वैदिक काल से ही प्रकृतिमय पर्यावरण प्रिय जीवन शैली भारतीय जीवन का केन्द्र रही है, जो जीवन में शांति, पवित्रता, दिव्यता भरने व वातावरण को स्वस्थ, नकारात्मक ऊर्जा से मुक्त रखने में अपनी भूमिका निभाती है। इसीलिए प्राचीनकाल से संत, सद्गुरु, ऋषिगण अपने आश्रम, आरण्यक, तीर्थ एवं गुरुकुलों का स्थान-स्थान पर निर्माण प्रकृति की गोद में करते आये हैं। कहते हैं कि “प्रकृति और परमात्मा के बीच सीधा रिश्ता होता है, इसलिए धर्म-अध्यात्म को आत्मसाल करने के लिए शुद्ध पर्यावरण आवश्यक है। आश्रमों में गौवंश का संरक्षण, प्रकृतिमय संवेदनाओं से निर्मित देवालय, गौवंश आधारित कृषि द्वारा घर-परिवार को दूध, दही, छांछ से भरपूर रखना एवं गौ उत्पादों से आर्थिक स्वावलम्बन का मार्ग खोलकर सुख शांति आरोग्यता का वातावरण बनाना पर्यावरण संरक्षण का महत्वपूर्ण पहलू ही तो है।’’
जब भारत भूमि पर ऋषियों द्वारा विशेष अनुसंधान के साथ मनुष्य के जीवन जीने की देवत्वपूर्ण शैली प्रतिपादित की गयी तो मनुष्य एवं अन्य जीव जन्तु, वृक्ष-वनस्पति के बीच सम्बंधों का विश्लेषण भी किया गया। इस प्रकार तैयार की गयी जीवन पद्धति को सम्पूर्ण विश्व में ‘भारतीय जीवन पद्धति’, ‘दैवीय जीवन शैली’, ‘सनातन परम्परा’, ‘प्राचीतम ऋषिप्रणीत मूल्य आधारित जीवन शैली, धार्मिक जीवनशैली आदि नामों से जाना और अपनाया गया। इन सम्पूर्ण प्रयोगों में प्रकृति एवं पर्यावरण के समन्वय को मूल में रखा गया। इस प्रकार शाश्वत प्रकृतिगत मूल्यों पर अवलम्बित भारतीय जीवन शैली आम मनुष्यों के स्वाभाविक गुण जैसे
तत्वों को जगाने में सफल रही, प्रकृति एवं पर्यावरण आधारित यही जीवन शैली विश्व भर में आध्यात्मिक जीवन शैली रूप में जानी जाती है।
आज प्रकृति एवं पर्यावरण से दूर होकर मानवता सुख-शांति से दूर हो रहा है। रासायनिकी एवं यंत्रीकरण से धरती बंजर हो रही है, मानव के अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो गया है। मानव के स्वास्थ्य एवं सुख-शांति पर अधिक गम्भीर संकट आ गया है। इन सब से मुक्ति पाने के लिए हमें पुनः पर्यावरण संवर्धन एवं संरक्षण प्रकृतिस्थ जीवन की ओर लौटना होगा।
पूज्य श्री सुधांशु जी महाराज कहते हैं कि फ्नदियों को बारहमासी बनाने, वृक्षारोपण को महत्व देने, कैमिकल मुक्त एवं जैविक कृषि परम्परा सहित घर निर्माण की प्रकृति अनुकूल शैली अपनाने, रहन-सहन, जीवनशैली सुधारने, घर घर गायों को प्रतिष्ठित करने, गाय के प्रति संवेदनशीलता लाने एवं गौवंश के साथ जीवन को जोड़ने के प्रति जन जागरूकता फैलाने तथा सघन वृक्षारोपण, प्राकृतिक छत वाले मकान, बृक्ष वनस्पतियों व प्रकृति अनुकूल जीवन व रहन-सहन, जैविक रीति-नीति आदि जिन रास्तों को हम बहुत पीछे छोड़ आये थे। उनकी ओर जीवन को पुनः मोड़ने की आज आवश्यकता है। मन में सदैव पर्यावरण संवर्धन, संरक्षण की भावना रही है। इसी भाव से अपने मिशन द्वारा संचालित प्रत्येक प्रकल्पों में पर्यावरण को मूल में रखा। चाहे वह आनन्दधाम दिल्ली, पानीपत, लालसोट, बैंगलोर, कानपुर, मुरादाबाद और हैदराबाद में गौशालाओं की स्थापना रही हो अथवा अन्य सेवा प्रकल्पो का संचालन हो।
पर्यावरण को सुरक्षित, पोषित करे
आनन्दधाम पर्यावरण संरक्षण-संवर्धन के लिए गौसंरक्षण- संवर्धन, हिमालय गंगा बचाओ आंदोलन, वृक्षारोपण जैसे अभियानों को प्रारम्भ से ही चलाता रहा है। साथ साथ बन-जंगलों की कटाई रुके, अंतिम संस्कार में गौ काष्ठ का प्रचलन बढ़े, हर व्यक्ति न्यूनतम 24 पेड़ अवश्य लगायें, घर-घर गौ ग्रास निकले, मोमबत्ती की जगह गोबर से बने दीपक प्रयोग हों, गौकाष्ट के साथ औषधीय जड़ी-बुटियों को मिलाकर दीपक तैयार हों आदि को विश्व जागृति मिशन अभियान के पर्यावरण संरक्षण-संवर्धन के महत्वपूर्ण प्रयोग कहे जायेंगे। इस प्रकार जरूरत है पुनः देश अपनी ऋषि प्रणीत परम्पराओं, कृषिपरक जीवनशैली एवं गौ संरक्षण संवर्धन की दिशा में कार्य करे। क्योंकि पर्यावरण को सुरक्षित, पोषित करके ही हम लोकजनमानस को सुरक्षित, पोषित एवं पुष्ट कर सकते हैं।
आज जो विराट मिशन दुनियां के सामने है, उसकी नीव ही प्रकृतिमय वातावरण के बीच पड़ी और इस मिशन के केंद्रीय परिसर आनन्दधाम से लेकर देश भर में फैले मिशन के सम्पूर्ण आश्रम व शाखायें सघन प्रकृति के बीच स्थित पर्यावरण संवर्धन का संदेश दे रही हैं। परमात्मा निर्मित हर शाश्वत का संरक्षण व संवर्धन हो, यही मिशन द्वारा संचालित धर्मतंत्र का लक्ष्य है। इस प्रकार वे पर्यावरण संरक्षण-संवर्धन को मानवता और जीवन के हित में महत्वपूर्ण मानते हुए अपने विश्व जागृति मिशन के स्थापनाकाल से ही पर्यावरण संरक्षण-संवर्धन परक प्रयोगों को अपनाते और अपने करोड़ों स्वजनो को उसे जीवन शैली में शामिल करने हेतु जागरूक करते आ रहे हैं।’’ इस दृष्टि से मिशन मुख्यालय आनन्दधाम आश्रम, दिल्ली से संचालित सेवा प्रकल्प जैसे गौशाला, मंदिर-देवालय, गुरुकुल, वृद्धाश्रम, युगऋषि आयुर्वेद से लेकर करुणासिंधु अस्पताल आधारित स्वास्थ्य सेवा, सत्संग सेवा, ध्यान-साधना सेवा आदि में पर्यावरण के बीज ही समाये हैं।
इसी प्रकार परिसर की मानसरोवर झील व उसके जल शोधन में जड़ी-बूटियों के प्रयोग, जड़ी-बूटियों से लेकर सघन बृक्षों से भरा यहां का विशाल परिसर, भव्य मन्दिर, अस्पताल, बाल गुरुकुल, उपदेशक महाविद्यालय, ओंकार कुटिया, वृद्धाश्रम, झील, सिद्धशिखर, ईश्वरीय गान गुनगुनाते मोर पक्षी, यज्ञशाला में जड़ी बूटियों से सुगन्धित धूम्र, वानप्रस्थ आश्रम की प्राकृतिक दिनचर्या से लेकर मंत्रें के पाठ, पूज्यवर की लोककल्याणकारी मंगल प्रार्थनायें, सुख-शान्ति की आध्यात्मिक तरंगे, गुरु संदेश आदि आध्यात्मिक संचेतनायें विश्वभर को पर्यावरणीय अनुभूति ही तो कराते हैं।
देश-विदेश में जनकल्याण हेतु होने वाले यज्ञ, पूजा, पाठ, अनुष्ठान, शिव रुद्राभिषेक, महामृत्युंजय मंत्र, गायत्री, गोपूजन, मंत्र पाठ, नवग्रह शान्ति, नामकरण, विवाह, यज्ञोपवीत, नवग्रह वाटिका, बारह ज्योति²लग, मानसरोवर झील के बीच प्रकृतिमय वातावरण में सम्पन्न कराये जाने वाली यज्ञ-प्रार्थना आदि को पर्यावरण संरक्षण-संवर्धन के अनोखे उदाहरण कह सकते हैं।
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