धन केवल देह के पोषण और विलास के लिए नहीं | Sudhanshu Ji Maharaj

धन केवल देह के पोषण और विलास के लिए नहीं | Sudhanshu Ji Maharaj

धन केवल देह के पोषण और विलास के लिए नहीं

बहुत धनी और सुखी दिखाई देने वाले भी दु:खी है

संसार में अनेक व्यक्ति हैं, जिनके पास अन्न, धन एवं नाना प्रकार के संसाधन, वैभव से लेकर भोग सामग्री भरे पड़े हैं। प्रत्यक्षतः वे बहुत धनी और सुखी दिखाई भी देते हैं, पर वास्तव में ऐसा है नहीं। ऐसे लोगों को अंदर से टटोलें तो वे दयनीय, हताश, निराश दिखते हैं। यहां तक कि किसी गरीब से भी अधिक परेशान रहते हैं। बस इकट्ठा करने की ललक भर उनकी देखने लायक होती है, पर उसका उपयोग कर पाना तक कठिन हो जाता है।

धनी व्यक्ति के दु:खी होने का कारण

क्योंकि व्यक्ति जब धन का सदुपयोग करने में सर्वथा असमर्थ होता है, तो सारे धन को वह अपनी देह के पोषण तथा विलास में व्यय करता है। साधनों के सदुपयोग की कोई सही रीति-नीति न होने के कारण ऐसे लोग उसे अपने विलास में लगाते हैं, इस प्रकार वह भोग उनकी सम्पूर्ण खुशी-प्रसन्नता का भक्षण कर डालती है। वास्तव में दुर्बुद्धि जन्य मनुष्य के पास धन संग्रह होने पर वे इस धन से अपने साथियों का अहित ही करते हैं। कहा भी गया है कि-

मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः, सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।

नार्यमणं पुष्यति नो सखायं, केवलाघो भवति केवलादी।।

अर्थात ‘धन से मन में लोभ, मोह, मद और अहंकार भाव का जन्म होता है। बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति भी इसके चंगुल में फंस जाता है, फिर दुर्बुद्धि व्यक्तियों की क्या बात है। वे तो धन पाकर पागलों की तरह उचित अनुचित का विचार किए बिना भोग विलास में लिप्त हो जाते हैं।’ इससे स्पष्ट होता है कि धन संग्रह से अधित आवश्यक है, अंतः करण में उसके सदुपयोग करने की यज्ञीय भावना का होना। अर्थात जिसका जीवन समाज, लोकसेवा, दान, परोपकार में लगा है, वही अकूत धन पाकर उसे सेवा में लगायेगा। इसके विपरीत जिसमें यज्ञीय भावना का पूर्णरूपेण अभाव है, वह उस धन से प्राणि-वनस्पति-मानव किसी भी जगत के हित पोषण का कार्य नहीं कर सकता। न ही किसी पारमार्थिक आयोजन में व्यय करता है। क्योंकि उसके सामने केवल उसका शरीर और उसे मजबूत करने वाले पदार्थ ही महत्वपूर्ण दिखते हैं।

जीवन को देहाभिमान से बचायें

भारतीय संतगण अपने अनुभूति के आधार पर कहते हैं कि प्राप्त साधनों को अकेला भोगने वाला, औरों को खिलाए बिना स्वयं अकेला खाने वाला केवल पाप खाता है। ऐसे व्यक्तियों के संग रहने वाले अन्य लोगों में देख-देखकर आलस्य-प्रमाद से लेकर अपराधिक प्रवृत्ति बढ़ती है, समाज में अनाचार व दुराचार को बढ़ावा मिलता है तथा अराजकता फैलती है। समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं कुप्रथाओं का जन्म पापकर्मों से अर्जित व संग्रहीत एवं भोग में लगने वाले धन से भी होता है।

क्योंकि व्यक्ति का निर्माण एवं विकास समाज के सहयोग के बिना सम्भव ही नहीं, ऐसे में जब उसी समाज में हमारे आसपास असंख्य व्यक्ति एक वक्त की रोटी के बिना भूखे-नंगे अभावों में जीवन जी रहे हों और दूसरी ओर कोई विलासिता का जीवन जीने का सुख भोग रहा हो, तो इसे कैसे न्याय संगत ठहराया जा सकता है। इसके विपरीत लोक सचेतक स्तर के व्यक्तित्व देहाभिमानी मानसिकता को निकाल फेंकने के लिए अपने धन साधन का उपयोग गौसेवा, वृद्धसेवा, शिक्षा, दान, धर्म, साधना, उपासना, सत्संग आदि में करते हैं। लोगों के शरीर, मन और आत्मा को भटकने से बचाने और समाज में देवमय वातावरण बनाने में हर हर सम्भव सहायता करते हैं, भले स्वयं को रूखा-सूखा ही खाना पडे़। सभी ऐसे सेवा के प्रयोगों में अपनी शक्ति, साधन लगायें, जीवन को देहाभिमान से बचायें, स्वयं तथा अपने समाज को धन्य बनायें। धन-साधन की सार्थकता बढ़ायें।

1 Comment

  1. DAYA SHANKAR says:

    Aum shri sadguruve namha

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