संसार में कितने ही लोग ऐसे होते हैं, जो अच्छे से अच्छे संत, सद्गुरु, सत्पुरुष के सानिध्य में आकर भी अपनी दोष देखने की वृत्ति छोड़ नहीं पाते। यही नहीं श्रेष्ठ से श्रेष्ठ स्थान पर जाकर भी अच्छाई ग्रहण नहीं कर पाते। उनकी दृष्टि कहाँ-कहाँ क्या-क्या कमियां हैं? इसी पर रहेती है। ऐसे लोग कभी भी कोई सांसारिक प्रगति भी नहीं कर पाते। यही नहीं सद्पुरुषों-श्रेष्ठ स्थानों की निन्दा से उन्हें दोहरी मार झेलनी पड़ती है। एक तरफ चित्त जड़ता का शिकार बनता है, दूसरी ओर उन्हें पातक दोष लगता है। इसीलिए भक्ति मार्क में आध्यात्मिक प्रगति के लिए निन्दा दोष से मुक्त स्वभाव पर जोर दिया गया है। वैसे भी इसके बावजूद भगवान की भक्ति मार्ग में अनेक व्यवधान आ खड़े होते हैं और साधक का मार्ग रोकने का कार्य करते हैं। कुछ सामान्य तो कुछ विशेष अवरोध सामने आते हैं, उन्हें शास्त्रें में दोष माना गया है। विद्वानों ने भक्ति मार्ग में दोष के अनेक काँटे बताये हैं, जिन्हें निकाल फेंक देने पर ही भक्ति का मार्ग सुगम बनता है। शांति, संतोष, आनन्द, प्रभुकृपा मिलती है। इन कांटों को ही भक्ति अपराध भी कहते हैं। यदि साधक अपने जीवन से इन अपराधों को त्याग सके, तो कोटि यज्ञों का लाभ प्राप्त हो सकता है।
नाम अपराधः
यहां नाम-अपराध से मतलब है नाम जपते, नाम सुमिरन के समय जाने-अनजाने अंतःकरण उठने वाले विकार अपराध हैं। इसीप्रकार नाम जप में ईश्वर व गुरु समर्पण न होने को भी दोष माना गया है। इसीप्रकार भक्ति और जीवन व्यवहार दोनों में भी तालमेल होना चाहिए। जैसे गाना गाने वाले और साज बजाने वाले दोनों का ताल मिला हुआ हो, तो संगीत का आनन्द जरूर मिलेगा। वादक व वादन में ताल-मेल से जो रस उत्पन्न होगा, आनन्द उसी से मिलेगा, तभी मन झूमेगा भी। इसीलिए जीवन व्यवहार और भक्ति में खास तरह का ताल-मेल जरूर होना चाहिए। जिससे भक्ति में मन लग सके।
सद्निन्दाः
सत् निन्दा अर्थात् सत्पुरुष व सत्य सिद्धान्त की निन्दा करने की वृत्ति। यदि भक्ति में बैठने वाले में किसी की निन्दा करने और दूसरों के दोष निकालने में तत्परता का भाव जगा, तो भक्ति कभी फलित नहीं होगी।
यह मनोविज्ञान है कि व्यक्ति किसी स्वार्थ या भ्रम में आकर ही सत्पुरुषों की आलोचना, समालोचना, दोषवृत्ति और निन्दा करता है। ऐसी निन्दा का कोई श्रेष्ठ आधार नहीं होता, अपितु यह उसका स्वभाव बनता जाता है। ऐसे स्वभाव में कभी भक्ति फलती नहीं। कहते भी हैं कि निन्दक व्यक्ति कहीं चला जाये, वह कभी गुणग्राहक नहीं बन सकता, क्योंकि उसकी दृष्टि दोष देखने में ही लगी होती है। उसकी निगाह निरन्तर कूड़े पर, गन्दगी पर, दूसरों के दोषों पर लगी रहेगी, भले उसे प्राप्त स्थान कितना श्रेष्ठ क्यों न हो। कहते भी हैं कि महापुरुषों के साथ तीर्थ में, आश्रम में किया गया निन्दा अपराध परिणाम से बहुत ज्यादा दुःखदायी होता है। क्योंकि हर व्यक्ति अपने पाप-ताप से मुक्ति पाने के लिए तीर्थ-आश्रम, संत, गुरु का सहारा लेता है, लेकिन जब कोई व्यक्ति इन्हीं के सान्निध्य में रहकर निन्दा आदि पाप करेगा, तो फिर व्यक्ति का आत्मशोधन कैसे सम्भव है? परमात्मा के साथ जुड़े सन्मार्ग को तीर्थ, आश्रम, गुरु, सद्पुरुष ही तो प्रकाशित करते हैं। इसलिए ऐसे सत्य का हितैषी, धर्म का पालक, शास्त्र के वचनों को संसार के सामने प्रस्तुत करने वाले, दिव्य सरल और सहज व्यक्तित्व के साथ किया गया उपराध अनेक जन्मों के लिए क्रूर प्रारब्ध का निर्माण करता है। कहीं साक्षात् सद्गुरु के प्रति निन्दा के भाव जाग्रत हो जाय, तब तो यह बहुत ही बड़ा अपराध बनता है।
माता-पिता प्रथम पूजनीय माने गये हैं, अतः इनकी निन्दा भी अपार कीर्तिवाले सद्गुरु की निन्दा जैसा है। इन सबकी निन्दा करने वाले के पुण्य नष्ट होने शुरू हो जाते हैं, फिर भक्ति नहीें फलती। यही सब सत् निन्दा है, जो भक्त का बहुत बड़ा दोष माना गया है।
असतो नाम वैभव कथा:
इसीप्रकार असत् प्रवृत्ति वाले इंसान के वैभव का महिमागान करना भी अपराध है। कभी-कभी समाज में कुछ लोग रातो-रात अमीर बन जाते हैं, उन्हें व उनके कारोबार को देखकर अक्सर लोग उनकी तारीफ में लग जाते हैं। यह तारीफ भी पाप ही है। अनीति से सफलता प्राप्त व्यक्ति की महिमा गान व वैभव कथा परमात्मा की दृष्टि में अपराध है। क्योंकि इससे देवमार्ग पर ईमानदारी से चलने वाले व्यक्तियों का मनोबल गिरता हैं, अतः देवभाव कमजोर करने वालों पर परमात्मा का कोप फूटना स्वाभाविक है। हजार कष्ट सहने के बाद भी उसकी तारीफ कभी नहीं करना च शहिए, जिसने सन्मार्ग छोड़कर वैभव जोड़ा है। इस देश में देशभक्तों के समान लालच की अनेक स्थितियाँ आयीं, लेकिन उन्होंने सत्य का मार्ग नहीं छोड़ा। अर्थात् जो गलत तरीके से आगे बढ़ गए हैं, उनका महिमागान करने से भी भक्ति फलित नहीं होती।
श्रीशेषयोः भेदधी: उन लोगों की भक्ति भी नहीं फलती जो देवताओं में भेद करते हैं। विष्णु और महादेव, नारायण और शंकर आदि नामों पर भेदबुद्धि रखते हैं। वास्तव में परमेश्वर एक है, उसके नाम अनेक हैं। परमात्मा के जिस भी स्वरूप के प्रति श्रद्धा जागृत हो जाए, श्रद्धा से उसी में परमात्मा के सभी स्वरूपों का अनुभव करते हुए जीवन का आनन्द लेने का ट्टषि विधान है। श्रद्धा नारायण में है और शिवजी को पूज रहे हैं, तब भी अनुभव करें कि यह भी मेरे नारायण का एक रूप है। अर्थात् एक तत्व के ही अनेक रूप हैं। जैसे सोने के आभूषण की शक्ल भिन्न-भिन्न होती है, लेकिन सोना सबमें होता है। वैसे परमात्मा एक है, उनकी धारायें अनेक हो सकती हैं।
हमारे सामने उदाहरण भी हैं जैसे लंका पर चढ़ाई करते समय भगवान श्रीराम ने समुद्र तट पर शिवलिंग की स्थापना की और उस ज्योतिर्लिंग का नाम दिया रामेश्वरम्। रामेश्वरम् का अभिप्राय हैµरामस्य ईश्वरो सः। जो राम का ईश्वर है और ‘रामः ईश्वरो यस्य’ राम जिसका ईश्वर है। अर्थात् दोनों एक-दूसरे को महत्व दे रहे हैं। दोनों रामेश्वरम् द्वारा दुनिया को एक बात बताना चाहते हैं कि ‘‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति’’, अर्थात् तत्त्व एक है, नामरूप भिन्न हो सकते हैं। भक्ति उसी की फलित होगी जो इस नाम से जड़कर साधना करेगा।
अश्रद्धा गुरोर्वचने:
गुरु के वचन में श्रद्धा का न होना भी भक्ति को दोष पूर्ण बनाता है। श्रद्धा ही है जिसके कारण किसी सद्गुरु के सान्निध्य में बैठते, सत्संग सुनते या दीक्षा लेते हैं तो अनेक चमत्कार घटते हैं। तब लगता है कि भक्ति में बहुत आगे बढ़ रहे हैं। वास्तव में उस समय भक्त को गुरुकृपा और श्रद्धा की ऊर्जा दोनों मिलकर आगे बढ़ा रही होती है। पर समय के साथ श्रद्धा की अग्नि पर राख आने के परिणाम स्वरूप गुरु की ओर से कृपा तो पूरी-पूरी रहती है, लेकिन भक्त में श्रद्धा की अग्नि बुझने से उसके जीवन में चमत्कारों की कमी शुरू हो जाती है। ऐसे में भक्त को अपनी समीक्षा करनी चाहिए। जबकि सामान्यतः भक्त गुरु पर अश्रद्धा, अविश्वास करने लगते हैं, जो भक्ति के लिए घातक साबित होता है। सच कहें तो हर क्षण गुरु समक्ष समर्थ एवं पूर्णता से भा रहता है, उसका आशीर्वाद भी पूर्व जैसा ही समक्ष है, पर गुरु के ऊपर जो गहरी श्रद्धा थी, उसमें कमी आ गयी। अतः ध्यान दें श्रद्धा है तभी सुपरिणाम मिलेंगे। अगर श्रद्धा में कमी है, तो सम्भव भी असम्भव होने लगता है।
श्रद्धा ही शिष्य की पात्रता है, अश्रद्धा अर्थात् पात्र को उलट देना कहा जायेगा। दूसरे शब्दों में श्रद्धा का मतलब है पात्र को सीधा कर लेना, विनम्रता, सरलता, उदारता से झोली फैलाकर बैठ जाना। गुरु द्वारा कहे शब्दों-निर्देशों को कल्याणी, सौभाग्यशाली मानना। भाग्यशाली अनुभव करना कि गुरु वरण करने में मुझे अपने पूर्वजों का तप, जप और उनका पुण्य काम आ रहा है। गुरु हमें परमात्मा की राह पर चला रहा है, जिसे सौभाग्य मानकर अपना कल्याण करूँ और अपने पितरों को भी तारूँ, अपने परिवार का अपने कुल का नाम ऊँचाई पर ले जाऊँ। गुरु के वचनों, आदेशों, आशीर्वादों के प्रति यह श्रद्धा ही भक्त की भक्ति को शिखर तक पहुंचाती है।
शास्त्र वचने अश्रद्धा:
इसीप्रकार यदि साधक में शास्त्र के वचनों में श्रद्धा है तो ही प्रगति होगी। शास्त्र अर्थात् सार्वभौम सत्य वाक्य। तर्क और यथार्थ की कसौटी पर कसे हुए पवित्र ग्रन्थों के सिद्धान्तों एवं तथ्य के प्रति श्रद्धा रखना, शास्त्र के प्रति श्रद्धा रखना है। इसीलिए जो वेद, उपनिषद आदि के शास्त्र वचन के प्रति श्रद्धा रखकर आगे बढ़ता है, उसी की भक्ति कल्याणकारी होती है।
अश्रद्धा वेदवचने:
वेद-वेचनों में अश्रद्धा का होना भक्ति के लिए बहुत बड़ी बाधा और भक्त का बड़ा अपराध है। जो भी इस धारा पर शाश्वत सत्यज्ञान है, उसे वेद कहा गया है। वेद परमात्मा के मुख से निकले शाश्वत सत्य हैं। जिसके मंत्रें-सूत्रें में तत्वज्ञान भरा पड़ा है। जीवन के हर समाधान निहित हैं जो सदैव लाभ देते हैं, आत्मा को ऊँचा उठाता है। अतः उसके प्रति विश्वास-श्रद्धा रखना ही भक्ति में सहायक सिद्ध होता है।
नाम्नोऽर्थवाद भ्रम:
ईश्वर के अनेक नाम हैं, सभी लाभकारी हैं। इसके विपरीत सोचना गलत है कि यह नाम ज्यादा लाभकारी है और वह लाभकारी नहीं है। ऐसा सोचना भक्ति में अपराध माना जाता है। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं ईश्वर का प्रत्येक ‘नाम’ एक समान फल देने वाले बीज हैं, जो समय पर फल देते ही हैं। ‘जपः सिद्धिः जपः सिद्धिः’’ यही इसका सूत्र है। अतः यदि भक्त ने कोई भी नाम जपा है, तो वह कल्याण जरूर करेगा। परन्तु नाम-जप में श्रद्धा होनी चाहिए। क्योंकि सभी नाम एक ही परमात्मा की ओर ले जाते हैं।
निषिद्ध वृत्ति:
नाम जप व भक्ति में नाम, मंत्र, इष्ट, देवता के प्रति यह मन के अंदर शंका जगा लेना कि लाभ होगा भी या नहीं, फायदा होगा भी या नहीं। यह हमारी भक्ति को कमजोर करता है। शंका व्यक्ति के विनाश को जन्म देती है, भक्ति क्षेत्र का यह बहुत बड़ा अपराध है। वास्तव में नाम जप और अंतःकरण का व्यवहार इन दोनों का ताल-मेल बनाये रखें तो परमात्मा प्रसन्न होगा। इसके लिए व्यवहार की शुद्धी, हृदय की पवित्रता का होना भी आवश्यक है।
मीरा की भक्ति जग जाहिर है श्रद्धा-विश्वास की गहनता थी कि सारी दुनिया ने मिलकर उसकी श्रद्धा को हिलाने की कोशिश की, लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ा। उसे लालच दिया गया, डराया गया, लेकिन वह कठिनाइयों को लाँघते हुए आगे बढ़ती चली गयी। उसकी श्रद्धा और परमात्मा के नाम से प्रीति कृष्ण को हृदय में बसाती चली गयी और परमात्मा का साक्षात्कार हुआ, प्राप्ति हुई। कर्त्तव्यविहीन जपः अपने जीवन कर्त्तव्य छोड़कर नाम जप में लगे रहने से भी भक्ति निष्फलित होती है। यह भी अपराध है। जीवन कर्त्तव्य छोड़कर नाम जपने वालों को पुण्य की प्राप्ति कभी नहीं होती, ऐसा महापुरुषों का कथन है। अतः व्यक्ति को अपने जीवन से जुड़े प्रत्येक दायित्वों को भक्तिभाव से परमात्मा की सेवा मानकर पूरा करना ही भक्त का कर्तव्य है, तभी भक्ति भी फलित होती है।
धर्मसाम्यम्:
कहते हैं कथनी-करनी भिन्न जहां है, धर्म नहीं पाखण्ड वहां है। अर्थात् अक्सर व्यक्ति धर्म-जैसे कर्म करते दिखाई देते है, लेकिन हृदय में धर्म भाव नहीं रहता, उनका आचरण धर्म से विपरीत दिखता है। अर्थात् धर्मयुक्त आवरण दिखता है। लेकिन जीवन अधार्मिक होने पर भी भक्ति नहीं फलती। जैसे पशु बलि आदि अधर्म हैं। जो मनुष्य इनको अपनाते हैं, वे भगवान के नाम पर अपराध कर रहे हैं। इन्हें कभी भक्ति व सुख, शांति, समृद्धि नहीं मिलती। जीवन भर बेचैन रहते हैं ऐसे लोग। अतः कह सकते हैं भक्ति जब निर्दोष-निर्मल होगी तभी प्रभु के मार्ग में तीव्रता सम्भव होगी, तब प्रभु के नाम जप-सिमरन से शक्ति जागृत होगी। तब मन, बुद्धि, और आत्माµतीनों शुद्ध होंगे, जीवन में सुख, शांति, संतोष बढ़ेगा। सुख-समृद्धि के मार्ग खुलेंगे। आइये! हम सभी भक्त अपनी भक्ति को अंदर से जगाने एवं भक्ति की शक्ति का लाभ पाने हेतु इन भक्ति सम्बन्धी विसंगतियों से दूर हटने का प्रयास करें। तभी भक्ति से साधना मार्ग में सफलता मिल सकेगी।
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मैं परमपूज्य श्री सुधांशु जी महराज के प्रवचन में गहरी आस्था एवं विशेष रुचि है अतः नीचे दिये गये email के पते पर सम्बन्धित सामग्री भेजने की कृपा करें l सादर निवेदन के साथ सादर प्रणाम