भारत ने पिछले दो हजार वर्षों से सिर्फ पतन व गुलामी ही देखी है, बार-बार यूनानियों, शकों, हूणों, अरबों, मुगलों, तुर्कों, फ्रांसीसियों, अंग्रेजों और यहां तक कि गिने चुने गुलामों से हम हारते रहे और गुलामी की जंजीरों से बंधे रहे। इन जंजीरों को सदा के लिए काटने तथा वैमनस्यता को समूल मिटाने का संकल्प लेकर देश में तब असंख्य देशभक्त बलिदानी अवतरित हुए थे। समाज के लिए संघर्ष करने वाले हमें उन्हीं बलिदानी युवाओं की आज आवश्यकता है संस्कारवान बनायें रखने के लिये।
यह वह राष्ट्रीय तप था, जो जाति, धर्म, महजब, ऊंच-नीच, अपने-पराये जैसे स्वार्थ से मुक्त था। यह ऐसा असीम विश्वास वाला तप था, जिसने हृदय में प्राण जगाकर अंध-रूढ़ियों, विसंगतियों का नाश सम्भव बनाया। सबको मिलकर परिवारों के बीच वहीं आग पुनःजगाने की जरूरत है। इस महान कार्य के लिए आज पुनः सबकों परिवारों के बीच जाना होगा, उनके बीच संस्कारों की अलख जगानी होगी, जिससे परिवार का वातावरण संस्कारवान बन सके और उनमें देश-धर्म संस्कृति को संरक्षित रखने- विषयों-वेदों की परम्पराओं को संवर्धित करने वाले नई पीढ़ी के नर रत्न गढ़े जा सकें।
जीवन जल के समान है, जैसे पहाड़ों के बीच से निकलते और चट्टानों से टकराते जल में तीव्रता और ताजगी होती है, लेकिन जब उसे सरल-सीधा मैदान मिलता है, पानी की रवानी, उसकी तीव्रता, तेजस्विता मंद पड़ जाती है। ठीक वैसे ही मनुष्य का जीवन है, कई व्यक्ति तब अधिक चमकते हैं, जब उनके साथ कठिनाइयां अधिक होती हैं। इसीलिए संघर्ष को जीवन का मूल कहते हैं।
यह सच भी है अनेक लोग ऐसे हैं, जिनमें तप व कठिनाइयों के बीच गुण प्रकट होते हैं, पर बहुत सारे लोग संसार में स्वतः ही गुणों के साथ जन्म लेते हैं। इसके बावजूद बहुत सारे लोगों में वह जीवटता संस्कारों को देकर जगानी पड़ती है। इसमें प्रौढ़ भी आते हैं और वे भी जो यौवनावस्था पार कर गये हैं, लेकिन नई पीढ़ी को, टीनएज-किशोर एवं युवाओं को परिवारों के बीच संस्कारवान वातावरण देकर ही तेजस्वी बनाया जा सकता है। हमारे मिशन ने इसके लिए परिवार जोड़ो आंदोलन प्रारम्भ किया है। इससे मनुष्य अपना कर्तव्य बखूबी समझेगा, जन-जन में अपने परिवार, समाज, राष्ट्र के प्रति समस्त कर्तव्यों की जागरूकता पैदा होगी।
जब हम देखते हैं कि आज का युवक, आत्मग्लानि, तोड़-फोड़ और विध्वंस का शिकार है, नशे और अन्य लतों में डूबता, जीवन की समस्याओं से भागता, जमाने भर से शिकायत करता, कुण्ठाओं से भरा, अनुशासन को भंग करता नजर आ रहा है, तो अंतःकरण भर आता है। जब हम देखते हैं कि वह युवा दोराहे पर खड़ा है, अश्लीलता की आग में उनका मन और मस्तिष्क झुलस रहा है, तरह-तरह के दुर्व्यसनों से उसका नैतिक पतन हुआ जा रहा है, तब भी मन विचलित होता है।
इसके बावजूद टीनएज व युवा में नैतिकता, संयम, अनुशासन और कर्तव्य का बोध भी तो है। नव निर्माण की, चरित्रावान बलिदानी वीरों की तरह जूझने, अपनी प्यारी मातृभूमि के लिए ‘वयं तुभ्यं बलिहृतः स्याम’ की हुंकार की शक्ति भी उसी युवा पीढ़ी में है, बस उसे हमें संस्कारों के सहारे सम्हालना भर है। इस भावी पीढ़ी को गढ़ना ही वास्तविक तप है। इसीलिए आप सबको मिलकर तपःभाव से उसमें असीम आत्मविश्वास जगाना है, उसमें गुरु व ईश्वर उपासना के भाव भरना है। शक्ति की अराधना की दृष्टि देनी है।
नस-नाड़ियों में बह रहे रक्त को कठोर परिश्रम, पूर्ण अनुशासन एवं चरित्रा से जोड़ना है, जिससे वह भविष्य में आदर्श युवक कहला पाये। आन, बान, शान के प्रतीक, चरित्रा तप से प्रदीप्त, श्रम संकल्पवान युवाओं से ही समाज का उज्ज्वल भविष्य सम्भव है। जब हमारा तरुण वर्ग यह सब समझ लेगा तब वह हुंकार भरेगा नये युग के निर्माण के लिए। इसी प्रकार नई पीढ़ी में एवं सम्पूर्ण परिवार को संस्कारवान बनाने में धर्म के शाश्वत मूल्यों का योगदान सुनिश्चित करना, उसे प्रयोग स्तर पर प्रतिपादित करना, इसके लिए हर एक को प्रेरित करना हमारा दायित्व है।
इस प्रकार संस्कारों को परिवारों के बीच जगाने से मनुष्यता का विकास सम्भव बनेगा। हर वर्ग के परिवारों में हमारे विषयों के संस्कार जगेंगे, तभी नई पीढ़ी में परमात्मा की तरफ बढ़ने, परस्पर सहयोगी भावना अपनाने, सर्वत्रा सेवा और सिमरन की परम्परायें चलाने की प्रेरणा उभर सकेगी। इसी प्रकार देवालय परम्परा से परिवारों को जोड़कर उसमें धर्मिक पूजापाठ की वैज्ञानिकी जगाई जानी चाहिए, जिससे उस परिवार एवं समाज में शांति-स्मृति स्थापित हो सकेगी। इसी प्रकार भक्ति का वातावरण बनाने के लिए संगीत, कीर्तन, भजन-पूजन, सत्संग, उपासना, गुरुदर्शन की परम्परा को बढ़ावा मिले, जिसे परस्पर प्रेम विकसित हो, प्रेमभाव अपनाते हुए लोग ईश्वर के प्रति प्रेममय हो सकें।
हर किसी को इस प्रेम-सौहाद्र, और भाई-चारे की और हर मन में करुणा, दया, सेवा, सहयोग, संतोष और संयम की आवश्यकता को दृष्टि में रखकर युगों-युगों से हमारे टीनएज व युवा में नैतिकता, संयम, अनुशासन और कर्तव्य का बोध है। नव निर्माण की, चरित्रावान बलिदानी वीरों की तरह जूझने, अपनी प्यारी मातृभूमि के लिए ‘वयं तुभ्यं बलिहृतः स्याम’ की हुंकार की शक्ति भी उसी युवा पीढ़ी में है, बस उसे हमें संस्कारों के सहारे सम्हालना है। इस भावी पीढ़ी को गढ़ना ही वास्तविक तप है। इसीलिए आप सबको मिलकर तपःभाव से उसमें असीम आत्मविश्वास जगाना है, उसमें गुरु व ईश्वर उपासना के भाव भरना है। शक्ति की आराधना की दृष्टि देनी है।