इन दिनों विश्व भर में मिल रहे हमारे देवी-देवताओं के प्रतीकों से स्पष्ट है विश्व में सनातन परम्परा काफी मजबूत थी। विविध अवसरों में शिवलिंग का मिलना एवं शिवलिंगों के पूजन की विविध परम्परायें भी सिद्ध करती हैं कि हमारी सनातन संस्कृति अत्यंत समृद्ध है। शिवलिग में उसका वैश्विक विस्तार देखने को मिलता है।
विशेषज्ञ कहते हैं मनुष्य अपनी मौलिकता को इन शिव सिम्बलों के साथ जोड़ सके, ऋषियों द्वारा स्थापित परम्पराओं को जीवनशैली एवं लोक व्यवहार का अंग बना सके, तो निश्चित ही एक दिन सम्पूर्ण विश्व भारतीय हिमालयी, दैवी नवचेतना से ओत-प्रोत होगा और विश्व भर में फैले शिव सिम्बल पुनः जग उठेंगे। तब भारत के विश्व गुरु के रूप में प्रतिष्ठित होने में मदद मिलेगी। यही नहीं मुस्लिम देश तक में भी इनकी प्रतिष्ठा प्रेरित करती है कि भारत की परम्परा कितनी शाश्वत थी।
अध्ययन से प्राप्त हुआ है कि ईरान के प्राचीन धर्म शास्त्रों में विविध हिन्दू-देवी-देवताओं का उल्लेख है, उनमें वैवस्वत को विवन्वत, यम को यिम, वरुण को अहुर, मित्र को मिथ्र कहते हैं। वहाँ कभी चन्द्र, सूर्य, वायु, जल, इन्द्र, यम, अग्नि आदि सभी वैदिक देवताओं की व्यापक रूप से उपासना होती रही है। फारसी लोग आज भी अग्नि के रूप में सूर्योपासक ही हैं।
यही नहीं ईरान के निवासी अपने को आर्य कहते हैं। ईराक के लोग सूर्य की उपासना के साथ ही पार्वती के रूप में शक्ति की तथा ‘बेल’ के रूप में शिव की उपासना भी करते थे। तुर्की के प्राचीन निवासी ऋगवेदीय देवताओं-वरुण, इन्द्र, आदित्य आदि के उपासक थे। सूडान के एक प्राचीन सिक्के पर सिंहारूढ़ भवानी तथा वृषभारूढ़ शंकर के चित्र मिले ही हैं। वहां के ‘वअजअल्कि’ में शिव, कार्तिकेय और गणेश के प्राचीन चित्र तथा शंकर की अनेकों मूर्तियाँ प्राप्त हुईं जो भारतीयता के विस्तार के संकेत है।
शोध से प्राप्त हुआ कि अरब देश के प्राचीन निवासी शैव हो सकते हैं और इस्लाम का उदय होने के पूर्व तक लात, मनात, अल्लात आदि नामों से लिंग रूप में वे शिव की उपासना करते रहे। शिव के साथ ही वे सूर्य, अग्नि, नृसिंह, गरुड़, अश्वनी कुमार तथा नवग्रह के भी उपासक थे। सूर्य को वह ‘आद’ अथवा ‘आदम’ कहते थे। अरब का प्रमुख नगर अदन ‘आद’ के नाम पर ही बसाया गया। मक्का में कभी शिव का एक प्रमुख देवालय था, जिसकी प्रधान मूर्ति आज भी एक स्वर्ण-जलहरी में स्थित है। हज को जाने वाले मुसलमान उसकी आज भी सात परिक्रमा करते हैं। वहां के ‘जमजम कुँए’ में भी शिवलिंग है, जिसकी पूजा खजूर पत्रें से की जाती है, वहाँ के एक प्रदेश का नाम अभी तक ‘उमा’ है, जो वहां के पुरातन निवासियों के शिवोपासक होने का प्रमाण है।
अफगानिस्तान के काबुल से चित्रल तक पाँच हजार वर्ग मील के भूभागों के निवासी आज भी अपने देश को कलास (कैलास) कहते हैं और ‘गीस’ नाम से गिरीश शंकर की ही उपासना करते हैं। ‘पंचवीर’ नाम से अफरीदिस्तान, चित्रल, काबुल, बलूख-बुखारा आदि में अप्रत्यक्ष रूप से शिवलिंग की ही पूजा होती रही। यह सब स्पष्ट करता है कि शिव तत्व का मूल स्त्रोत कैलाश भले हो, लेकिन विस्तार सम्पूर्ण विश्व में है। यही हम सबके लिए गौरव का विषय है। लगता है शिव के पीछे छिपे मूल तत्व विज्ञान को आत्मसात करने के लिए ही भारत व विश्व शिवरात्रि मनाता है।