भारतीय संस्कृति को यदि हम एक विशाल आध्यात्मिक जागरण के वटवृक्ष रूप में देखें, तो इसके अनन्त सम्प्रदायों की चिंतनधारा में एक बात जो सर्वत्र समान रूप से परिलक्षित होती है, वह है गुरु की प्रधानता। गुरु अर्थात शिष्य के आमूलचूल रूपांतरण का स्त्रोत्र आधार सदियों से गुरु की महान प्रतिष्ठा केवल कान में मंत्र सुन लेने भर से नहीं है, अपितु जब किसी शिष्य को सही गुरु और गुरु को सही शिष्य मिलता है, तो कुछ ऐसा घटित होता है कि जिससे संस्कृतियों, परम्पराओं, मान्यताओं, जीवन पद्धतियों में बदलाव आता है। इस शिष्यत्व को विकसित व फलित करने की भी एक अंतः पुरुषार्थसाध्य चेतनात्मक परम्परा है, जो एक छोटी सी लेकिन प्रभावशाली प्रक्रिया से शुरू होती है, जिसे गुरु मंत्र कहते हैं।
वास्तव में गुरु द्वारा शिष्य को गुरुदीक्षा के समय दिया गुरुमंत्र ही शिष्य के लिए नई पहचान और उड़ान का आधार बनता है। गुरुमंत्र गुरु द्वारा शिष्यों को दिया गया एक प्रकार का ब्रह्मकवच है, जिससे गुरु अपने शिष्य को खुद का खुद से परिचय कराता है, इस नामकरण की युगों-युगों से चली आ रही परम्परा के द्वारा शिष्य के जीवन में आमूलचूल रूपांतरण और नये व्यक्तित्व का निर्माण सम्भव बनता है।
शिष्य जैसे जैसे गुरु मंत्र जप के सहारे जीवन की गहराई में उतरता है। वैसे वैसे उसके कषाय, कल्मष, दुर्गुण, दुर्व्यसन, जलन, कुढ़न, द्वेष, हताशा-निराशा आदि सभी प्रकार के विभ्रम-जड़तायें गायब होती जाती हैं। शिष्य के मूलाधार से लेकर सहड्डधार तक तथा उसके अंतःकरण और व्यक्तित्व के सूक्ष्मतम तल में छिपी आध्यात्मिक शक्तियां उभरने लगती हैं। धीरे – धीरे आत्मज्योति जल उठती है और उसे सब में अपना ही स्वरूप नजर आता है, सब अपने अनुभव होते हैं।
दुरावमुक्त इस अवस्था पर पहुंचकर शिष्य को अपने गुरु की विराटतम गहराई का आभास होता है। तब जाकर अपने गुरु के प्रति शिष्य की श्रद्धा चरम की ओर प्रयाण करती है और शिष्य में इन क्षणों इस बात का पछतावा जन्म लेता है कि हम अपने जिस गुरु को मात्र हाड़मांस का पुतला समझ रहे थे, उसकी महिमा की तो थाह ही नहीं। इस प्रकार एक समय बाद गुरु समर्पित साधनारत शिष्य को अपने गुरु में साक्षात नारायण के दर्शन होने लगते हैं। इसी को शिष्य के शिष्यत्व और गुरु के गुरुत्व की चरम सफलता कहते हैं।
तब शिष्य को अपने गुरु के मुख से निकले सामान्य से सामान्य शब्द भी साक्षात ब्रह्ममय अनुभव होने लगते हैं। करिष्ये बचनं तव का संकल्प शिष्य के अंतःकरण में इससे पहले जग ही नहीं सकता और जब जब किसी शिष्य के अंतःकरण से अपने गुरु के प्रति यह संकल्प उठा है, तो इस धरा का कायकल्प व पूर्ण रूपांतरण ही हुआ है। संस्कृतियों ने करवट ली है। शिष्य के जीवन में ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण प्रकृति और संस्कृतियां आमूलचूल बदलने को मजबूर हुई हैं। जो धरा पर नये सूरज के उदय जैसा है।
इस भारत भूमि पर असंख्यों शिष्यों ने इसी तरह अपनी गुरुदीक्षा को ऊंचाइयां दी हैं। भगवान श्रीराम ने विश्वामित्र से दीक्षा ली, श्रीकृष्ण ने संदीपन से, वीर हनुमान, अर्जुन, कबीर, रामानुजाचार्य, शंकराचार्य, माधवाचार्य, निम्बार्काचार्य, गोस्वामी तुलसीदास, स्वामी दयानन्द सरस्वती, वीर शिवाजी, स्वामी विवेकानन्द, लहड़ी महाशय, श्रीरामशर्मा आचार्य से लेकर असंख्य महान शिष्यों के उदाहरण इस भारत भूमि पर भरे पडे़ हैं। इसीलिए हमारी संस्कृति में गुरु का स्थान सर्वोपरि है। इस नव निर्माण और रूपांतरण को गुरु गीता में स्वयं भगवान् शिव कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं-
गुकारश्चान्धकारः स्याद्रुकारस्तेज उच्यते। अज्ञाननाशकं ब्रह्म गुरुदेव न संशयः।।
गुकारो प्रथमो वर्णो मायादिगुणभासकः। रुकारो द्वितीयो वर्णो मायाभ्रान्ति विमोचकः।।
इसीलिए सद्गुरुओं, सच्चे संतों का आदर सम्मान, गुरु की पूजा करना किसी व्यक्ति का आदर नहीं, बल्कि वह साक्षात् सच्चिदानन्द परमेश्वर का आदर माना जाता है। अतः आत्मज्योति को जागृत कर परमात्मा का प्रकाश पाने के लिए सद्गुरु और उनके द्वारा प्राप्त गुरुमंत्र का आदर हर युग में होता रहेगा। अतः हर शिष्य को जीवन के एक-एक पल का सदुपयोग करते हुए आनन्द, भक्ति, शांति के साथ गुरु संगत में रहने का हर सम्भव अवसर तलाशते रहना चाहिए। फिर वह पल गुरुपूर्णिमा से जुड़ा हो तो बात ही अद्भुत है। गुरु पर्व के दिन लिया गया छोटा सा संकल्प भी जीवन में बड़े सौभाग्य का मार्ग प्रशस्त करता है। गुरुदीक्षा गुरु का शिष्य पर विशेष अनुग्रह ही तो है।
गुरुदीक्षा का समय वह विशेष क्षण होता है, जब गुरु अपने तप, पुण्य एवं प्राण के अंश को अपने मंत्रदीक्षा की विशेष विधि व अपने स्पर्श-आशीर्वचन से शिष्य में आरोपित करता है। गुरुदीक्षा के बाद उस दीक्षा विधान के पूर्ण जागरण के लिए प्रत्येक समर्थ गुरु अपने शिष्यों को समय-समय पर साधना विधान देते हैं। शिष्यों को ये साधनायें दिखती तो सामान्य हैं, पर ये गुरु की बुद्धि से नहीं, अपितु उसके पीछे कार्य कर रही सूक्ष्म सत्ता द्वारा प्रेरित होती हैं। यही कारण है कि उस सत्ता के निर्देशन में गुरु भी एक कठपुतली बनकर शिष्य को निर्देशित मात्र करता है, क्योंकि उसकी मूलडोर पीछे काम कर रही गुरु परम्परा की सूक्ष्म सत्ताओं के हाथ होती है।
जिन शिष्यों की श्रद्धा गहरी होती है अथवा अपने गुरु मंत्र को दृढ़ आस्था के साथ जगाने में कुछ सफल हुए हैं, उन्हें गुरु निर्देशित साधना काल में ये सूक्ष्म गूढ़ रहस्य विधान स्पष्ट अनुभव होते हैं और यह भी अनुभव होता है कि उस क्षण सामने बैठा गुरु अपनी दैहिक सीमा पार करके किसी सूक्ष्म लोक से निर्देशन दे रहा है। यह अनुभव किसी को भी हो सकता है, बशर्ते वह साधक शिष्य अपनी बौद्धिक वृत्ति से भावचेतना में उतर चुका हो। गुरु व गुरुमंत्र के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा हो अन्यथा भाग्यहीनता ही हाथ लगती है।
24 जुलाई, 2021 को गुरु पूर्णिमा है। इस दिन अपने गुरु के आध्यात्मिक चुम्बकत्व क्षेत्र में रहकर शिष्य अपनी आत्मिक उन्नति करे, इसके लिए गुरुदेव ने भी ऑनलाइन साधना का दिव्य अवसर दिया है।
20 से 22 जुलाई, 2021 तीन दिन का ‘‘अमृत मंत्र योग साधना’’ और 23 जुलाई, 2021 को ‘‘दिव्य शत्तिफ़पात क्रिया’’ का यह विशेष साधना प्रयोग दीक्षित शिष्य के जीवन को ऊंचा उठाने, मन को संकल्प-विकल्प से मुक्त करने में निश्चित ही सहायक होगा।
‘‘प्राणतोष्णी तंत्र’’ में भगवान शिव जीव के बंधन का कारण मन का संकल्प-विकल्प बताते हुए कहते हैं कि विकल्प रूप भ्रांति के उदय से बंधन और चित्त लय होने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसीलिए गुरु का धर्म बनता है कि वे अपने शिष्य के चित्त को लय (समाधि) अवस्था में पहुंचने के विविध अवसर दें। सच्चे सद्गुरुरूप में गुरुदेव साधना-सेवा से अनवरत अपने शिष्यों को जोड़े रखकर यही तो कर रहे हैं। अतः आप सभी गुरु निर्देशन का पालन करें और अपने तथा परिवारजनों के सुख-सौभाग्य, आत्म उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हुए शिष्यत्व को सफल बनायें।
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Guru Poornima is not just an annual festival but a rare chance to get closer to your Guru, your Mentor and to divine powers. This is an opportunity to express gratitude to Guru for all our success and growth. Om Guruve Namah