जीवन में अटैचमेंट व डिटैचमेंट के सही संतुलन की जरूरत है | Sudhanshu Ji Maharaj

जीवन में अटैचमेंट व डिटैचमेंट के सही संतुलन की जरूरत है | Sudhanshu Ji Maharaj

The right balance of attachment and detachment is needed in life.

अटैचमेंट-डिटैचमेंट

अटैचमेंट-डिटैचमेंट स्वभाव का हिस्सा है। कब तक किससे अटैचमेंट था और कब वह दूर चला गया, यह सब जीवन में चलेगा। इन दो धराओं के बीच जिंदगी बहती है। मन और इन्द्रियां इनको आत्मसात करने के लिए प्रकृति द्वारा स्वभावगत दो चीजें दी गयी हैं। इन्ही से हम आसत्तिफ और विरत्तिफ, अटैचमेंट और डिटैचमेंट का आकलन करते हैं। अर्थात् चाह और अनचाह दोनों मानव में रहती हैं। इस प्रकार एक समय में किसी की तरपफ हम भाग रहे होते हैं और किसी से दूर भाग रहे होते हैं। हम सब अनुकूल के साथ और प्रतिकूल के खिलापफ जा रहे होते हैं। जैसे स£दयां हैं और तापमान अच्छा लग रहा है, तो हम आग के नजदीक आते हैं। और आग तेज हो गई, तो तुरंत दूर हट जाएंगे। गुनगुनी ध्प में बैठे रहेंगे, लेकिन जैसे ही ध्ूप तेज हुई वहां से भागेंगे और छाया में खड़े हो जाएंगे। पता नहीं चलता कि कब तक उससे अटैचमेंट था और कब दूर चली गई चीजें।

इन्द्रियों के विचरण

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं इस प्रकार इन्द्रियों के विषयों में विचरण करते हुए व्यक्ति की यात्रा इस संसार में चलती है। लेकिन राग-द्वेष से ऊपर उठते, आसत्तिफ अर्थात् अटैचमेंट हटते हम वैराग्य भाव में आ जाते हैं। पर ‘‘अटैचमेंट व डिटैचमेंट दोनों से ही ऊपर उठकर अपने कार्य को करना, अपना पफर्ज निभाना और उस पफर्ज में न मोह रहे, न ममता, यही निष्काम कर्म है।’’ माली यही तो करता है। वह अपने पौध्े जिनको खून-पसीने, मेहनत से सींच-सींच कर उसने बड़ा किया, लेकिन उसी को शानदार बनाने के लिए कैंची चला-चलाकर सापफ भी करता है। इस सबसे दुःख तो होता है उसको, लेकिन यदि वह तराशेगा नहीं, तो बगीचा सुंदर कैसे लगेगा? यहां भी उसके अंदर अटैचमेंट और डिटैचमेंट का सूत्रा काम कर रहा होता है। इसी प्रकार सम्पादक का कार्य है।

सही लेखन व निबंध् सध्ता है

वह भी शब्दों की चर्बी छाटता है, तभी सही लेखन व निबंध् सध्ता है। पुराने समय में निबंध् लिखने की परम्परा थी। निबंध् व कहानी लेखन का अपना ही नियम है। यदि उससे एक भी शब्द खींच लिया जाए, तो सारा निबंध् ध्ड़ाम से गिर पड़ेगा। एक शब्द भी बीच से निकाल दिया जाए, तो सारा ऊपर से लेकर नीचे तक की तारतम्यता बिगड़ जाएगी। अर्थात् एक शब्द भी पफालतू नहीं। यही लेखन पढ़ने वालों के लिए कोई प्रेरक चीज लगता है और उसे सदियां याद रखती हैं, वह कालातीत हो जाता है। अन्यथा अखबार तो रोज छपता ही है और अगले दिन कूड़ा। वास्तव में तराशना पड़ता है, जिससे निखर सके, लेखन की अपनी वैराग्य अवस्था पा सके। यही स्थिति प्रज्ञता भी है। स्थित प्रज्ञ उस प्रसाद, उस प्रसन्नता को प्राप्त कर लेता है, जिससे उसके जीवन में शांति आए। यह समुचित अटैचमेंट व डिटैचमेंट से ही सम्भव है। पांचवे अध्याय के सातवें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं|

योग युत्तफो विशुत्मा विजितात्मा जितेंद्रियः। सर्व भूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।।

कर्म रथ है

अर्थात् व्यक्ति संसार में रहकर कर्म करे, लेकिन लिप्त न हो। वही योगी, विशु( आत्मा वाला जितेन्द्रिय कहलाता है। वास्तव में कर्म रथ है, अतः इसी पर आरूढ़ हो कर्म योग द्वारा जिसने अपने आपको जीत लिया, संयमी बना लिया, वह मनुष्य संसार के कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता।
मान लें भगवान ने हमें खरबूजा दिया, तो हम उसमें अपना मिर्च मसाला न मिलाएं, जैसा है उसी प्रकार हम उसको ग्रहण कर लें। यही योगावस्था है। जबकि आदतवस मिक्स-रीमिक्स करने के साथ-साथ हम लोग उसे फ्रयूजन का रूप देते हैं। इसीप्रकार गन्ने का रस है, लेकिन गन्ने को चूसने का अपना आनंद है। पर हमें मिलावट में ही सुकून मिलता है। इसलिए योग रूढ़ होना कठिन हो जाता है। आम को पैफशन से टुकड़े करके आप खाइए, स्वाद तो उसका भी है, लेकिन अगर आप पानी में आम सापफ तरह से धेकर पिफर उसे बच्चों की तरह चूसने बैठें तो वही स्वाभाविक लगेगा।

अपनी इन्द्रियों पर नजर रखने की जरूरत है

आनंद लेने के साथ लिप्त न हों। इसके लिए हमें अपनी इन्द्रियों पर नजर रखने की जरूरत है। इंद्रियों की त्राटक साध्ना करनी चाहिए। हमारी चेतना के 5 प्रवाह हैं, विषय भी पांच हैं। ये विषय ही मन को भटकाते हैं, ऐसे में मन जहां भटकेगा, वहां से मन को किस प्रकार भगवान तक लेकर जाना है। यह अभ्यास अटैचमेंट व डिटैचमेंट के संतुलन से सम्भव है। साध्नात्मक प्रयोग से लेकर कर्मक्षेत्रा में जुटे रहकर निर्लिप्तता का अभ्यास करके अपने प्रवाहों को संकल्पपूर्वक सशक्त करना पड़ता है। इसके लिए अभ्यास नित्य जरूरी है। तब कुछ मिलना शुरू होगा, स्वाद लगेगा, अनुभव होगा।

स्थिति प्रज्ञता

इस प्रयास से अटैचमेंट व डिटैचमेंट के बीच संतुलन बनना शुरू होगा। राग-द्वेष से मुक्त होकर जीवन निर्लिप्त होगा। तब हम संसार में रहकर अपने कर्म योग से उसके परिणामों से मुक्त होते जायेंगे। साधरण भाषा में कहें, तो तब कंक्रीट के जंगल से निकलकर ऊंचे सुंदर पहाड़, बहती नदी, ऊंचे-ऊचें वृक्षों के बीच उड़ान भरते, एक अलग दुनिया में मन प्रवेश हो जायेगा। आप साध्ना के एक अलग मोड़ पर पहुंचेंगे। जीवन में ऐसी ही ‘‘स्थिति प्रज्ञता’’ पाने के लिए अटैचमेंट व डिटैचमेंट के सही संतुलन की हम सबको जरूरत है।

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