सामान्यतः व्यक्ति भयभीत रहता है कि अमुक मंत्र व कर्मकांड को अपनाते समय यदि कोई त्रुटि रह गयी, तो कहीं उसका फल विपरीत न मिल जाय। मंत्र पढ़ने में गलती तो विपरीत फल, किसी याज्ञिक प्रक्रिया की विधि में दोष हो गया, तो लाभ मिलने पर शंका आदि अनेक धार्मिक-सामाजिक विसंगतियों को हतोत्साहित करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने समाज को कर्मयोग का जीवंत प्रयोग दिया, जिसको सकारात्मक चेतना के साथ करने से न तो उसका कोई उल्टा फल मिले, न ही किये गये कर्म का कभी नाश हो। भगवान श्रीकृष्ण का कर्मयोग इसीलिए कालजयी है।
श्रीकृष्ण कहते हैं आत्म अनुशासित मन वाला मनुष्य जब अपनी इंद्रियों को वश में करते हुए विषयगत लगाव और विरक्ति से अलग होकर आवश्यक विषयों में विचरण करता है, धार्मिक-याज्ञिक व आत्मसाधना से जुड़े कार्य अथवा संसार को भोगता है, तो वह निष्काम ही कहलायेगा। यह सब उसके लिए परमात्मा का प्रसाद रूप हो जाता है और जीवन में प्रसन्नता प्राप्त करता है। विशेष यह है कि जब व्यक्ति मंत्र, जप, कर्मकाण्ड आदि की प्रयोग विधियां अपनाते हुए आत्मा-परमात्मा को पाने, जीवन के लोकमंगल उद्देश्य को पूरा करने का लक्ष्य सामने रखता है, तो न उसमें कायरता आती है, न ही वह अंधविश्वासी बन सकता है।
इसप्रकार श्री कृष्ण ने गीता के द्वारा हमारे मंत्र-कर्मकाण्डों को नई दृष्टि देकर नई ऊर्जा से भरा। उनका संदेश है कि संसार को देखो, भोगो, चखो, खाओ, पियो। संसार में जितने भी कार्य हैं सभी करना है, उनसे भागना नहीं है, लेकिन राग-द्वेष से विरक्त रहना आवश्यक है। विषयानिन्द्रियैश्चरन् संदेश देता है कि दुनिया के कार्य करें, परिवार को चलायें, संतानें भी होंगी, कमाई भी करें, व्यवहार सबसे रखें, पर आसक्ति नहीं। यह आसक्ति व विरक्ति ही अंदर पक्षपात पैदा करता है। श्रीकृष्ण कहते हैं इस प्रकार कर्म रूपी धर्म का थोड़ा सा भी आचरण बड़े से बड़े भय से मनुष्य की रक्षा करता है।
वे कहते हैं कि फ्स्वल्पं अस्य धर्मस्य त्रयते महतो भयात्महानय् अर्थात ऐसा कर्म जिसके करने से व्यक्ति को बडे़ से बडे़ भय से रक्षा प्रदान हो। एक प्रकार का धर्म है, इसे कर्म का धर्म कहते हैं। ऐसे में न इह प्रत्ययवायो अभि क्रम नासोस्ति अर्थात प्रारम्भ किये गये अभिक्रम का कोई उल्टा फल हो जाए ऐसा नहीं है। वास्तव में कर्मयोग भाव से किये कर्म का नाश नहीं होता। साथ ही ‘‘त्रयते महतो भयात्’’ अर्थात बड़े-बडे़ डर से ऐसा कर्म रक्षा करता है। ऐसे कर्मयोग, धर्म के प्रयोग विधि से बड़े-बड़े भय, डरों से मुक्ति मिल जाएगी। वास्तव में यह तत्कालीन दौर के जीवन से जुड़ा बहुत ही क्रांतिकारी कदम था। भगवान श्रीकृष्ण हमें श्रीमदभग्वदगीता के सहारे ऐसा मार्ग दिखाना चाहते हैं, जिससे जीवन की मंजिल, जीवनलक्ष्य सम्पूर्णता के साथ मिल सके।
गीता को दिव्य संबाद ग्रंथ भी कहते हैं। श्रीमदभगवदगीता अर्जुन की जिज्ञासा और भगवान श्री कृष्ण के उत्तर से उपजा जीवात्मा और परमात्मा का अद्भुत संवाद इसमें समाया है। ऐसा संवाद जो मनुष्य मात्र के हृदय में उठते प्रश्नों पर आधारित है और इन सबका समाधान परक उत्तर स्वयं भगवान श्री कृष्ण देते हैं। इसलिए यह पवित्र ज्ञान से भरा ग्रंथ है।
यह उस परिस्थिति में दिया गया संदेश व समाधान है, जब धर्म का लोप हो चुका था, लोग अपने कर्तव्य को भूल बैठे थे। मर्यादाओं का लोप हो चुका था, बडे़-बडे़ विद्वान जीवकोपार्जन के लिए राजाश्रयी हो रहे थे। उनमें अतुल्य बल था, लेकिन किसी असहाय की सहायता करने का साहस नहीं बचा था। अद्भुत ज्ञान था, लेकिन उनमें सत्य
को सत्य कहने की दृष्टि भोथरी हो चुकी थी। कुल बधुओं का अपमान अपनों के सामने होता रहना आम था, ऐसे अधर्म के युग में युग अवतार के अवतरण की आवश्यकता ही पड़ती है।
ऐसी लोक व्यवस्था के बीच जरूरत लोक एवं व्यक्तिगत जीवन दोनों स्तर पर विशुद्धता की थी। सम्पूर्ण विशुद्धता अर्थात् आत्मा की विशुद्धि, आदतें विशुद्ध हो, आचरण शुद्ध हो, व्यवहार-खानपान शुद्ध हो तभी व्यक्ति व युग स्वयं में नियत-संयत हो पाता है। तब व्यक्ति पूर्ण मर्यादित, पूर्ण नापतोल के साथ बोलने-चलने-खाने-नींद लेने आदि के अनुशासन पालन में आ पाता है।
आत्मा की विशुद्धता में व्यक्ति के सभी दुखों की निवृत्ति हो जाती है। जीवन सरल हो जाता है। जीवन की सरलता ही मानव जीवन का मूल लक्ष्य है, इसे निज स्वभाव में स्थित होना भी कह सकते है, निजस्वाभाव में स्थित होकर किये गये कर्मकाण्ड ईश्वर आराधना, लोकहित के प्रयेाग बन जाते हैं। इसप्रकार श्रीमदभगवदगीता को सम्पूर्णता में देखें तो यह प्रत्येक स्तर पर आचरण-व्यवहार को शुद्ध करने एवं जीवन को परिष्कृत करने वाला ग्रंथ है। इसी अवस्था में मानव शरीर व जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की हिम्मत जुटा पाता है।