मन का निर्विचार हो जाना जिससे सारे विचार शांत हो जाएं, गहन मौन का नाम ही ध्यान है ! ध्यान कोई क्रिया नही है जो कि जाए, ध्यान तो स्वतः ही घटित होने वाली प्रक्रिया है क्योंकि साधक को उसके लिए प्रयत्न करना नही पड़ता बल्कि एक तल से दूसरे तल पर एक स्वचालित प्रक्रिया की भांति मन की लहरे लीन होती जाती हैं !
जैसे ही हम आंखें बंद करके बैठें, हमारा मन करतार से जुड़ जाए या विचारशून्य हो जाये , आते जाते विचारों के प्रवाह को देखिए ओर उसके बाद एकदम शांत अवस्था मे खुद को पहुंचा दीजिए !
ध्यान की चरम अवस्था ही समाधि है जिसमे साधक का संबंध इस संसार से कट कर करतार से जुड़ जाता है: जितने समय भी इसका आनंद ले सके वह कम है !
एकाग्रता जब गहरा होता जाता है तो आत्मशुद्धि भी स्वयम होती जाती है, साधक का मन दोषों, खोटो से दूर हटता जाता है ओर पूर्ण सात्विकता ह्रदय में उतर जाती है – शुद्ध पवित्र ह्रदय ही सीढ़ी है एकाग्रता की , इसके बिना एकाग्रता घटित हो ही नही सकता !
परंतु मुख्य बिंदु यह कि एकाग्रता किसी संबुद्ध सदगुरु की शरण मे बैठकर ही सीखना चाहिए क्योंकि बिना गुरु के निर्देश के हम उन बारीकियों तक पहुंच ही नहीं सकेंगे जो हमे विशिष्ट लाभ देती है !
हमारे ऋषि मुनियों ने ध्यान मे बैठकर ही सब कुछ पाया, प्रकृति के गूढ़ रहस्यों को जाना अनेक शास्त्र, यहां तक कि चिकित्सा विज्ञान के रहस्य स्वतः उनके अंदर उतरते चले गए, इसलिए यह एक महान विज्ञान है और हम सब को एकाग्रता का सहारा अवश्य लेना चाहिए !
ध्यान जब प्रभु से जुड़ जाता है तब वह सर्वश्रेष्ठ स्थिति को प्राप्त करता है, क्योकि भगवान की, उस परम सत्ता की रश्मियां हमें छूने लगती है , साधारण मनुष्य भी असाधारण हो जाता है, उसके अंदर दिव्यता प्रकट होने लगती है और वह महानता की ओर चल पड़ता है !
इसलिए परम आवश्यक ही नही, अनिवार्य है ध्यान का आश्रय लेना वह भी आ का युग जो भयंकर तनाव का युग हैं उसमें यदि शांति का पथ ढूंढना है तो ध्यान में चलो अपनी व्यस्त दिनचर्या में से कुछ समय एकाग्रता के लिए अवश्य निकालो अपने सदगुरु के शरण मे जाओ, उनका सहारा ओर उनकी कृपा आपको मानव से महामानव बना देगी !