जिस प्रकार भक्त उठते-बैठते, सोते-जागते, चलते-फिरते, संसार के सभी कार्य करते हुये अपने दिल में प्रभु को बसाये रखता है, मन में एक ही ख्याल रखता है कि मैं जो कुछ भी हूँ, वह सब मेरे प्रभु की कृपा है। इसलिए उसकी प्रसन्नता के लिए ही मुझे जीना, खाना, पीना, कार्य करना, कमाना और उसे समझना है, ऐसे ही भाव एक राष्ट्रभक्त (राष्ट्रभक्ति) के होते हैं।
पूज्य श्री सुधांशु जी महाराज कहते हैं ‘‘राष्ट्रभक्ति का स्थान ईश्वर भक्ति से भी बढकर होती है, देशभक्ति जो देश के प्रति सम्पूर्ण समर्पण मांगती है। एक ही बात उसके अन्दर चलती रहती है कि मेरे राष्ट्रदेव! मैं कौन-सा प्रयास करूं कौन-सा कर्म करूं जो तेरे भाल को ऊँचा कर जाय। जैसे एक भक्त परमात्मा परायण होकर जीता है, ठीक इसी प्रकार एक राष्ट्रभक्त का जीवन इससे कम नहीं हो सकता, सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र परायण होकर जीना एक राष्ट्र भक्त का धर्म है।’’
इससे नीचे देशभक्ति सम्भव ही नहीं, हमारे देश के शहीदों, बलिदानियों, देशभक्तों ने हमें इसी संकल्पना पूर्ण जीवन को जीकर आजादी दिलाई। वास्तव में देश के वीर जवान रात दिन 24 घंटे जब सीमा पर मुसीबत सहते हुए देश की रक्षा करते हैं, तब देश के करोड़ों नागरिक रात में चैन व शांति की नींद से सो पाते हैं। हमारा सम्पूर्ण लोकतंत्र भी हमारे देशभक्ति के बल पर ही सुरक्षित है।
क्योंकि राष्ट्र शक्तिशाली उसके नागरिकों के समर्पण पर ही बना रहता है। हम बात भगवान श्रीकृष्ण की करें, उन्हें लोकतंत्र के प्रथम प्रणेता भी कह सकते हैं। इसके लिए उन्हें अत्यधिक संघर्ष करना पड़ा है। वह ऐसा काल था जिसमें देश के नागरिकों को अभिव्यक्ति के अधिकार की बात तो दूर, अपने खाने-पीने, सोचने, अपने संबंधों को ठीक ढंग से निर्वहन करने तक का अधिकार नहीं था। गायें पालकर दूध-घी जनता तैयार करती थी, पर उस पर अधिकार राजा व राजशक्ति का था, घी, दूध, अन्न, फल, साक-भजी पर टैक्स जैसी अनेक विपरीत स्थितियां उन दिनों थीं। कंस जैसे राजाओं के प्रति श्रीकृष्ण ने जन आंदोलन ही तो खड़ा किया, उन्होंने जनता को जागृत एवं एकजुट करके तत्कालीन राजतंत्र द्वारा चलाई गयी कुप्रथाओं का विरोध किया और कठिन संघर्षों के बीच जनतंत्र, जनहित की आवाज से जुड़ा लोकतंत्र स्थापित करने में सफलता पायी।
आज का भारत एक लोकतंत्रीय देश है, हमारे देश का संविधान प्रत्येक नागरिकों को समान अधिकार देता है, देश के लोग सुख-सुविधा के साथ जी सकते हैं, जीवन जीने एवं जीवन को अभिव्यक्त करने की हमें स्वतंत्रता है, पर देश को इस स्वतंत्रता की अवस्था तक लाने में सबसे अधिक महत्वपूर्ण योगदान हमारे शहीदों, बलिदानियों एवं देश के समर्पित वीर सैनिकों को जाता है।
इसी प्रकार इसे सशक्त व सुमधुर-सौहार्दपूर्ण बनाये रखने की जिम्मेदारी आज हमारे देश की जनता के हाथों है। इस स्वतंत्रता को बचाये रखने के लिए जनता का ईमानदारी भरा परिश्रम, निष्ठापूर्ण पुरुषार्थ, देश के प्रत्येक नर-नारी का पवित्रता भरा संकल्प, परस्पर सम्बन्धों में विश्वास एवं एक दूसरे के प्रति सम्मान भाव कायम रखना आदि विशेष मायने रखते हैं। क्योंकि देश बनता ही है नागरिकों के सामूहिक सद्संकल्प से और मजबूत जनता के सामूहिक सदपुरुषार्थ से होता है। अमृतकाल के इस स्वतंत्रता दिवस का यही संदेश है।
यह पर्व हर नागरिक के शपथ लेने का भी दिन है कि हम नर-नारी राष्ट्र के प्रति परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे और एक दूसरे का सम्मान करते हुए देश का गौरव बढ़ायेंगे। इस प्र्रकार जब प्रत्येक व्यक्ति के अंग-अंग से राष्ट्रभक्ति हिलोर लेती है, तो संपूर्ण समाज जाग उठता है। राष्ट्रजागरण का यह दायित्व अनन्तकाल से हमारे गुरु व संत-महापुरुष निभाते रहे हैं, वास्तव में हमारे सनातन धर्मावलम्बी व हमारे संत, गुरु सदा से प्राण फूँकने में समर्थ थे।
शास्त्रों में कहा भी गया है कि जीवन व राष्ट्र दोनों का निर्माता होता है हमारा गुरु। हजारों वर्षों से हमारे देश का यही गुरु अनुशासन रहा है। सदगुरु अपने शिष्य में प्राण जगाकर पुरानी परम्परागत जिन्दगी में नई जिन्दगी जगाता है। दिनचर्या से लेकर खाने, पीने का ढंग, काम करने का ढंग बदलता है। सोचने का ढंग बदलकर उसे रूपान्तरित करता है। इसीलिए हमारे देश में राष्ट्र पारायण, परमात्म पारायण संत, योगी, ज्ञानी ध्यानी की संगति करने की परम्परा है।
गुरु अपने सम्पर्क में आने वाले के जीवन के प्रत्येक पल को आदर्श मूल्यों के व्यावहारिक मापदण्डों के सहारे त्याग, अपरिग्रह, सेवा, सहनशीलता, समझदारी के साथ तपाते हैं, तो व्यक्ति में राष्ट्रीयता फूट पड़ती है। यह राष्ट्रीयता त्यागमय होती है, ऐसी ही राष्ट्र समर्पित भक्ति की आज जीवन, समाज एवं सम्पूर्ण जनमानस को आवश्यकता है। आइये! जन-जन को संगठित करके सम्पूर्ण सामाजिक व राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में बदलाव के लिए समूह मन जगायें। जिससे राष्ट्रबोध (राष्ट्रभक्ति) जग सके।