परमात्मा से आत्मा दूर नहीं है, परंतु मनुष्य सांसारिक उलझनों के चलते सत्यस्वरूप आत्मा से तादात्म्य नहीं रख पाता। वास्तव में यह मनुष्य देह ही है, जिसे पाकर आत्मतत्व बंधनमुक्त होकर परब्रह्म तक पहुंच सकता है। पर इसे मानवदेह मिलने के बाद संसारी वासनाओं की खुजली सताती है, जिसमें उलझकर व्यक्ति देह रूपी पिजड़ें से बाहर नहीं जा पाता। असंख्य भोग योनियों के रास्ते से मानव जीवन तक पहुंचकर पुनः भोग में लिप्त हो जाना घोर आश्चर्य है। तभी शास्त्र कहते हैं–
हे मनुष्य! अगर तू भोग भोगने की ही सोचता है, तो चौरासी लाख योनियां अपूर्व भोग भोगने के लिए हैं। मनुष्य जन्म में तो उस स्तर का भोग सम्भव भी नहीं है, फिर क्यों ललक रहा है? जबकि मनुष्य वैसे भी चाहकर अतिस्तर तक भोग नहीं कर सकता।
यह सच है कि मनुष्य शेर के समान मांस भक्षण कहां कर सकता है। शूकर के जैसा गंदगी में कहा बैठ सकता है। गुवरैला के समान विष्टा पर भी नहीं बैठ सकता। भौंरा-तितली के समान सुंदर रस भी नहीं चूस सकता, आदि-आदि। इसी प्रकार मनुष्य फल खाता है, तो चुनकर मनचाहा नहीं खा पाता, लेकिन तोता हमेशा चुनकर अच्छा फल ही खाता है। पशु-पक्षी स्वाद लेने के मामले में बहुत आगे हैं। मनुष्य हाथी सहित अन्य योनियों के समान रति कर्म भी नहीं कर सकता। मनुष्य को इसके अतिवाद पर लज्जा होगी, पर हाथी को नहीं।
भगवान ने जीवों को बड़ी क्षमता दी है, अनेक जीवों को उसने बनाया ही भोग योनि के लिए है। जैसे उन्हें भगवान ने भोग भोगने के लिए मजबूर कर दिया हो। भगवान ने जीवों को भोग की दृष्टि से पूर्ण स्वतंत्रता दी है। कोई बंधन नहीं, निर्बाध। मनुष्य को कुछ खरीदने के लिए पैसा चाहिए। कहीं प्रवेश के लिए अनुमति चाहिए। पर पशु-पक्षी के लिए कोई मुद्रा, कोई करंसी भी नहीं। वे कुछ खरीदते नहीं, अपितु वेखौफ वह सब पा लेते हैं, जिसके लिए वे निर्धारित हैं। जबकि मनुष्य को खरीदने के लिए पास में पैसे होने चाहिए ही।
मनुष्य मिठाई खरीदने के लिए हलवाई के पास जाकर मूल्य पूछता है, परंतु किसी मधुमक्खी को भावताव करने की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि भगवान ने उसे ऐसा युनिवर्सल लाइसेंस दिया हुआ है। तोता भी नहीं कहता कि बागान मालिक मुझे आम का भाव बताओ। बल्कि जो सबसे अच्छा आम होगा, वह उसी पर जाकर बैठता और खाता है। क्योंकि भगवान ने उन्हें भोग की आजादी दी हैं।
इस प्रकार कह सकते हैं ‘‘जैसा भोग हम चाहते हैं, वैसा मनुष्य को किन्ही भी योनियों में मिल जाएगा। लेकिन मुक्त होने, मोक्ष पाने का मौका सिर्फ इसी मनुष्य शरीर में ही है। यदि मनुष्य योनि में आकर भी मनुष्य के अंदर दिव्यता से जुड़ने, मुक्त होने की कामना नहीं रही, तो सिवाय पछताने के कुछ नहीं रहेगा।’’ इसीलिए आवश्यक है कि शरीर के अंदर विराजमान आत्मा रूपी पक्षी, आत्मतत्व को जानने का प्रयास करें। भारतीय ऋषियों से लेकर वेद-दर्शन उपनिषद कहते हैं कि ‘‘आत्मतत्व को देखो, इसे ही समझो। जब तक तुम्हें आत्मबोध नहीं होगा, तब तक तुमको परमात्मा का भी बोध नहीं होगा और जीवन का उद्देश्य भी पूरा नहीं होगा। अतः सबसे पहले अपने निज रूप को समझने का प्रयास करें।’’
शरीर रूपी रथ में इन्द्रिय रूपी पांच घोड़े, जो इसे खींच रहे हैं, वह जीवन की सार्थकता के लिए ही है, न कि फैशन-प्रदर्शन-दिखावा के लिए। वैसे भी दिखावे का समय तेजी से दूर जा रहा है। कोरोना संकट दिखावे का दण्ड ही तो है। इसे इंद्रियों को तृप्त करने का दुष्परिणाम कह सकते हैं। इसने विवश करके व्यक्ति को प्रदर्शन व फैशन से दूर रहने की भावना जगाई है। वास्तव में पंचशितारा होटल में बैठकर मन को अमीरी समझाने, रईसी दिखाने का समय तेजी से जा रहा है। कोरोना ने व्यक्ति को प्रकृतिस्थ सोचने के लिए विवश जो कर दिया है। कपड़े को आम दुकानों से खरीदने, किसी ढाबे व किसी छोटे दुकान में खाने से अपमान का समय भी गया।
अब तो पेड़ के नीचे खेत-खलिहान में सोने, अपनी सीधी-सादी भाषा बोलने, सकारात्मक जीवन शैली के साथ जीने का समय आ गया है। ऐसे में हम भोग मुक्त हो आत्मयोग से जुड़कर हम जीवन की सार्थकता साबित क्यों न करें। जरूरत है निजभाव से जीते हुए आत्मा से जुड़ने की। समस्त ब्रह्माण्ड को शरीर से जोड़ने वाला एकमात्र आत्मतत्व का स्वामी परमात्मा ही तो है। यदि मनुष्य जीवन के सहारे हम उसे न जान पाये, तो जीवन के दिन वर्ष दर वर्ष कटते रहेंगे। अंत में पछतावा ही हाथ लगेगा। आइये निज भाव से जुड़कर करें, नववर्ष सार्थक, जिससे जीवन आत्मउद्धार का लक्ष्य पा सकें।