आनन्दधाम आश्रम में भक्तों के कल्याण के लिए श्रावण मास में पूर्णिमा से पूर्णिमा तक आनन्दधाम आश्रम में निर्मित पशुपतिनाथ मंदिर में शिव आराधना, पूजन और रूद्राभिषेक की व्यवस्था की। साथ ही सिद्धशिखर के सामने हवन, शिव स्तुति और आरती का आयोजन किया। यथार्थ में गुरुदेव जी का चिंतन बहुत ही दूरगामी है। कोरोना की पाबन्दियों में सम्पूर्ण विश्व के लोग अपने घरों में सिमटे रहे, जहां किसी ने चुस्ती दिखाई, उन्हें कोरोना ने लपेट लिया।
भारत में एक परम्परा भी चतुर्मास में घर पर बैठो, प्रभुनाम का स्मरण करो, आत्मचिन्तन करो, ध्यान करो और आनन्द से ही घर को स्वर्ग बनाओ। किन्तु वर्तमान के भौतिक युग में इंसान को चैन कहां, धन-सम्पदा, सुख की तलाश में हर समय भाग रहा है। जोड़-तोड़ करता है। झूठ बोलता है, धोखा देता है और जीवन की दौड़ में देश-विदेश में भाग रहा है। तो भगवान का नाम लेने का, अपने बारे में सोचने का समय कहां। यह तो कोरोना ने सबके पावों में रस्सी बांध दी, उस इंसान को घर बैठने पर मजबूर कर दिया, जिसने प्रगति के नाम पर अपनी दुर्गति कर ली थी।
शिव की महिमा तो अनन्त हैं। प्रातः शिव आराधना के उपरान्त गुरुदेव शिव स्तुति पर थोड़े से समय के लिए चर्चा करते थे। हालांकि हम बड़ भागी हैं कि गुरुदेव थोड़े में ही बहुत कुछ समझा देते हैं। एक बार उन्होंने कहा शिव भगवान के वाहन के दर्शन करने के बाद हम शिव के दर्शन कर सकते हैं। नन्दी धर्म का प्रतीक है। उसका एक पैर बाहर है, तीन पैर अंदर को मुडे हुए हैं, जिसका अर्थ है कि कलियुग में धर्म का एक अंश तो लोग मानते हैं, किन्तु तीन अंश की अवहेलना करते हैं। अर्थात् धर्म लोगों के चिन्तन में आचरण में, व्यवहार में पूरी तरह मान्य नहीं है। दूसरे शब्दों में इस युग में धर्म या नैतिकता एक भाग और अधर्म या अनैतिकता तीन भाग मान्य है। यह सत्य उपनिषदों में भी बताया गया है।
ऐसी स्थिति में सुख कहां से आयेगा। वैसे भी सुख शब्द का सम्बन्ध हमारे शरीर से है। इन्द्रियों की वृद्धि होती रही तो सुख, न हुई तो दुःख। वास्तव में मानव जीवन का उद्देश्य आनन्द है, सुख नहीं। वर्तमान समय में अधिकतर लोग सुख के पीछे भाग रहे हैं। आनन्द की तो उन्हें जानकारी ही नहीं है। उस सुख को पाने के लिए आज का इंसान धन, सम्पत्ति, मान, पद पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। यही माया का परदा है, जो आज के इंसान की बुद्धि पर पड़ा हुआ है। यह परदा हटेगा, तो मानव जीवन का सत्य सामने आयेगा।
महाभारत में एक पात्र विदुर जी का है। हालांकि वह कौरवों के साथ थे, किन्तु उनकी सोच अलग थी। भगवान श्री कृष्ण ने जब उन्हें अपूर्व धन-सम्पत्ति का प्रलोभन दिया, तो उन्होंने विनयपूर्वक कहा, ‘‘अन्यसेन मरणम् विना दियानेन जीवनम्। देशन्ते त्व सन्निध्यिम् देहिये परमेश्वरः’’ अर्थात् इस असार संसार से मेरी शांतिपूर्ण मुक्ति हो और परनिर्भरता के बिना मेरा जीवन सम्मानपूर्ण हो। यही आत्मा की दो अनिवार्यताएं हैं। इसलिये आत्मज्ञान की हमें बुद्धि मिले अर्थात् आत्मा को जानने की जिज्ञासा हो, ताकि सांसारिक वस्तुओं के पीछे भागने की बजाये आत्मतत्व को जानने में रुचि हो। आत्मतत्व से ही परमतत्व का ज्ञान सम्भव है। शरीर तो नाशवान है। असली स्वामी तो आत्मा है, जो अंदर बैठा है, वही चेतना है। वही शरीर को चलाता है। उसी की आज्ञा से सब कार्य होते हैं। माया की शत्तिफ़ (आत्मा को) विभिन्न दुर्गुणों से क्षीण करने का प्रयास करती है। वे दुर्गुण काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार, मद, मत्सर जो दीमक की तरह मनुष्य को खोखला करते रहते हैं। मानव जीवन का उद्देश्य ईश्वर प्राप्ति है। मोक्ष है, जहां आनन्द का साम्राज्य है।
महात्मा विदुर चेतन विरक्ति का संदेश देते हैं। विरक्ति का अर्थ यह कदापि नहीं कि दुनिया का सब कुछ छोड़कर जंगलों में चले जाओ। इसका भाव यह है कि संसार को योगी, किन्तु विरक्ति भाव से, साक्षी भाव से, वस्तुओं के साथ मोह नहीं। गुरुदेव जी भी तो यही फरमाते हैं कि दुनिया से भागो नहीं, दुनिया में जागो। गुरुदेव बतलाया करते हैं कुछ लोगों के प्राण चीजों में बस जाते हैं, सैकड़ों उदाहरण दिये हैं गुरुदेव जी ने। जिनसे उन्होंने समझाने का प्रयास किया है कि विरक्तियों से, चीजों से, संसार से मोह मत रखो, मोह बहुत रुलाता है। भ्रम मत पालो कि संसार वाले तुम्हारे अपने हैं, सब स्वार्थ के रिश्ते हैं। जिनको तू समझे अपना, वह तो है झूठा सपना। तू झूठ से बंधा है, यह झूठ है रुलाये, प्रभु नाम तू सिमर ले, कहीं दम निकल न जाये।
भागवत पुराण में संदेश है कि अपनी कमाई का छटा भाग विपन्न लोगों के लिए दान करो। गुरुदेव कहते हैं दसवां भाग ही पुण्य परोपकारी कार्यों के लिए दान करो। दसवां भी नहीं दे सकते तो दो प्रतिशत तो दे ही। सत्य में गुरुदेव जी ने समाज के कमजोर वर्गों के लिए अनेक सेवाप्रकल्प प्रारम्भ किये हैं। उनके पीछे दो भावनाएं हैं। एक तो अपने शिष्यों को धार्मिक कार्यों के साथ जोड़ना। उनके लिए सहयोग करना और दूसरा उनका धन भी धन्य हो जाये। वे पुण्य के भागीदार बनें। इसलिए मैं तो यह मानता हूँ गुरुदेव जी ने इन सभी सेवा प्रकल्पों को प्रारम्भ करके हम पर उपकार किया है कि हम भी गरीब लोगों के मददगार बनें। धार्मिक अनुष्ठानों में सहयोग करके अपने जीवन को धन्य करें। इन सेवाकार्यों में सहभागिता से ही ईश्वर प्राप्ति होती है। मानव जीवन को अर्थ मिलता है। ऐसे पुण्य कार्यों में सहयोग करने से ईश्वरीय आनन्द की अनुभूति होती है। हमें तो गुरुदेव जी का कृतज्ञ होना चाहिये और सेवाकार्यों में बढ़ चढ़कर सहयोग करें।
दिल और घर के दरवाजे खोलकर,
सारी उमर खुहाघरों पूरी करते रहे सायरन भरकर,
सुख संतोष फिर भी न मिला,
दुनिया भर की सुविधाएं जोड़कर,
सद्गुरु ने दिया उपदेश कहां भटकते हो,
मन लगाओ प्रभु चरणों में,
मानव जीवन की यही असली सम्पत्ति है,
मोड़ लिया मन को, अब आनन्द ही आनन्द है।।
मानवजीवन का उद्देश्य दुनिया के पत्थर बटोरना नहीं, गुरुदेव फरमाते हैं, ‘‘मानव संसार का सुख भोगे, मोह-आसक्ति न हो ओर उसकी दृष्टि, उसका मन तो इसी उद्देश्य से जुड़ा रहे कि उसकी आखिरी मंजिल आत्मा का परमात्मा से मिलन है। गीता में योगीराज श्रीकृष्ण ने भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग जैसे रास्ते बताये हैं। गुरुदेव जी ने ईश्वर के पावन नाम का सिमरन और मानव सेवा को श्रेष्ठ मार्ग कहा है।