भारत ऋषि मुनि का देश है, ऋषियों ने इस भारत को एक बड़ी शक्ति दी, ब्रह्मविद्या का विकास किया। इन्हीं के चरणों में बैठ कर शिष्यगण ईश्वर के विषय में जिज्ञासा का समाधान पाते थे। श्वेतकेतु, सत्यकाम, उद्दालक जैसे अनेक जो गुरु भी थे और शिष्य भी। हमारे देश में इन्हीं लोगों ने उपनिषदों की रचना की। सामान्यतः लोगों में प्रचलित ईश, केन, कंठ, मुंडक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैतरीय, श्वेताश्वेतर, छांदोग्य वृद्धारण्यक उपनिषद सहित असंख्य उपनिषद ऋषियों द्वारा रचित हैं। उपनिषदीय परम्परा से अलग हटकर भी वे ऋषि हुए हैं, जिन्होंने अलग-अलग क्षेत्र में सेवा, साधना, आत्मविज्ञान अनुसंधान के कार्य किये। जैसे
आधार पर कुशल नामक गोत्र चला।
इसी परम्परा में हमारे चार वेद, चार उपवेद, वेदों की व्याख्या और कर्मकांड परम्परा वाले ग्रंथ लिखे गये। गोपथ ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ, 8 वेदांग, कल्प ग्रंथ, 84 से 200 तक के लगभग स्मृति ग्रंथ, जिसमें हम शंख स्मृति, बृहस्पति स्मृति, शुक्र स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, मनुस्मृति आदि बहुत सारी स्मृतियों को हमारे ऋषियों ने हमें दिया। इन सबके बीच वेदव्यास ऋषि ने भारत के समग्र ज्ञान का सुंदर संयोजन करके मनुष्य पर बड़ा उपकार किया।
उस समय के ऋषि-मुनि घोर घने वन में रहने वाले थे, जो भारत में ज्ञान-विज्ञान, ब्रह्मविद्या, धर्म को फैलाने, भारत की नैतिकता, भारत के मूल्यों को विस्तार देने का कार्य कर रहे थे। कोई बड़ी परिस्थितियों के समाधान हेतु उन्हें बुलाया जाता था, जैसे दंडकारण्य के ऋषि को भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं यज्ञ में भाग लेने के लिए बुलाया था। उस समय भारत में इन ऋषि मुनि की समाज में अपनी एक आदर्श भूमिका थी। उस समय इन्हीं ऋषि-मुनियों, गुरुओं के आश्रम, गुरुकुल में 8 साल का बच्चा अपने मां बाप को छोड़कर शिक्षा लेने के लिए आता था।
उसे नैतिक शिक्षा, आध्यात्मिक शिक्षा के साथ भौतिक जगत की समस्त विद्यायें सिखाई ती थी। अर्थशास्त्र से लेकर अस्त्र-शस्त्र, रसायन सहित 64 प्रकार की विद्याओं का ज्ञान हमारे ऋषि मुनि दिया करते थे। इसी के साथ समाज के अनुभवशील लोग अपने घर गृहस्थी का कार्य पूरा करने के बाद अपनी संतान के हाथों अपना दायित्व सौंपकर इन्हीं ऋषियों के पास आ जाते थे और साथ मिलकर अपने जीवन के अनुभव अगली पीढ़ियों को देते थे, इन्हें हम वानप्रस्थी कहते थे।
मतलब समाज सुधार का कार्य शिक्षा, संस्कार, संस्कृति, सभ्यता, नैतिक मूल्य इन सबको संभालने का कार्य हमारे देश के ऋषि मुनि करते थे और उनसे जुड़े हुए होते थे कुल पुरोहित, कुलगुरु, समस्त धर्माचार्य, शिक्षा देने वाले लोग, जो इन ऋषियों की मर्यादा में रहते थे। राजा भी इन्हीं ऋषियों की मर्यादा में कार्य करते थे।
इस प्रकार प्रत्येक राजा के ऊपर एक दंडधर के रूप में धर्म का दंड लिये राजगुरु होता था, जो न्याय पूर्ण शासन की नीति दर्शाता था। इसके अतिरिक्त एक कुल पुरोहित होता था, जो कुल के अंदर मर्यादा और परंपराओं को जिंदा रखता था। अर्थात एक शानदान मर्यादा पूर्ण व्यवस्था का परिपालन समाज में होता था। इसप्रकार तत्कालीन समाज स्वस्थ, सुखी और सौभाग्यपूर्ण ढंग से संचालित था।
महाभारत काल आते आते परिस्थतियां दुखद दौर से गुजरने लगीं थीं, महाभारत काल में वेदव्यास ऋषि अपनी ज्ञान परंपरा को निर्वहन करते हुए समाज की दुखद अवस्था का अवलोकन कर रहे थे। उस समय मर्यादाओं का हनन हो रहा था, द्रोणाचार्य जैसे ऋषि स्तर के गुरु का विद्या प्रसार कार्य से विमुख होकर राजमहल वालों को शिक्षा देने में लगना बडे़ दुखद दौर की निशानी थी, राजमहल के पास गुरुकुल बनाकर राजाओं के द्वारा पोषित होना, ठीक वैसे ही था कि जैसे कोई कुछ पैसों के लिए, अपना मान मर्यादा, गरिमा धूमिल करके टड्ढूशन पढ़ाने लगे। उस समय की स्थिति का महाभारत में व्यास ऋषि द्वारा कुछ ऐसा ही उल्लेख मिलता है, जिसमें वो कहते हैंµ
अर्थात् मैं भुजाएं उठाकर जोर जोर से चिल्ला कर इस दुनिया को कह रहा हूँ कि यह दुनिया सुनती क्यों नहीं? कोई मेरी बात सुनता क्यों नहीं कि धर्म का पालन करो, धर्म से ही कल्याण होगा, मनुष्य धर्म पूर्वक अर्थ कमाए, धर्मपूर्वक अपने कामनाओं, इच्छाओं, अपने सुख और मनोरंजन को पूर्ण करें, तो ही उसके जीवन में सुख और शांति आएगी, तभी समाज का कल्याण होगा। धर्म के बिना मनुष्य का जीवन कुछ भी नहीं, मैं चीख चीख कर, दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर लोगों को समझा रहा हूँ, पर धर्म अनुकूल वाली मेरी बातें कोई सुनता ही नहीं।
वास्तव में जब जब जीवन की रीति-नीतियों के ह्रास व पतन का दौर प्रारम्भ होता है, तब तब घर, परिवार, समाज, देश, विश्व को महाभारत जैसा दौर देखना ही पड़ता है और इस जटिल मंथन के बीच से ही सदा से गूंजती आयी है युग कृष्ण की बाणीं।