ध्यान करने के लिए चित्त की निर्मलता प्रथम आवश्यकता है। स्वच्छ-स्वस्थ मनोदशा के साथ विषय-वासनाओं से दूर रहकर ही हम ध्यान की अवस्था में प्रवेश कर सकते हैं। ध्यान की सीढ़ी में जाने के लिए ‘‘युक्ताहार विहारस्य युक्तचेतस्य कर्मसु’’ की आवश्यकता पड़ती है, अन्यथा ध्यानी एकाएक नहीं लग सकता। वास्तव में जीवन में कुछ समय के लिए हम भोजन छोड़ सकते हैं, वायु को भी हम कुछ देर तक रोक सकते हैं, पर मन की एकाग्रता के बिना चंचलता रहते हुए ध्यान लगाना असम्भव है। यही तो गीता कहती है मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढ़म्। तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।। श्रीमद्भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि हमारा आचरण गलत है, हमारा खानपान गलत है, शयन की गति हमारी गलत है, जागरण के लिए कोई समय सीमा नहीं है, तो ध्यान कर पाना असंभव है।
यह सभी कारक चित्त की मलिनता से सम्बन्धित हैं। जबकि योग सूत्र कहता है दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् अर्थात् ध्यान के लिए सब ओर से वैराग्य धारण करना पड़ता है। यह सच है कि साधारण जीवन में रहते हुए हम कठिन वैराग्य की कल्पना नहीं कर सकते, घर को छोड़कर वैराग्य नहीं ले सकते, लेकिन जब ध्यान की अवस्था में प्रवेश करना है, ध्यान के क्षेत्र में, ध्यान के आसन पर गुरु के सम्मुख आना चाहते हैं, तो उन विषयों को छोड़ना ही पड़ेगा, जिससे हमारा चित्त खाली हो। चित्त साफ रहे और ध्यान का मार्ग खुल सके। साफ चित्त की अवस्था में प्रवेश के लिए हमें गुरु की छाया, गुरु के शब्द, गुरु ज्ञान, गुरु निर्देशित आचरण, गुरु उपदेश का महत्व समझना आवश्यक है। अन्यथा कचरा भरे मन व चित्त के अंदर ध्यान का संदेश तक प्रवेश करना असम्भव होता है, ध्यान में प्रवेश तो बड़ी बात है।
वास्तव में ध्यान बहुत लास्ट स्टेज है, धारणा से ध्यान अंकुरित होता है। धारण करने की कैपिसिटी जितनी गहरी है, उसी कैपिसीटी पर हमारे ध्यान की निरंतरता निर्भर करती है। हमारे आचार्यों ने अनेक सोपानों के साथ प्रत्याहार, धारणा फिर ध्यान की क्रमशीलता बताई है। यदि धारण करने की शक्ति ही नहीं है, तो ध्यान करेेंगे किसका? इसलिए हमे सर्व प्रथम अपने चित्त में, मन में, उस वस्तु, दृश्य, उस भगवान की मूर्ति, भगवान के शब्द व ओम् ‘‘एकाचाक्षर मंत्रस्य’’ नामक ब्रह्म को धारण करने की शक्ति बनानी पड़ती है इसके लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार से गुजरना होता है।
ध्यान रूपी महल के लिए यही फाउन्डेशन हैं। जैसे बिल्डिंग बनाते समय उसका फाउण्डेशन गलत है, तो बिल्डिंग गिर जायेगी। उसी प्रकार यदि धारणा, प्रत्याहार आदि सही स्थिति में नहीं है, तो ध्यान लगेगा नहीं, सब कुछ बिखरता जायेगा। इसलिए हमें अपने हृदय में, चित्त में, मन में, बुद्धि में धारणा की क्षमता जगाने वाले सभी प्रयोग अपनाने होते हैं। आचार्यों का कथन है कि ‘‘यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार को पार करते हुए जब हम धारण करने की शक्ति जगा लेते हैं, उस अवस्था में हमारा ध्यान उतरता है। इस प्रकार ध्यान ठीक होगा, तब हम समाधि के पथ पर चल पडे़ेंगे।
उपनिषदों में वर्णन है कि जब हमारी समाधि समाप्ति की ओर जा रही होती है, तो उसी समाधि रूपी बीज में मोक्ष का जन्म होता है। मोक्ष का अंकुर समाधि बीज में निहित है। दूसरे शब्दों में समाधि की पूर्ण अवस्था में मोक्ष जन्म लेता है। पतंजलि के योग दर्शन के अनुरूप ही भगवदगीता में श्री कृष्ण अर्जुन के अंदर स्थित सम्पूर्ण दूषित, मलिन वातावरण को खाली कराने का प्रयास करते हैं। जब अर्जुन अपने हृदय, मन को साफ कर लेता है, तब वह कहने में समर्थ बनता है कि ‘‘शिष्यस्ते हम्’’, मैं आपका शिष्य हूं। जब तक तन-मन-चित्त-बुद्धि-विचारों से खाली नहीं हुआ, तब तक अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण को रिश्तेदार ही समझ रहा था।
महापुरुषों के तप का अपना प्रभाव है, वह सामने वाले व्यक्ति को बदल सकते हैं। जीवन में जब कोई महापुरुष आता है, तो हृदय से श्रद्धा उमड़ती है, सजगता आती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि ‘‘जब पूर्व में किया गया तप फलित होता है, तो तप के प्रभाव से जीवन में महापुरुष मिलते हैं। योगी पुरुषों की विशेषता है कि जब कोई व्यक्ति योगी के सामने आता है, तो वे अपने योग बल से उसे पहचान लेते हैं, बिना जन्मपत्री देखे, बिना नाड़ी देखे उसके कष्ट समझ लेते हैं। ध्यानी योगी का वास्तविक स्वरूप यही तो है। योगी अपने साफ हृदय से सब कुछ पढ़ लेता है, किसी के सुख-दुःख को इसलिए जान लेता है, क्योंकि इस अवस्था में उसे शरीर का पूरा ज्ञान हो चुका होता है।
‘‘सूर्ये संयमात् भुवन ज्ञानम्’’ अर्थात् अपनी सूर्य नाड़ी को स्थिर करके सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कहां क्या हो रहा है? यह समझने-जानने की अवस्था जो योगी पा चुका होता है, उसके लिए कहां क्या हो रहा है? जानना असम्भव नहीं है। बैठे-बैठे योगबल से देखता रहता है, यही ध्यान की शक्ति है, तभी तो हमारे ऋषियों ने एक जगह बैठकर सूक्ष्म विधि से अंतरिक्ष का अवलोकन कर लिया, धरती से सूर्य की दूरी नाप ली थी। वे ग्रहों की गति, सूर्य की गति, चंद्र की गति, पूरे भूमंडल जगत को बैठे-बैठे अपनी ध्यान पद्धति से ही देख लेते थे।
खास बात यह कि ध्यान (ध्यानी) जैसे महत्वपूर्ण पक्ष में उतरने के लिए अभ्यास आवश्यक है। ध्यान पुरुषार्थ की अत्यधिक निरंतरता की मांग करता है। जैसे किसी संस्था, संगठन, भवन व आश्रम के पीछे जड़ और चेतन दोनों वस्तुओं का संगम होता है, उसी प्रकार ध्यान भी अहर्निश अभ्यास का विषय है। ध्यानयोग की यही युक्तता है। जब ज्ञान, कर्म और भक्ति तीनों का त्रिपुटी सम्बन्ध होगा, तो साधक में स्वतः ही ध्यानयोग उत्पन्न हो जायेगा, यह श्रीमद्भगवदगीता का संदेश है। आइये! हम सब महर्षि पतंजलि के ‘‘अभ्यासवैराग्याभ्यांतिरोधः’’ जैसे सूत्रों को जीवन में आत्मसात करें और आनंदधाम आश्रम जैसे दिव्य वातावरण में जीवन को ध्यानी योगी जैसा बनायें।
4 Comments
जय हो सदगुरू देव महाराज जी आपकी जय हो शुक्रिया बहुत बहुत शुक्रिया आपकी अनंत अनंत दया द्रष्टि के लिए शुक्रिया आप सदैव स्वस्थ निरोग रहेआपकी दया द्रष्टि सभी भक्तो पर सदैव बनी रहे औम गुरुवै नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः
शत् शत् नमन गुरुदेव
अनंत कोटि धन्यवाद गुरुदेव
Guidance of true Guru plus the grace of God given through Guru works wonders in a true seeker’s life.
Thank you so much Guruji for powerful motivation
Great Knowledge !