भारत हथियार से नहीं, हिम्मत से सिरमौर रहा। हमारे लिए किसी ने कुछ किया, तो हम उसका भी सम्मान करें ऐसी हिम्मत। यही श्रेष्ठ परम्पराएं हमारे यहां पीढ़ियों को हस्तांतरित की गयी हैं। यह ऐसा देश है जहां बड़ों के लिए, धर्म-संस्कृति के लिए, देश के लिए अपना यौवन, सुख सब कुछ छोड़ देने की परम्परा है। यह हमारे माता-पिता, बुजुर्गों के सम्मान की संस्कृति भी है। श्रीराम इसी देश में जन्में, जिन्होंने पिता की आज्ञा पाते ही राज्याभिषेक के पल राज्य छोड़कर वन चल पडे़। पद्मपुराण में वर्णन आता है कि
मातरं-पितरं पुत्रे न नमस्यति पापधीः, कुरुभीपाके बसेत् तावद् युगसहस्रकम्य्
अर्थात जो पुत्र अपने माता-पिता को सम्मान नहीं करता, उसे सहस्र युगों तक कुम्भीपाक नामक नरक में रहना पड़ता है, जबकि माता-पिता, बुजुर्गों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता बरतने, उनकी सेवा, सम्मान करने वाले को असीम सुख-शांति, संतोष, सदगति प्राप्त होती है। भारतीय संस्कारों में माता-पिता के लिए
सर्वतीर्थमयी माता, सर्वदेवमयः पिता, मातरं पितरं तस्मात्, सर्वयत्नेन पूजयेत्।।
के प्रयोग की परम्परा है। मातृदेवो भव, पितृदेवो भव ही हमारी सांस्कृतिक विरासत है। वास्तव में माता-पिता, बुजुर्गों एवं वरिष्ठ नागरिकों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता भारतीय संस्कृति के मूल तो हैं, लेकिन भौतिकवादी संस्कृति के प्रभाव से इन दिनों इनके प्रति श्रद्धा-सम्मान-सेवा, सहायता में कमी आयी है।
वास्तव में जिस माता-पिता ने हमें जन्म दिया, जिनके कारण हम धरा पर आये संस्कार देकर संवारा, पढ़ा-लिखा कर खड़ा किया, साथ ही साथ ही वे व्यक्तित्व समाज के हित में अनूठे देव कार्य करते आ रहे हैं, भले आज उनके पंख कमजोर पड़ गये हैं, बुजुर्ग हो चलें हों, परन्तु उन्होंने हम नई पीढ़ी के लिए अद्भुत उड़ाने भरीं, अपने को खपाया है। ऐसे बुजुर्गों के सपने बिखरने से बचाने, अगली आने वाली पीढ़ी में इनके त्याग-संघर्ष एवं महत्वपूर्ण योगदान के भाव जगाने के संकल्प सहित इन्हें संरक्षण-अपनत्व देकर सम्मानित करने के लिए विश्व जागृति मिशन ने श्रद्धापर्व की स्थापना की और यही पर्व आज एक आंदोलन बनकर उभर रहा है।
विश्व जागृति मिशन का यह अभियान लगभग तीन दशक से आनन्दधाम सहित देश-विदेश में फैले मिशन के मण्डलों, सत्संग समितियों के परिसरों में फ्त्रिस्तरीय भारतीय परिवार व्यवस्थाय् के पुनर्जागरण के संकल्प सहित हर्षोल्लासपूर्ण मनाया जा रहा है। जनरेशन गैप से त्रस्त देश व विश्व को नये रूप में गढ़ने एवं वरिष्ठ नागरिकों को उनके मौलिक हक दिलाने के संकल्प से इस श्रद्धापर्व द्वारा अब तक देश के लाखों नागरिकों का मान-सम्मान बढ़ाया है। श्रद्धापर्व ‘इक्कीसवीं सदी के युगधर्म निर्वहन’ हैं। परिवारों के बीच ऐसी परम्परायें जगाने का यह अभियान है, जिसमें नई पीढ़ी अपने बुजुर्गों का मान-सम्मान बढ़ाकर उनके जीवन के श्रेष्ठ कार्यों को भी गौरवान्वित करा सके। देशभर में स्थित मिशन के 85 मण्डलों एवं 11 अन्य देशों में यह पर्व प्रतिवर्ष हर्षोल्लासपूर्वक मनाया जाता है। 1997 से प्रतिवर्ष 2 अक्टूबर को राष्ट्र-समाज-लोकहित में उत्कृष्ट सेवा गौरव हांसिल कर चुकी प्रतिभाओं को मिशन सम्मानित करता आ रहा है।
‘‘यदि हम पारस्परिक शांति-सद्भाव, प्रेम, करुणा, संवेदनापूर्ण सभ्य समाज बनाना चाहते हैं, तो यह कार्य हमें अपने माता-पिता को सम्मान देने से प्रारम्भ करना होगा। क्योंकि जिनकी उंगली पकड़कर हमने चलना सीखा, जिन्होंने हमें भाषायी संस्कार दिये, जीवन को पोषित कर प्रेम, करुणा सहित अपना सर्वस्व लुटाया। उन माता-पिता, बुजुर्ग, वरिष्ठजनों के प्रति आदर, कृतज्ञता प्रकट करना भी हमारा धर्म है। श्रद्धा पर्व उसी संदेश का पर्वोत्सव भी है। साथ ही आधुनिकता के दौर में अपने ही बूढ़े-बुजुर्गों की अह्नेलना की शिकार होती पुरानी पीढ़ी, जीवन निर्वहन के लिए सुदूर भागते युवाओं की मजबूरी के चलते विघटित होती भारतीय परिवार व्यवस्था, संयुक्त परिवार के प्रति समर्पण का अभाव, स्वार्थ पूर्ति के चलते परस्पर एक दूसरे को बोझ मानती पीढ़ियां एवं आधुनिक चकाचौंध में फंसते बच्चों के कारण दयनीय वृद्धों की स्थिति को संवारना हमारी ही तो जिम्मेदारी है।’’
आज के दौर में जहां नई पीढ़ी में बुजुर्गों पर समय, पैसा, भाव संवेदनाओं को लुटाने में संकोच बढ़ना दुखद पक्ष है, वहीं नई एवं पुरानी पीढ़ी के बीच अहर्निश बढ़ता जनरेशन गैप देखकर भी कष्टकर अनुभव होता है। ऐसे में प्राचीन भारतीय ऋषिप्रणीत आदर्श पारिवारिक जीवन मूल्यों के संकल्पों से दोनों वर्गों को जोड़ने एवं राष्ट्र के सांस्कृतिक उत्थान में नयी एवं पुरानी पीढ़ी को समायोजित करने का दोहरा संकल्प ही तो इस पर्व द्वारा विश्व जागृति मिशन निभा रहा है। इस पर्व के मुख्य उद्देश्यों में पहला हमारे ऋषियों द्वारा स्थापित भारत की संस्कार परम्पराओं को परिवारों के बीच स्थापित करना, दूसरा प्रत्येक माता-पिता व बुजुर्ग पीढ़ी को अपने परिवारों के बीच सम्मान और सुख भरा जीवन व्यतीत करने का बातावरण बनाना, जिससे देश में चल पड़ी वृद्धाश्रम परम्परा को समाप्त किया जा सके। तीसरा देश में पुरानी व नई पीढ़ी के बीच पैदा होते जनरेशन गैप को मिटाकर शांति, सुखी, सौभाग्यशाली समाज का पुनर्जागरण करना। इसी के साथ देश के विभूतिवानों को क्रमशः सम्मानित करना। इस क्रम में देश के पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा से लेकर देश की अनेक उच्च स्तरीय हस्तियां सम्मानित हो चुकी हैं।
घर का बुजुर्ग कमाता क्यों न हो, पर उसकी संताने भी उसके सम्मान रूप में कुछ राशि उसे अवश्य देने का संकल्प लें। क्योंकि जीवन में रिश्ते समर्पण-त्याग के बल पर निभते हैं। विश्वास, प्रेम रिश्तों को जीवंतता देते हैं।
इस पर्व को हम ठीक इसी तरह देखें जैसे भाई-बहन का त्यौहार रक्षा बन्धन, भैयादूज, करवाचौथ, गुरु के सम्मान में गुरुपूर्णिमा, मृत पितरों के लिये पन्द्रह दिन का श्राद्धपर्व आदि सम्पन्न होते हैं, इन्हीं पर्वों के समान श्रद्धापर्व भी मनाया जाता है।
आनन्दधाम की वानप्रस्थ व्यवस्था को श्रद्धापर्व के संकल्प पर आधारित बुजुर्गों के सामूहिक सम्मान का आदर्श माडल कह सकते हैं। जिसमें प्रत्येक बुजुर्ग अपने गुरु के चरणों में सत्संग, साधना, ध्यान, जप, गुरुदर्शन, स्वाध्याय आदि भारतीय परम्परा अनुसार अपने आत्मबल को बढ़ाने में लगे हैं। स्वस्थ शरीर, पवित्र मन, शरीर, प्राण और आत्म साधना द्वारा वे निज स्वभाव में स्थित हो शांति, संतोष, सौभाग्यमय जीवन साधना का अभ्यास करते हैं।
हर वृद्धगण हमारी नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्त्रोत्र, अनुभवों के कोष हैं, अतः उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित होनी ही चाहिए।’ आनन्दधाम आश्रम के साथ देश में अनेक वानप्रस्थ आश्रमों की स्थापना करने के पीछे पूज्यवर का बुजुर्गों के आत्मगौरव एवं सम्मान की प्राचीन परम्परा को जागृत करना और उनके जीवन को आनन्दमय बनाना है, जिससे बिना उपेक्षित वे मानव जीवन के सही उद्देश्य को प्राप्त कर सकें। जरूरत है हम सभी अपने बुजुर्ग माता-पिता व वृद्धजनों को पवित्र अंतःकरण से सेवा-सम्मान दें, हमारा श्रद्धापर्व आंदोलन यही सब प्रेरणायें तो देता है। स