जन्म सार्थक तब ही होता है, जब गुरु मिल जाता है। अनंत-अनंत प्रेम से भरपूर सद्गुरु जब कृपा करता है, तो जीवन सफल हो उठता है। पर ऐसे सद्गुरु को पकड़कर रखने की डोर श्रद्धा है। यह श्रद्धा खण्डित न हो शिष्य को इसका ध्यान रखना आवश्यक है। जब शिष्य गहरी श्रद्धाभावना से कहता है कि गुरुदेव आकर हमें सम्भाले, हमें आगे बढ़ने की शक्ति दो। तब गुरु उसके पास आकर उसे अहम से, द्वन्द्व से, विकारों से बाहर निकालता है, गुरु कृपा की प्राप्ति होती है।
गुरु को मनाने के लिए एक मात्र तत्व है ‘श्रद्धा’। श्रद्धा जगी कि गुरु निहाल करना शुरू कर देता है। श्रद्धा ही गुरु को पकड़ने का मूल है। इसके जगते ही अन्दर का सद्गुरु जगने लगता है। जब श्रद्धा शिष्य के हृदय में हो और गुरु दिल में बसा हो, तो सद्गुरु बाहर से नाराज भी दिखाई दें, तब भी वह आपका हित ही करेंगे। श्रद्धा ही वह ताकत है जो हर समस्या को बेधने की शक्ति रखती है, इसीलिए प्रत्येक गुरु अपने शिष्य को श्रद्धा बढ़ाने की ही सीख देते हैं।
श्रद्धा में अस्तित्व के विलय का चरम है। एक बार गुरु कमजोर पड़ जाय, लेकिन यदि शिष्य की श्रद्धा मजबूत है, तो उसे कठिनाइयों से पार पहुंचा देगी। श्रद्धा में सत्य का विराट आयाम समाहित है। श्रद्धा के जागरण से शिष्य के अहम का विसर्जन होता है। इसीलिए सभी इसी श्रद्धा की तलाश में हैं, जिसके सहारे अपने आप को खो सकें। श्रद्धा जगने से अंतःकरण में ऐसा महाकाश जन्म लेता है, जिसमें अनन्त परम्परायें बिलीन हो जाती हैं। शिष्य का सम्पूर्ण श्रद्धा में समाहित हो जाता है। पर यदि जीवन की ऊँचाइयां छूते हुए भी श्रद्धा पैदा न हुई तो सब निस्सार है। क्योंकि व्यक्ति अपने प्रति, अपनों के प्रति, सम्पूर्ण जड़-चेतन के प्रति श्रद्धा के जगने पर ही प्रेममय हो पाता है, तब परमात्मा उससे दूर नहीं रहता है, इस अवस्थ को पाने पर सम्पूर्ण जगत प्रेममय लगना चाहिए।
जीवन में श्रद्धा पैदा होती है, तो अंतःकरण से एक ही धुन उठती है, त्याग, त्याग, त्याग। समर्पण, विसर्जन, विलय, सर्वस्व न्यौछावर। सेवा, सेवा, सेवा अर्थात् हम अपने गुरु सेवा में क्या दे डालें? जीवन के रोम-रोम से बस यही भाव उठता है। इसी श्रद्धामयी हूक पर गुरु अपने शिष्य पर सब कुछ उड़ेल डालता है। परमपिता परमात्मा शिष्य की उंगलियों पर नाच उठता है। मूर्तियां देवमय बन साथ-साथ नृत्य करने लगती हैं, साथ भोजन करने लगती हैं, वाणी फलित हो उठती है। जीवन का रोम-रोम दिव्य अहसास से भर उठता है। तब हमें परमात्मा को पाने के लिए प्रयास की जरूरत नहीं होती, अपितु उसकी दृष्टि हर पल श्रद्धालु शिष्य-भक्त पर बनी रहती है।
श्रद्धामयी इस दिव्य अवस्था को पाने वाले के सानित्य में क्रूर से क्रूर अंतःकरण भी पिघल उठता है। अहम के महामृत्यु की यह ऐसी अवस्था है, जहां स्वयं को खो सकते हैं। यही परमात्मा से दिव्य मिलन है। सम्पूर्ण अहम पिघलकर दिव्य भावों में बह उठता है, रूपांतरण का एक नया आयाम उद्घाटित होता है और जीवन के गहन अतल में जन्म लेता है विलक्षण मौन। इस मौन में साधक बोलता भी है, तो बुद्धि मन के परे केवल श्रद्धामय शब्द झरते हैं। अस्तित्व की शून्यावस्था यही है। सम्पूर्ण संसार इसी महाशून्य की तलाश में अनन्तकाल से है। इसी शून्यता में जीवन का परम सत्य समाहित है। आइये! हम सभी श्रद्धावान होकर महाशून्य की यात्र पर चलें। क्योंकि श्रद्धा ही खोलती है, अंदर-बाहर के द्वार।
भगवान् शिव को करें अपने घर में विराजमान, दुःख में जब अपने भी मुंह मोड़ लें?
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Guro ji parnam
Mujhe aap se milna h