तत्कालीन भारत वर्ष धर्म, मान्यताओं, रिवाजों, देवताओं, भगवानों आदि में विखंडित था, चारों ओर एकता का अभाव था। न कोई नीति बची थी, न राज धर्म, नारी से लेकर बडे़-बुजुर्गों, बच्चों तक के प्रति व्यवहार की विसंगतियां देखने को मिल रही थीं। ऐसे काल खण्ड में प्रकट हुई गीता।
वास्तव में श्रीकृष्ण ने इसके माध्यम से खंडित भारत को एकजुट कर अखंडित बनाने का कार्य किया। इस प्रकार यह महाभारत ग्रंथ भारतवंशियों का इतिहास ग्रंथ बनकर सामने आया। पहले इस ग्रंथ का नाम जय ग्रंथ था, तत्पश्चात भारत ग्रंथ पड़ा। आगे इसमें छंद, श्लोक जुड़ते गए, विराट होता गया और यह महाभारत कहलाया। पुराणों के आख्यान भी दर्शाते हैं कि जिस कुरुक्षेत्र की भूमि में यह युद्ध लड़ा गया था, वहां भयंकर जंगल था। अपने साहस और कर्म कौशल के साथ इस जंगल को साफ करके कुरु नाम के राजा ने इसको हरा भरा, सुंदर, खेती करने योग्य बनाया। तत्पश्चात वहां अनेक तरह के यज्ञ हुए। शतपथ ब्राह्मण में भी कुरुक्षेत्र का वर्णन आता है। इसके अनुसार कुरुक्षेत्र की भूमि धर्म भूमि थी, पुराणों में इसे पुण्य भूमि, कर्म भूमि कहा गया। कुरु नाम के राजा का क्षेत्र होने के कारण यह क्षेत्र कुरुक्षेत्र कहलाया।
व्यास ऋषि ने उस काल के घटनाक्रमों को एक नया रूप देते हुए एकेश्वरवाद के आधार पर लोगों को इसे नये ढंग से समझने का अवसर दिया। इसीलिए उस काल का यह इतिहास अनन्तकाल तक के लिए लोगों के जीवन जीने की आवश्यकता बन गया। इसी के सहारे उन्होंने जीवन की अष्टधा प्रकृति भी समझा दिया। तभी तो गीता में अलग-अलग रूपों का दर्शन एकेश्वरवाद में समाता दिखता है। भगवान श्रीकृष्ण कहतेे हैं कि मैं गति हूँ, मैं रुद्र हूँ, मैं पवन भी हूँ, मैं प्र“लाद हूँ, मैं नाग हूँ, साथ ही वे ईश्वर के एक मात्र मूल तत्व को समझाते हुये कहते हैं कि सम्पूर्ण में मैं ही हूँ।
अर्थात सबके हृदय में एकमात्र परमात्मा ही वास करता है। इसी अवस्था में श्री कृष्ण अपने को भगवान के रूप में दर्शाते हैं। वास्तव में भगवान को जिस ईस्ट देव जिस नाम से पूजते हैं, जिनका स्वागत सत्कार, अर्चन-वंदन कर रहे हैं उन सब स्वरूपों में सुनने वाला, तो एक ही है। श्रीमदभगवद गीता इन अलग-अलग देवी-देवताओं, भगवानों में एक ही ईश्वर की प्रतिष्ठा करने पर बल देती है। ऐसी महत्वपूर्ण गीता प्रकट्य होकर युगों के लिए जीवन मूल्य गढ़ गयी।
गीता कहती है कि यदि व्यक्ति को काम, क्रोध नचा रहा हो, वह अपनी मर्जी से न चल पा रहा हो, आदतें खराब हो रही हों तो जिंदगी में दुख उत्पन्न ही होते हैं। इसी में प्रमुख है मद। दुर्योधन मदांध ही तो था। मद अर्थात एक अजूबा सा नशा। व्यक्ति को नशे में रखने वाला, वैसे रूप का नशा, दौलत का नशा, धन का नशा आदि 22 तरह के मदों की स्थितियां हैं। मद मनुष्य को इस स्तर तक पागल बना देता है कि वह कुछ सोच ना पाए। मद से मनुष्य की हालत दुर्योधन जैसी होती है। दुर्योधन साक्षात मद और मत्सर का रूप ही था। बुराइयों का सातवां महारथी है मत्सर। यह खतरनाक होता है। इस प्रकार कह सकते हैं कि ईर्ष्या, कपट, छल, प्रपंच, प्रतिशोध की भावना जब इंसान की जिंदगी को नचाने लगती हैं, तो इंसान के पास कितनी भी बड़ी ताकत हो, फिर उसे असफलता मिलना तय है।
दुर्योधन के पास एक बड़ी सेना थी, लेकिन उस पर काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, मद, मत्सर प्रभावी रहे, इसलिए सबकुछ गवांना पड़ा। इसके विपरीत पांडवों ने इन्हीं 7 चीजों को अपनी ताकत बना ली और उच्चशिखर पर जा बैठे। सच कहें तो अपनी कमियों, ईर्ष्या, कपट, छल, प्रपंच, प्रतिशोध की भावना जैसी बुराइयों से बचने के लिए जीवन में देवत्व-ईश्वरत्व आवश्यक है। श्रीमदभगवद् गीता इसी का जागरण करती है। पांडवों के साथ योगेश्वर श्रीकृष्ण थे, इसलिए उनके पास ये बुराइयां कुछ बिगाड़ नहीं पायीं। एक बार की बात है भीम गुस्से में आग बबूला होकर वन में गदा लिये घूम रहे थे, उन्हें श्रीकृष्ण ने देखा और यह कहते हुए सम्हाला कि ‘‘भीम इस गुस्से को संभाल कर रखो इसकी आवश्यकता पड़ेगी, तब प्रयोग करना।
हर समय क्रोधित रहना मनुष्य की कमजोरी है, इसको तुम अपनी ताकत बनाओ, यह जोश खत्म न करो, जिससे आवश्यकता पड़े तो उपयोग में आ सके, आपको आगे लेकर जा सके।’’ वास्तव में यह जोश ही आदमी को आगे लेकर जाता है। किसी योद्धा, किसी गीतकार, कवि, इंजीनियर के अंदर जोश ही है, जो गिर जाने पर भी व्यक्ति को उठा देता है। जोशीला व्यक्ति तन से टूट सकता है, लेकिन मन से नहीं। जोश ही है जो कहता है कि मैं टूटने वाला, हारने वाला नहीं हूँ। मैं घाव सह सकता हूँ, लेकिन अपने आपको गिरता हुआ, टूटता हुआ नहीं देख सकता। भगवान श्रीकृष्ण ने भीम के अंदर उमड़ रहे क्रोधाग्नि को जोश में बदला और उसका उपयोग करना सिखाया।