साधना से तात्पर्य है- अभ्यास। योगानुशासन के अभ्यास से व्यक्ति आध्यात्मिक प्रकाश की ओर अग्रसर होता है। साधक वह है, जो अपने मन और बुद्धि की कुशलता और पूर्ण समर्पण एवं भक्ति के साथ साधना करता है। एकदम नये योगाभ्यासी, जो योग नहीं जानते, वह साधना द्वारा अपना विकास कैसे कर सकते हैं और आकांक्षा के उच्च स्तर तक कैसे पहुंच सकते हैं? सबके लिए ही महर्षि पतंजलि ने साधना मार्ग का निर्देश किया है। यह मार्ग आध्यात्मिक दृष्टि से दीक्षित तथा अदीक्षित दोनों तरह के साधकों के लिए प्रकाश स्तम्भ का कार्य करता है। इस मार्ग के अंतर्गत पतंजलि ने तीन सोपानों (उपायों) का प्रतिपादन किया है-
1- अभ्यास-वैराग्य,
2- क्रियायोग और
3- अष्टांग योग।
महर्षि पतंजलि ने अधिकारियों के अनुसार समाधि के साधनों का प्रतिपादन किया है। उन्होंने योगमार्ग पर समारुढ़ उत्तम साधकों के योग-प्राप्ति का मुख्य (प्रथम) सोपान (साधना) अभ्यास-वैराग्य निर्धारित किया है। उत्तम साधकों में संन्यासाश्रम वाले परमहंस संन्यासी आते हैं। जड़भरतादि इसी कोटि के साधक थे। वे वानप्रस्थी-जो इस जन्म से योग
साधना में रत हैं-मध्यम कोटि के साधक कहे जाते हैं। उनके लिए क्रियायोग की साधना उपदिष्ट हुई है। अत्यन्त चंचल स्वभाव के गृहस्थाश्रमियों के लिए अष्टाघõयोग की साधना कही गयी है, क्योंकि विषस वासनाओं से जर्जर उनका चित्त अभ्यास-वैराग्य एवं क्रियायोग जैसे दुःसाध्य उपायों को सहज ही क्रियात्मक रूप नहीं दे पाता है।
अभ्यास एवं वैराग्य समाहित चित्त के उत्तम-अधिकारियों के लिए है तथा द्वितीय पाद से तृतीय पाद के प्रारम्भ पर्यन्त वर्णित योग-साधना का मार्ग-क्रियायोग एवं अष्टांग योग व्यथित चित्त के लिए है।
भाष्यकार व्यास ने चित्त की उपमा सरिता से देते हुए उसकी दो धाराएं बतलायी हैं। ये धाराएं वृत्तिरूप हैं। दो धाराओं के प्रवाहित होने का क्षेत्र भिन्न-भिन्न है। पहली धारा अन्तर्मुखी है और दूसरी धारा बहिर्मुखी है। अन्तर्मुखी धारा आत्मकल्याण के लिए बहती है तथा पाप अर्थात् जन्म, मरणादि भीषण कष्टों के लिए बहिर्मुखी धारा बहती है।
जो चित्तरूपी नदी कैवल्याभिमुख होकर विवेक विषय मार्गगामिनी होती है वह (कल्याण का कारण होने से) ‘कल्याणवहा’ कही जाती है और जो संसाराभिमुख होकर अज्ञान विषय रूपी तुच्छमार्ग की ओर बहती है वह (दुःख का कारण होने से) ‘पापवहा’ कही जाती है। चित्तरूपी नदी में दोनों प्रकार की वृत्तिरूप तरंगे उदित और लीन होती रहती है। चित्त-नदी का हानिकारक बहिर्प्रभाव अवरूद्ध करने तथा लाभ कारक अन्तःप्रवाह तीव्र करने के लिए अभ्यास एवं वैराग्य संज्ञक दो साधनों का उपदेश दिया गया है।
सर्वप्रथम वैराग्य के द्वारा चित्त की बहिर्मुखी धारा रोकी जाती है तदनन्तर सत्त्वपुरुषन्यताख्याति रूप विवेकज्ञान के ‘अभ्यास’ से आत्मज्ञानाभिमुख अन्तःप्रवाह को प्रारंभ किया जाता है। अतः चित्त का विशेष ड्डोत अवरूद्ध करने तथा विवेक-स्तोत्र उद्घाटित करने के लिए अभ्यास एवं वैराग्य दोनों साधन अपेक्षित हैं।
विषयों के प्रति स्वाभाविक वितृष्णा को ‘वैराग्य’ कहते हैं। अपर और पर के भेद से वैराग्य द्विविध है। अपर वैराग्य के सिद्ध होने पर ही पर वैराग्य के लिए प्रयत्न किया जाता है।
चित्त में रहने वाले रागादि ‘कषाय’ स्वरूप हैं, क्योंकि इन रागादि कषायों के कारण इन्द्रियां अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त होती है। ये रागादि मल इन्द्रियों को तत्तद् विषयों में प्रवृत्त न कर सकें, इसलिए उनके प्रक्षालनार्थ जो प्रयत्नारम्भ (मैत्री, करुणा आदि भावनाका अनुष्ठानरूप प्रारम्भिक प्रयत्न) किया जाता है। उसी को ‘यतनाम’ संज्ञक वैराग्य कहते हैं पर वैराग्य के बिना मोक्ष (कैवल्य) असम्भव है अर्थात् कैवल्य की प्राप्ति ही अभ्यास वैराग्य का मुख्य फल है।