मानव जन्म की अपनी मर्यादायें हैं, विवेकपूर्वक कर्म करने और कर्मफल पाने के सिद्धांत से परमात्मा ने हमें जोड़ रखा है। इसी में जीवन की शांति निहित है। थोड़ा भी अमर्यादित हुए, भटके तो शांति गायब, अहम व अतिवाद के लिए यहां कोई स्थान नहीं है। भगवान ने भोग योनि जिनके लिए बनाया है, उन्हें भोग भोगने के लिए मजबूर भी किया, इसीलिए भगवान ने उन्हें स्वतंत्र भी छोड़ा है। उनके लिए कोई मुद्रा, कोई करेंसी तो नहीं चलाई, लेकिन मनुष्य को कुछ खरीदना है, तो उसे खरीदने के लिए उसके पास पैसे अवश्य होने चाहिए।
मनुष्य मिठाई खरीदने के लिए हलवाई के पास जाकर भाव करता है, परंतु मधुमक्खी को भाव करने की जरूरत ही नहीं, क्योंकि भगवान ने उसे ऐसा लाइसेंस दिया है कि वह जब चाहे खा सकती है। किसी तोते को भी आज तक किसी माली से जाकर भाव-ताव करते नहीं देखा गया कि मुझे आम का भाव बताओ। बल्कि जो सबसे अच्छा आम होगा, वह उसी पर जाकर बैठेगा और खाएगा। भगवान ने उन्हें भोग की आजादी है, परन्तु मनुष्य को नहीं।
भोग तो मनुष्य को अन्य योनियों में भी मिल जाएगा। लेकिन शांति-आनंद व मुक्त होने का मौका सिर्फ इसी मनुष्य शरीर में है। यदि मनुष्य योनि में आकर भी अन्दर अहम रहा, मुक्त होने की कामना न रही, तो सिवाय पछताने के मनुष्य के पास कुछ नहीं रहेगा। इसीलिए मनुष्य का धर्म है कि उसे शरीर के अंदर विराजमान आत्मतत्व को जानने का प्रयास करते रहना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ‘मानव जीवन धर्मपूर्वक कर्म के लिए मिला है। अपनी शर्तों को पूरा करने के लिए नहीं।’ उपनिषद् कहता है-आत्मतत्त्व को देखो, इसे ही समझो। जब तक तुम्हें आत्मबोध नहीं होगा, तब तक तुमको परमात्मा का भी बोध नहीं होगा। इसलिए सबसे पहले तुम्हें अपने आपको समझने की चेष्टा करनी चाहिए।
श्रीमद्भगवद गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि मानव शरीर एक रथ के समान है, जिस पर आप बैठे हुए हैं। उपनिषदों ने कहा कि-आत्मा मालिक बनकर ही इस रथ पर बैठी है। इस रथ में इन्द्रियों के पांच घोड़े जुते हुए हैं, जो इसे खींच रहे हैं और लगाम को मन का स्वरूप समझिए, बुद्धि इस रथ की सारथी है। अर्थात बुद्धि नाम का सारथी, मन की लगाम के साथ, इंद्रियों के घोड़ों को जोड़े हुए शरीर के रथ को चला रहा है। जिसका मालिक पीछे बैठा हुआ आत्मा है।
यदि सारथी मालिक से न पूछे कि कहां जाना है और अपनी मर्जी से रथ को ले जाने लग जाए, तब उस समय बहुत जटिल स्थिति होगी। क्योंकि मालिक कहीं और जाना चाहता है, लेकिन सारथी रथ को मालिक की इच्छा के विपरीत दिशा में ले जा रहा है, तो खतरा होगा ही। फिर शांति छिनेगी। यही जीवन की विडम्बना है। दुर्योधन सहित सम्पूर्ण कौरव पक्ष अपने को कृष्ण के, न्याय के विपरीत दिशा में ले जाना चाहता है। अंततः दुःख व युद्ध के बादल मंडराते हैं और महाभारत होता है। वास्तव में न्यायपूर्वक उपयोग और पूर्ण भोग के बीच द्वन्द्व का युद्ध ही तो है महाभारत।
श्रीकृष्ण कहते हैं-तुम्हें यह शरीर उपयोग करने के लिए मिला है, इसे चलाओ, इसे भोगो, लेकिन अंततः। हमें एकमात्र उसी भगवान की शरण में जाने का प्रयास करना चाहिए, इसी में शांति है। अन्यथा सब कुछ खोकर जीत भी गये, तब भी संतोष-शांति छिन जाती है। इस भाव को गीता में सामिल पात्र द्रौपदी के द्वारा समझा जा सकता है।
ध्यान देने वाली बात है महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया और द्रौपदी ने अपना जूड़ा बांध लिया, राज्य भी मिल गया, समृद्धि आ गई, अब निष्कंटक राज्य था, कोई सताने वाला भी नहीं, फिर भी द्रौपदी का मन उदास। आखों में आंसू लिए बैठी द्रोपदी के पास कृष्ण पहुंचते हैं और कहते हैं बताओ साम्राज्ञी जो चाहा था, वह तो मिल गया? तुम्हारा बदला भी पूरा हुआ?
अब तुम्हारे शत्रुओं से हीन हो गई पृथ्वी, समृद्धि तुम्हारे द्वार पर आ गई और देश-विदेश, दिग-दिगंत में तुम्हारी पताकाएं लहरा रहीं है और अब क्या चाहिए? तब द्रोपदी कहती है कृष्ण ये सभी वैभव हैं, लेकिन शांति नहीं है, रोना नहीं समाप्त हो रहा, आंसू नहीं रुक रहे। मेरे बच्चे, मेरे रिश्तेदार जिनके कारण मेरे जीवन में खुशियाँ थीं, वह सब चले गए। आज जमीन है, भूमि है, भवन है, पर जो भावनाएं जिनके लिए तब थीं, वो अब नहीं रहीं। युद्ध ने न जाने क्या-क्या छीन लिया।
बदला तो पूरा हो गया, पर अब पश्चाताप रह गया। मन व्याकुल रहता है। अपनों की बात भी अब परायों सी लगती है। अच्छे शब्द भी चीतकार जैसे सुनाई दे रहें हैं। विधवाएं, अनाथ बच्चे, टूटे हुए घर अब रुला रहे हैं। वास्तव में यही है आंतरिक अशांति जो महाभारत विजय के बावजूद शांति नहीं दिला पाती। महाभारत में भारत के अनेक-अनेक तरह के वैज्ञानिक-कलाकार-शिल्पी लोग, उस समय दुग्ध क्रांति करने वाले लोग। जो तब हरित क्रांति कर रहे थे, वे जिन्होंने स्वर्णमय धातुओं के सहारे बड़ा विकास किया था, वे सब महाभारत युद्ध के बाद चले गए। सच कहें, जीवन में छोटी-छोटी बातों से बैर चलता, पनपता है और कितनी ऊंचाई पर जाकर अजब वीभत्स रूप लेता है, महाभारत हमें यही संदेश देता है।
वास्तव में ऐसे समर्थशाली व्यक्तित्व थे उन दिनों, जिनके द्वारा अद्भुत रचनात्मक क्रांति शुरू हो सकती थी, लेकिन क्या से क्या हो गया। सच कहें तो विकृत मन से उपजी क्रांति अपने बच्चों को भी आ जाती है। द्रौपदी मात्र निपूती मां बनी बैठी हुई रह गयी। उन बच्चों के सपने खो गए। अब बचा क्या? वास्तव में वैर वीभत्स रूप लेकर चला जाता है, पर आदमी के मन में पीड़ा बाद में होती है कि तुम्हें क्या हो गया था| अंतःकरण बाद में चीत्कारता है कि यह जमीन तो साथ गई नहीं, तुमने ऐसा क्यों किया? द्रौपदी भी वैसे ही बोलती जा रही और कृष्ण सुनते जा रहे थे।
आखिर में श्री कृष्ण ने द्रोपती से कहा-कृष्णा संघर्ष से संघर्ष ही मिलता। पहले बाहर का संघर्ष था, जो समाप्त हो गया। अब अंदर का शुरू हुआ है। इस संघर्ष से तुम्हारा मन व्यथित है। कृष्ण कहते हैं इन सब से मुक्त हो जाओ, अपने अंदर के युद्ध से मुक्त हो जाओ, अपने अंदर की स्मृतियों से मुक्त हो जाओ। जब तक स्मृतियों से मुक्त नहीं होंगे, तब तक शांति नहीं आएगी। पर लाख प्रयास के बाद पाण्डव लोग मुक्ति नहीं पाए, आखिर में हिमालय में आंतरिक शांति की तलाश करते-करते गले। हिमालय जहां शांति ही शांति है, जहां बर्फ ही बर्फ है। चलते गये स्वर्ग व शांति की आशा से लेकिन नहीं मिली आंतरिक शांति? श्रीमद्भगवद् गीता इसी शांति की तलाश तो करती है।