गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हर मनुष्य स्वयं अपना मित्र है और स्वयं ही अपन शत्रु। जिसने स्वयं को संभाल लिया, खुद को जीत लिया, वह स्वयं का मित्र है, जो ऐसा नहीं कर पाया वह स्वयं का शत्रु है। इस प्रकार हमें अपने द्वारा अपना उद्धार करने की प्रेरणा मिलती है, जिससे स्वयं का पतन होने से बचे। चूंकि मनुष्य जीवन अनमोल है, आवागमन के अनेक चक्र पार करके यह श्रेष्ठ जीवन मिला है, इसलिए इसे मूल्यवान बनाये रखना हर व्यक्ति का दायित्व है। सर्वप्रथम इस देह को शरीर का मंदिर मानकर इसमें जीवन भर रहने के लिए इसका स्वस्थ रहना आवश्यक है।
इसके लिए कुछ आवश्यक कर्तव्यों के पालन बताये गये हैं। जैसे अपने शरीर की देखभाल करना, योग प्राणायाम करना, उचित आहार और अच्छी नींद लेना। स्वस्थ रहें मस्त रहें, व्यस्त भी रहें, परंतु जीवन को अस्त-व्यस्त न रखें, इसके लिए परमात्मा से एक अरदास भी करते रहें कि दिल दे तो इस मिजाज का परवर दिगार दे, जो रंज की घड़ियां भी खुशी से गुजार दे। वास्तव में दिल अपना हो या पराया, इसे दुःखाना नहीं चाहिए।
याद रखें ये दिन दोबारा नहीं आने वाला, इसलिए जी भर के जिंदगी जीएं, चिंता-निराशा छोड़कर जीयें, क्योंकि चिंता करने से भविष्य नहीं बदल जायेगा। यदि जीवन में चिंता आये, तो चिंतन करें। व्यथित हो, तो व्यवस्थित हो जायंे। किसी भी हालत में जीवन से भागना ठीक नहीं है, अपितु जीवन के प्रति जागना जरूरी है। संत यही तो कहते हैं कबीरा सोया क्या करे उठ बैठो रहो जाग। जिसके संग से तू बिछुड़ा, वाही के संग लाग।। वास्तव में मन की शक्ति उसके शांत होने में है, मन जहां लग जायेगा, वहीं चमत्कार कर देगा, इसका महत्वपूर्ण उपाय है ध्यान द्वारा मन को शांत-शक्तिवान करने की आदत से जोड़ना। बुरी आदतें जीवन को मुश्किल में डालती है, जबकि अच्छी आदतें जीवन को आसान बनाती हैं। इसलिए जीवन को आसान बनाने के लिए अच्छी आदतों का अभ्यास करें।
अगला चरण है अंदर-बाहर दोनों ओर से परमात्मा की ओर बे अपने सत्य मार्ग से कभी लड़खड़ाने मत देना। तत्पश्चात जप करें, सिमरन करें, पूजा पाठ के साथ ध्यान भी करें। इस प्रकार अपने भीतर के मौन में उस गहराई तक उतरें, जहां ईश्वर का स्वर सुनाई देता है और भीतर शांति की चांदनी आपको परमात्मा के आशीर्वाद से मालामाल कर देती है। साथ ही एक ही पुकार लगी रहे तुम बिना मेरा कौन है हे अनाथों के नाथ। इस असार संसार में, पकड़ उबारो मेरा हाथ।। सहजो जा घट नाम है सो घट मंगल रूप। नाम बिना धिक्कार है सुंदर धन वंत भूप।। युगों युगों से गुरु ऐसा ही निमंत्रण तो देता आ रहा है कि आओ! चलें परमात्मा की ओर। दिन बीत रहे हैं, आयु घट रही है कब जागोगे, कब जीवन संभालोगे। यदि अब नहीं, तो फिर कब?
किसी संत ने कहा ‘‘एक ईश्वर वह है, जिसने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की और एक ईश्वर वह है, जिसको व्यक्ति ने अपनी आदतों, इच्छाओं के अनुरूप रचा है।’’ व्यक्ति अपने बनाये ईश्वर के निकट ही रहना चाहता है, इसीलिए उसके जीवन से असली ईश्वर मीलों दूर है। ऐसा व्यक्ति वह आत्मकल्याण की बात तो दूर अपने लोक व्यवहार के पालन तक में असफल रहता है। सद्गुरु कृपा करके उसे अपने बनाये काल्पनिक ईश्वरीय अवधारणा से बाहर निकालता और उस असली ईश्वर से मिलाता है। सद्गुरु ही उसकी धारणाओं को सही दिशा देता है, सद्गुरु ही अनुभव कराता है कि भगवान केवल जिंदगी देता है, पर जिंदगी का उपयोग करना सीखना पड़ता है।
यहीं से व्यक्ति में जागरण प्रारम्भ होता है। जैसे माता-पिता जन्म देते हैं, पर कत्र्तव्य पूरा करके जिंदगी स्वयं जीनी पड़ती है। माँ 9 महीने पेट में रखती है व 9 साल तक संभालती है, 18 साल तक पिता संभालता है, लेकिन नौजवान होते ही पिता की उंगली छोड़कर अपनी जिंदगी स्वयं जीनी पड़ती है। इस जिन्दगी को सही इससे स्पष्ट है जीवन में गुरु-शिष्य के मिलन से नव चेतना का सृजन सम्भव होता है।
‘‘गु’’ धातु से गुरु शब्द का निर्माण हुआ है, इसमें गु का अर्थ है निगल लेना अर्थात गुरु जो शिष्य के पापों को निगलता है। इसी क्रम में ‘‘गु’’ का अर्थ है अन्धकार’, ‘‘रु’’ का अर्थ है ‘प्रकाश’ अर्थात जो अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चले, अज्ञान से ज्ञान की ओर ले चले, सत्पथ-सुपथ, स्वस्ति-पथ पर ले चले वह गुरु कहलाता है। साधना ही नहीं जीवन के हर पथ में गुरु वरन करने की जरूरत होती है। गुरु-शिष्य का रिश्ता प्रकाश, ज्ञान, भावना, साधना का रिश्ता है, जो शिष्य में ईश्वर का राजकुमार होने का गौरव जगाता है। वैसे भी हर महानता के पीछे एक शक्ति दिखाई देती है, वह गुरु की शक्ति है। सारे महान व्यक्तियों के सामथ्र्य के पीछे समर्थ गुरु की शक्ति होती है।
अतः शिष्य को सावधान होकर अनुभव करना चाहिए कि गुरु पीछे खड़ा हुआ है। इस धरा पर गुरु द्वारा स्थापित असंख्य तीर्थ भी हमें सम्हालते हैं। अकाल मृत्यु का योग तक टालते हैं। ये तीर्थ अपना सुपरिणाम तब दिखाते हैं, जब अंतःकरण में उसके सत्व को स्थापित कर लिया जाता है। समर्पित शिष्य अपने गुरु-परमात्मा से यही अर्चना तो करता हुआ गुरु द्वारा दिये मंत्रानुशासन के सहारे गुरु संकल्पित तीर्थ को ही तो अंतःकरण में धारण करता है, जिससे उसका जीवन ही तीर्थ बन जाए- अकालमृत्युहरणं सर्वव्याध्वििनाशनम्। पादोदकं तीर्थं जठरे धरयाम्यहम्। अर्थात ‘‘हे अकालमृत्यु का हरण करने वाले, सर्व व्याधियों का नाश करने वाले देवता के चरण युक्त तीर्थदेव मैं आपको अपने उदर में धारण करता हूं।’’
वास्तव में तीर्थ, गुरु व संत आरोग्य देने, भाग्य बदलने व अकाल मृत्यु को टालने तक में सक्षम होते हैं। यही तीर्थ चेतना जीवन के प्रत्येक कलुष मिटाती और जीवन को सम्पूर्ण ऊर्जा से भरती है। पद्यपुराण कहता है कि तीर्थेषु लभ्यते साधू रामचन्द्रपरायणः। यद्दर्शनं नृणां पापराशिदाहा शुशुक्षणिः।। अध्यात्म साधना के क्षेत्र में प्रगति गुरु के प्रत्यक्ष सहयोग बिना असम्भव है। राम और लक्ष्मण का युग्म विश्वामित्र-वशिष्ठ के मार्गदर्शन से ही समर्थ बना। महाभारत की सफलता कृष्ण और अर्जुन के मिलन ने सम्भव हुई। प्रत्येक व्यक्ति को इसीलिए गुरु की आवश्यकता पड़ती है। सदगुरु का कार्य प्रभु से पहचान करा देना, उसका भक्त बना देना है। इतने भर से शिष्य की आगामी जीवन यात्रा सफल हो जाती है। वैसे गुरु-शिष्य के सम्बन्धों की यात्रा अनन्त जन्मों तक चलती है।
हमें सम्भव है गुरु इसी जन्म का दिखता है, पर गुरु को हमारे अनेक जन्मों की याद है। पिछले जन्म और आने वाले अगले जन्म की भी। उसने हमें कब किन परिस्थितियों में सम्हाला, उबारा उसे सब स्मरण है, शिष्य को नहीं। इसीलिए हम अपने गुरु को अक्सर बुद्धि से देखते हैं, पर गुरु बार-बार भावना की छीटे देकर शिष्य को उबारता है और गुरु-शिष्य के बीच के अनंतकालीन रिश्ते को गहराई देता है। गुरु अपने तप-ज्ञान से शिष्य के पिछले जन्मों को दिव्य दृष्टि डालकर खंगालता है और धरा पर उसकी नई भूमिका का मार्ग प्रशस्त कराने में भूमिका निभाता है। पूर्व के संस्कारों के साथ शिष्य की गहराई जानना, उसकी चेतनात्मक भूमि को समझना और आगे के जीवन का विस्तार तय करना गुरु का महत्वपूर्ण कार्य है।
वास्तव में गुरु पूर्ण मनोयोग से शिष्य को अपना प्रतिबिंब मानकर उसमें संस्कार उतारने में मदद करता है। गुरु प्रेरणा-गुरु कृपा से शिष्य आंतरिक प्रकृति के नियमों को समझकर चलने की दृष्टि पाता है। इसलिए आवश्यक है उससे सम्बन्ध बनाकर चलें। सम्बन्ध अर्थात् गुरु के प्रति अंदर श्रद्धा-निष्ठा का दिया जलाके रखें। जीवन को गुरु अनुशासन में चलाने से बुरी आदतें मिटती हैं। तब गुरु और शिष्य जीवन और समाज में बदलाव लाते हैं।
मनुष्य का जन्म रोने से शुरू होता है, यह रोना अज्ञान से आता है। आंसू भले ही उसके दिखाई न दें, आवाज सुनाई न दे पर इंसान मन से, हृदय से, आत्मा से अवश्य रो रहा होता है। मनुष्य अज्ञान के कारण ठोकरें खाता, संसार में दुःख भोगता है, बार-बार देह में भी आता है। लेकिन इस धरा पर मात्रा एक गुरुसत्ता ही है, जिसकी कृपा से सत्य व ज्ञान का अंतःकरण में उदय होता है और मनुष्य को उलझनों से पार जाने की शक्ति मिलती है।
गुरु की कृपा से संसार के भव बन्धन समझ में आने लगते हैं। इस प्रकार गुरुकृपा से व्यक्ति उलझनों को सुलझाता है और उससे पार भी पा जाता है। भगवान् शिव स्वयं इसी रहस्य को तो समझाते हैं गू मान्यता यह भी है कि सद्गुरु चलें तो उनकी छाया पर शिष्य का पांव नहीं आना चाहिये। सद्गुरु की उपस्थिति में शिष्य में अकड़ या अहम् का प्रदर्शन नहीं होना चाहिये। यह सब उनके द्वारा दी गयी बरकत व कृपायें होती हैं। गुरु जो देता है, केवल सद्गुरु नहीं देता, अपितु सद्गुरु के पीछे से देवी-देवता भी अपनी कृपायें देते हैं। सारे ग्रह-नक्षत्रों की कृपायें ऊपर पड़ती हैं। सम्पूर्ण गुरु परम्पराओं के साथ साक्षात नारायण की कृपा मिलती है। अतः गुरु के द्वारा दिया गया तृण भी अमृत के समान मानकर स्वीकार करना चाहिये।
सद्गुरु की कृपाओं से हमारे भाग्य का निर्माण होना शुरू होता है और अंदर के दुःख-दारिद्रय बाहर निकलने शुरू होते हैं। इस प्रकार शिष्य के कर्म प्रारब्ध एवं परमात्मा के विधान के बीच गुरु बादल बनकर शुभ-पुण्य फल बरसाता है। जब भाग्य की जड़ों में गुरु एक-एक बूंद कृपा गिराता है, तो शिष्य के भाग्य की खेती लहराने लगती है। सौभाग्य-धन-वैभव, ऐश्वर्य के फल जीवन में लगने लगते हैं। सदियों से ऐसी ही गुरु शिष्य परम्परा के बल पर मानवता धन्य होती रही है।
भारत को विश्व गुरु का गौरव मिला। हमारी गुरु परम्परा द्वारा अंतःकरण में जगाये देवभाव के सहारे ही अनंतकाल से यह भारत देश व हमारी सनातन संस्कृति के साधक दान, सेवा, त्याग, शांति के साधक बने। स्वयं भूखे-नंगे रहकर भी किसी भूखे पेट को रोटी और नंगे बदन को कपड़ा देने की शक्ति व साहस यदि इस संस्कृति का हर अनुयायी रखता है। जरुरतमंद के लिए सदैव खडे़ रहने, दूसरों की सेवा के लिए अपना हित काट कर भी देते रहने के भाव रखता है, तो इस देवभाव से जोड़े रखने में गुरु ही हमारे सहायक एवं सचेतक रहे हैं।
आज पुनः ऐसी ही गुरु परम्परा की जरूरत है। जिससे हमारे सनातन संस्कृति में विश्व को नई दिशा और दशा देने की सम्पूर्ण क्षमता जगे, समर्थ सद्गुरुओं से मानवता लहलहा उठे। विश्व भर से छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, पिछड़े-विकासशील और अविकसित का भेद मिटे। नियंता के इस सम्पूर्ण मंगल का संकल्प गुरुओं-ऋषयों के सदप्रयास से ही सम्भव होगा। आइये हम सब गुरु पर्व पर ऐसी श्रद्धाभावना अंतःकरण में जगायें, यही युग की आवश्यकता है।
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शत् शत् नमन गुरुदेव
अनंत कोटि धन्यवाद गुरुदेव