सकता। इसी को एक भक्त कहता है कि ‘‘सब परमात्मा की कृपा हैं।’’
हमारे कर्मों का दरियाः
हां अपने जीवन स्तर को सुधारना व्यक्ति के अपने हाथ में जरूर है। चूंकि पदार्थ और चेतन सभी श्वांस लेते हैं। संसार में कोई भी तत्व ऐसा नहीं है, जो श्वांस-प्रश्वास से रहित हो। वनस्पति जगत से जुड़े प्राण वैज्ञानिकों के प्रयोगों में तो यह साफ ही हो चुका है कि पौधों का भी दिल धड़कता है, लेकिन यह भी सत्य है कि सम्पूर्ण ‘जड़ पदार्थ’ भी श्वांस-प्रश्वास लेते हैं और इसी माध्यम से ‘जीवित’ रहते हैं। उनकी मृत्यु भी होती है और विकास भी। हमारे कर्मों के समान ही दृश्य जगत के पदार्थ विनष्ट होने के बावजूद, उस सूक्ष्म जगत की दरिया में इनका अस्तित्व विद्यमान रहता है, जैसे पूर्व में था। इसी प्रकार मनुष्य के विचार एवं कर्म के सूक्ष्म तत्व भी अनंत वर्ष पूर्व ही नहीं, अनंत वर्ष आगे तक अस्तित्व में ठीक वैसे ही प्रवाहित रहते हैं, जिस प्रकार भविष्य के व्यक्ति को स्वयं भूमिका निभानी होती है। पर यदि वर्तमान में अपनी जीवनशैली बदल कर अंतरिक्ष में विद्यमान कर्मों की सूक्ष्म धारा में भी उलट-फेर किया जा सकता है। वैज्ञानिक शोधों से महसूस किया गया कि उस दिव्य दुनिया को ही ‘चेतना का दिव्यलोक’ या कर्म का दरिया कहते हैं। साधारण आध्यात्मिक भाषा में इसी को ‘प्राणलोक’ कहते हैं। इसे हम सब अपने पुण्यकर्मों से भरते हैं या दुष्कर्मों से यह हमारे ऊपर निर्भर करता है। यही अनंत भूत से लेकर अनंत भविष्य के जड़-चेतन युत्तफ़ संसार का ‘प्राणलोक’ है। सम्पूर्ण ‘मानव’ एवं ‘प्राणिजगत’ के कर्मों के परमाणु इस लोक से जुड़े हैं। ‘गहना कर्मणो गतिः’ का सूत्र इसी के लिए प्रयुक्त किया जाता है। जहां हर मनुष्य की प्राण चेतना का दिव्य दरिया अनंत आयामों में प्रवाहित है। कोई भी इसमें अपने पुण्य व शुभ कर्म अपने वर्तमान से डालकर जीवनस्तर को बदल सकता है और भविष्य के लिए सुख-समृद्धि, शांति का मार्ग खोल सकता है।