देहधारियों में मनुष्य को ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है, उसे सर्वोत्तम शरीर मिला है, तथा उसके पास एक उच्चस्तरीय मनः व आत्म संस्थान भी है, जिसे संतुलित रखकर वह तेजस्विता-मनस्विता भरे जीवन की ऊंचाइयों को पा सकता है। किंतु अपनी अव्यवस्थित कल्पनाओं, अनुचित इच्छाओं, चाहतों, आदतों के कारण मनुष्य अनेक प्रकार की आधि-व्याधियों से घिरता, अपने निज स्वरूप को भूलता और दुःख पाता है। इन कष्टों से निवृत्ति एवं भ्रांत चित्त से मुक्ति के लिए ध्यान-साधना, योग, यज्ञ, जप का विशेष स्थान है। इनसे साधकों के तन-मन, मस्तिष्क का संतुलन और प्राणायाम से जीवनी-शक्ति का विकास होता है। ध्यान आंतरिक शांति प्रदान करता है। यह सभी व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास से जुड़े अनुशासन हैं, इसी प्रकार सामाजिक वातावरण एवं वाह्य प्रकृति, पर्यावरण संवर्धन के लिए ऋषियों ने यज्ञानुशासन का विधान दिया है।
यद्यपि यज्ञ व्यक्ति की आंतरिक एवं वाह्य दोनों प्रकृतियों का शोधन कर उसे दैवी अनुदानों व सुख-शांति-संतोष-समृद्धि-सौभाग्य से भी भरता है।
भारतीय संस्कृति में दैनिक अग्निहोत्र से लेकर पंचमहायज्ञ का विधान है। ‘यज्’ धातु से निष्पन्न इस यज्ञ शब्द के हमारी आर्ष परम्परा में तीन अर्थ हैं-
१. देवपूजन अर्थात् देवी-देवताओं के सद्गुणों को अपनाकर जीवन को देवतुल्य बनाना
२. दान अर्थात् परमार्थ हेतु उदारता, समाज परायणता में अपने साधन लगाना तथा
३. संगतिकरण अर्थात् समान सद्विचारधारा के लोगों में पारमार्थिक एकता स्थापित करना। इस प्रकार यज्ञ का यह परमार्थ व सत्कर्म से भरा दर्शन अनन्तकाल से धरापर प्रवाहित है।
यज्ञ से आत्मशुद्धि, आध्यात्मिक उन्नति और आरोग्य की रक्षा होती है, जिससे आनंद एवं शांति की अनुभूति होती है। यज्ञ से वातावरण की शुद्धि होता है, जिससे पुष्टिदायक प्राणवायु उपलब्ध होते है। विचारों में स्थिरता आती है, मानसिक विकार दूर होते हैं। विशिष्ठ जड़ी-बूटी व हवन सामग्रियों की आहुतियों से उत्पन्न गैसों द्वारा वातावरण में उपस्थित हानिकारक कीटाणुओं का नाश होता है, बीमारियां दूर होती हैं और शरीर की रोग-प्रतिरोधी क्षमता बढ़ती है। यज्ञीय मंत्रें के विधिवत उच्चारण से वायुमंडल में दिव्य तरंगों का प्रसार होता है। जिससे लोगों के मन में छायी बुराइयां, पाप, द्वेष, वासना, कुटिलता, स्वार्थपरता जैसे दुर्गुण दूर होते हैं। यज्ञ के अनेक प्रकार हैं गरुण व शिवपुराण के अनुसार पूर्ण निष्ठा से विद्यादान करना, अध्यापन, शिक्षण कार्य करना ब्रह्मयज्ञ कहलाता है। श्रद्धापूर्वक तर्पण कार्य करना, पितृयज्ञ कहा जाता है। अग्नि में शाकल्य की आहुति देना देव यज्ञ कहलाता है। अन्न पशु-पक्षियों को खिलाना भूत यज्ञ एवं अतिथि पूजन करना नृयज्ञ कहा जाता है।
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्। होमो दैवो बलिभौंतो नृयज्ञोतिथि पूजनं।।
(गरुण पुराण)
कर्मयज्ञस्तपोयज्ञो जपयज्ञस्तदुत्तरः। ध्यान यज्ञो ज्ञान यज्ञः पञ्च यज्ञः प्रकीर्तिताः।।
(शिव पुराण)
जिस प्रकार यज्ञ के नाम अनेक हैं, उसी प्रकार विभिन्न ग्रंथों में यज्ञ के विषय में अनेक मत भी हैं। श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक
‘‘द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयःशंसितव्रताः।।’’
कहता है कि जो व्यक्ति तीर्थों में धार्मिक स्थलों में यज्ञभाव से धन को लगाते हैं वे द्रव्ययज्ञ करते हैं। जो व्यत्तिफ़ अपने इस पञ्चभौतिक शरीर से कठिन तप करते हैं, तपस्या करते हैं वे तप यज्ञ करते हैं। जो यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि इन अष्टांग योग को अपनाते हैं वे योग यज्ञ करते हैं। जो सद्ग्रंथों अर्थात् वेदादि का स्वाध्याय करते हैं वे स्वाध्याय यज्ञ करते हैं। जो लोग शास्त्र के वास्तविक अर्थ जानते हैं तथा जानने का प्रयत्न करते हैं वे ज्ञान यज्ञ करते हैं तथा जिनके सभी क्रिया-कलाप सर्वदा शुद्ध-सात्विक-धर्मानुसार होते हैं वे सत्वशुद्धि नामक यज्ञ करते हैं।
विश्व जागृति मिशन द्वारा आयोजित होने वाले ध्यान-साधना शिविरों में विविध यज्ञों के प्रयोग करके अज्ञान, दुःख, पीड़ा, क्लेश, भ्रम एवं भय, रोग से संतप्त लोगों को आंतरिक धैर्य, शांति, सौभाग्य, आरोग्य से जोड़ते हैं। आनन्दधाम परिसर सहित मनाली, ऋषिकेश आदि में सम्पन्न होने वाली ध्यान-साधनाओं में साधक अक्सर यज्ञ विधान का लाभ लेते ही हैं। विक्षुब्ध पर्यावरण एवं जीवन को शांत बनाये रखने हेतु लोग घर में स्वयं अग्निहोत्र परम्परा को चलाते आ रहे हैं। इस समसामयिक समस्या को मिटाने में भी सहायक साबित हो सकेगा मिशन का यज्ञमय अभियान। आइये! हम सब यज्ञ अभियान चलायें, देवताओं एवं गुरुओं की कृपा पायें।