किसी मनुष्य द्वारा सम्पन्न सत्कार्य उसे बचपन में विरासत के रूप में मिले हुए सुसंस्कारों का सुपरिणाम होते हैं। क्योंकि उन संस्कारों ने ही उसे सुगढ़ता प्रदान की है, जो अब अभिव्यक्ति पा रहा है। सद्संस्कार व सद्प्रशिक्षण के बिना मनुष्य भी पदार्थ ही तो है। जैसे कोई धातु या वस्तु अपने मूलरूप में उतना आकर्षण नहीं पैदा करती! जितना कि उसे कुछ सजा-संवार कर एक सुन्दर आकृति में गढ़ने पर उसमें! आकर्षण बढ़ जाता है! यह सजाना-सवांरना ही अनगढ़ से सुगढ़ बनाना है।
विशेष धातु अपने मूल की अपेक्षा, उससे निर्मित संस्कारित आभूषण लोगों को ज्यादा आकर्षित करते हैं। इसी को भारतीय सनातन साधकों, गुरुओं, संतों ने संस्कार परम्परा का नाम दिया है। जैसे धातु को आभूषण रूप में संस्कारित करते हैं, तो उसका मूल्य बढ़ जाता है, उसमें चमक पैदा हो जाती है, वह अधिक उपयोगी दिखने लगता है, ठीक वैसे ही मनुष्य को संस्कार प्रक्रिया से गुजार कर उसका गौरव व मूल्य बढ़ाने की विज्ञान सम्मत प्रणाली हमारे महापुरुषों-ऋषियों ने हम सबको दी है। इसी प्रकार एक समर्थ संस्कार केन्द्र है माँ की कोख, जहां मनुष्य का जन्म लेने के पूर्व 9 माह तक संस्कार शोधन होता है।
“वैसे संस्कारों! के साथ शिक्षण का शुभारम्भ बालक के जन्म के पूर्व ही माँ की कोख से प्रारम्भ हो जाता है। संतान की कामना के साथ ही माता-पिता अपने संकल्प, सोच, आहार, विहार, वार्तालाप आदि के सहारे उसे गर्भकाल में सूक्ष्म भावों के सहारे गढ़ने लगते हैं। संतान कोख में आने के साथ ही माँ के भाव संकल्प व निर्धारित कामनागत संस्कार उसके अंतःकरण को प्रशिक्षित भी करने लगते हैं। आज का मनोविज्ञान भी कहता है कि गर्भकाल से ही माता-पिता द्वारा स्वयं के लिए अपनाये गये चरणवद्ध आचरणों का शिशु पर गहरा प्रभाव पड़ता है। माँ की कोख में! 9 माह तक जिस प्रकार से शिशु का शोधन हुआ रहता है! उसी अनुसार वह जन्म के बाद अपने संसार का निर्माण करता है।“
अतः बड़ी सावधानी यहीं जरूरी है। तत्पश्चात् बालक के जन्म के बाद ऐसे परिवेश का निर्माण हर माता-पिता को करना पड़ता है, जिससे सुसंस्कार, सद्विचार एवं सदाचार की मनमोहक सुगन्धि संतान में समाहित हो, जो बालक के सुकोमल मन को विकसित कर सके। इस प्रकार छोटी उम्र का बालक अपने घर-परिवार के बीच अनुकरण के द्वारा सीखता व गढ़ा जाता है! फिर गुरुकुल में प्रशिक्षण के द्वारा तो वाह्य जगत के सारे उपक्रम ही सीखता है।
सच तो यह है ! कि बालक जन्म के साथ माता-पिता, स्वजनों के चिंतन, चरित्र, व्यवहार-संस्कारों से एक अवधि तक सीखता है। इसके बाद वह गुरुकुल में प्रवेश लेकर अपने आचार्यों के सान्निध्य में उनके द्वारा दिये शिक्षण व संस्कारों से अपना विकास पूरा करता है। पर ‘‘असली वास्तविक गुरुकुल तो माँ की कोख ही कही जायेगी, जहां माँ गुरु होती है और ईश्वर की शक्ति उसकी प्रणेता, कोख में पड़े संस्कार बड़े होकर समाज के बीच अभिव्यक्त होते हैं। इसीलिए मानवीय संवेदनशीलता, गौरव, गुरु की गरिमा प्रदान करने वाली प्राचीनकालीन परम्परा और गुरुकुलीय ऋषि प्रणीत शिक्षा प्रणाली से बढ़कर माँ की कोख का महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है।’’
मनुष्य द्वारा किये जाने वाले वाह्यजगत के विकास में चिकित्सा! व्यक्तित्व निर्माण, प्रबंधन, परिवार व्यवस्था, समाज व्यवस्था, राजतंत्र, व्यापार एवं राष्ट्रीय चेतना विकास आदि सम्पूर्ण ढांचा माँ की कोख में हुए शोधन एवं शिक्षण के आस-पास ही घूमता है। भारत देश इस संदर्भ में सौभाग्यशाली है। क्योंकि जब भी परिस्थितियां बिगड़ीं, तो यहां के गुरुकुलों एवं उनके आचार्यों के साथ देश की माताओं ने पुनः-पुनः अपने संस्कारों के सहारे इसे सही दिशा दी। अनेक विदेशी आक्रांताओं ने समय-समय पर वर्षों तक हमारी शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता को मिटाने का प्रयास किया, लेकिन फिर भी वे हमारे मूल चिंतन को कभी हिला न सके हर परिस्थिति में जहां हमारी गुरुकुलीय अक्षुण्य संस्कृति ने प्रतिबद्धता के साथ पुनर्सृजन में सहायता की, वहीं राष्ट्र की माताओं ने कोख में योग्य दिव्य संताने गढ़ीं। इसीलिए प्राचीन देवत्वभाव की परंपरा का भारत आज भी उसी संकल्प से फल-फूल रहा है।
विचारणीय बात यह कि आज की सभ्यता में देवत्व गढ़ने वाले केन्द्र ‘‘माँ की कोख’’ पर ही आक्रमण हो रहा है। आहार-विहार-विचार-संस्कार-चरित्र के शोधन केन्द्र को पददलित किया जा रहा है। ‘कोख’ की धारक को विलासिता, अश्लीलता, कुसंस्कार, दूषित आहार-नशा एवं उच्छंृखलता की ओर ढकेलने में साहित्य, संगीत, कला, शिक्षण, चिकित्सा, राजतंत्र, औद्योगिक घराने सब लगे हैं। इस विकट घड़ी में आगे बढ़कर समाज में सिमरन, संयम, सेवा, साधना, पवित्रता, संतोष आदि से जोड़ने का साहस दिखाने की जरूरत है। यह कार्य हमारा ऋषि प्रणीत अध्यात्म ही कर सकता है। यह कार्य घर मंदिर बनाने के साथ घर-घर संस्कार परिपाटी चलाने से सम्भव बनेगा।
जिससे भावी पीढ़ी को अपने दिव्य परिवेश में रहकर! सद्चरित्रता एवं सदाचरण परक व्यवहार एवं बर्ताव का अवलोकन करने का अवसर मिले! वह सुसंस्कारित हो और अपने कुसंस्कारों की मैल उतार सके। साथ ही घर में माता-पिता एवं पारिवारिक जनों तथा गुरुकुलों में आचार्यों को मिलकर सद्संस्कार, सद्प्रशिक्षण का वातावरण बनाना होगा। ताकि संतान अपने जीवन पथ में स्वयं के लिए, समाज के लिए, राष्ट्र एवं विश्व के लिए सुखद एवं सुवासित फूलों से भरे गुलशन का निर्माण कर सके। उसकी कोख में ऐसी सद्वृत्तियां जग सकें! कि उसके द्वारा निर्धारित मार्ग युगों-युगों तक सद्प्रेरणा बनकर लोगों को प्रेरित करता रहे।
आइये! हम सब अपने परिवार को गुरुकुलीय सोच जैसा वातावरण दें! और बच्चों को ऋषिप्रणीत संस्कारों एवं दैवीय गुणों से भरने हेतु मातायें! अपनी कोख में पवित्रता जगायें! जिससे घर-घर देवत्व से युक्त संतान का जन्म हो और तद्अनुरूप संस्कारवान समाज का निर्माण हो सके।