‘‘सम्पूर्ण संसार यज्ञीय भावना पर टिका है। संसार अगर जीवित है, तो यज्ञशील लोगों के कारण। यज्ञशील वे जो संवेदनशील हैं, पराई पीड़ा को अपना समझकर दूसरों के दुःख-दर्द दूर करने का बीड़ा उठाए हुए हैं, जिनमें करुणा, सेवा, सहयोग, लोकमंगल, दान, शील, परस्पर स्नेह एवं परोपकारी भाव हैं। जो अपने निवास परिसर के प्रति वैचारिक एवं पर्यावरणीय ढंग से संवेदनशील हैं।
जल, पृथ्वी, आकाश, वायु की पवित्रता बरकरार रखने हेतु दिव्य वनस्पतियों से वातावरण को महकाने हेतु जो प्रतिबद्ध हैं। ऐसे दिव्य लोगों के कारण यह संसार व धरा टिकी है।’’ इस दृष्टि से हमारी प्राचीन गुरुकुल शिक्षा सेवा भी विशेष प्रकार का यज्ञ कार्य है। इससे निकले स्नातकों द्वारा राष्ट्र का चिंतन एवं चरित्र पुष्ट होता रहा है, धरा को पोषण-संवर्धन मिला, नई पीढ़ी में सांस्कृतिक जागरण, सेवा वृत्तियां एवं नव चेतना जन्म लेती रही है।
हमारी प्राचीन देवत्वपूर्ण संस्कृति का प्राकट्य एवं विस्तार के मूल गुरुकुल शिक्षण केन्द्र ही रहे हैं। इसी संस्कृति से मानव में श्रेष्ठ उदात्त संस्कार, उत्तम आचरण एवं मानव जीवन में सर्वांगीण विकास का बीजारोपण सम्भव हुआ है। इस गुरुकुलीय संस्कृति के बल पर मनुष्य में अपने अस्तित्व के प्रति गरिमामय सोच, जीवन के प्रति आत्मगौरव, धार्मिक चेतना, ईश्वरीय आस्था एवं समाज के प्रति श्रेष्ठ कर्त्तव्यों के मापदण्ड गढ़ने में मदद मिली।
राष्ट्रभक्ति, सेवा-परोपकार भाव जैसे अनेक पक्षों का अंतःकरण में जागरण से लेकर उनका लोक परम्परा में नियोजन हुआ। देश को विदेशी शासकों की दासता से मुक्ति में भी यही गुरुकुल क्रांति के आधार बने। वास्तव में गुरुकुल एक प्रकार की समग्र सोच से ओतप्रोत आदर्श जीवन पद्धति देने वाली शिक्षा व्यवस्था थी, जिसमें मनुष्य, पशु-पक्षी, प्राणीमात्र से लेकर पर्यावरण के पोषण-संवर्धन का ख्याल रखा जाता था।
यही नहीं हमारे भारत की प्राचीन गुरुकुलीय शिक्षा व्यवस्था के बल पर ही राज्य व्यवस्था पूर्णतः लोक हितैषी बनी रही, धनपति लोकहित में धन का सृजन एवं नियोजन करते थे तथा राज्य प्रत्येक नागरिक की मूलभूत जरूरते निःशुल्क पूरी करने की जिम्मेदारी निभाते थे। गुरुकुलीय अवधारणा में राज्य द्वारा नागरिकों को अपनी संताने मानकर हर नागरिक के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, आहार, आवास, जल, वायु एवं न्याय प्रमुख रूप से निःशुल्क उपलब्ध कराया जाता था। इसीलिए भारत भूमि की धरा स्वर्ग बनी रही। गुरुकुल का लक्ष्य सहअस्तित्व की प्रतिष्ठा थी। जिसमें मनुष्य से लेकर चींटी, हाथी, वृक्ष-वनस्पतियों के अस्तित्व को प्रतिष्ठित करना भी मूलभाव था।
इस दिव्य लोक हितैषी चिंतन के चलते गुरुकुल व उनके छात्रें, आचार्यों की जिम्मेदारी वहां का समाज वहन करता था। ध्यान रहे सरकार से अनुदान गुरुकुलों को स्वीकार्य नहीं था, इसीलिए राजा व राज्य का इन पर वैचारिक अंकुश व अधिकार नहीं था। विशेष बात यह कि आचार्य मितव्ययी होते थे, वे जीवन एवं प्रकृति के बीच संतुलन के साथ जीवन जीते हुए नई पीढ़ी गढ़ते तथा जीवन को प्रयोगशाला बनाकर अपना आत्म उत्थान करते, उनकी लोकप्रतिष्ठा का
आधार भी यही था। वैसे भी शिक्षा के हाथ समाज का नेतृत्व सदैव से रहा है। ‘‘जैसी शिक्षा वैसी सोच, उसी धारा का समाज सदा से निर्मित होता आया है।’’ क्योंकि आम जनमानस गुरुकुलों को अपना प्रेरक मानते थे। इस दृष्टि से यदि कहें कि आधुनिक सरकारों ने शिक्षा व्यवस्था पर अधिकार स्थापित करके समाज को गरीब, असहाय-परावलम्बी व विकृत बनाया तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। दूसरे शब्दों में कि गुरुकुलों ने सुविधा अवलम्बन में शिक्षा का श्रेष्ठ मानक खो दिया।
आज की शिक्षा पद्धति में मनुष्य के उन सम्पूर्ण मूलभूत जरूरतों तक को नियंत्रित कर दिया गया। हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में प्रवेश करते ही बच्चे को जीवन की इन्हीं मूलभूत जरूरतों पर कैसे अधिकार किया जाय, इसकी नीति व रीति सिखाई जाती है और फिर अपेक्षा की जाती है कि हमारा बालक व विद्यार्थी न्यायप्रिय, सहअस्तित्व वाली सोच व देवत्वगुणों से ओतप्रोत बने, तो यह कैसे सम्भव है? सम्पूर्ण को बाजार मानकर सोचना और बाजार पर अधिकार की मानसिकता वाली शिक्षा प्रणाली समाज में गुलामी को ही तो जन्म देगी। जहां बाजारवादी प्रतिस्पर्धा होगी वहां सब कुछ बिकेगा, वह ईमान ही क्यों न हो। तब हर वर्ग के लिए स्वावलम्बी-हुनरयुक्त जीवनशैली मिलने का प्रश्न कहाँ? ऐसे में व्यक्ति बेरोजगार रहकर परावलम्बी जीवन जिये, तो बाजारवादी शिक्षा वाली सोच को क्या लेना देना। जबकि तब गुरुकुल स्वयं बाजार मुक्त थे, प्रकृतिस्थ जीवन, न्यूनतम में निर्वहन उसकी जीवन पद्धति थी।
यही नहीं गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था विद्यार्थी की स्वाभाविक-सृजनात्मक एवं रचनात्मक क्षमता को विकसित करने को महत्वपूर्ण स्थान देती थी। अतः डिग्री नहीं, अपितु कौशल एवं चरित्र को महत्व था। साथ ही नयी चिंतनधारा को जीवन एवं समाज के बीच प्रयोग स्तर तक लाने हेतु विद्यार्थी-शिक्षक दोनों को स्वतन्त्रता थी। तक्षशिला विश्वविद्यालय में चाणक्य के प्रवेश परीक्षा में उन्हें स्वयं का मत रखने की छूट इसका उदाहरण है। भारत में सदियों तक इसी प्रकार की शिक्षा व्यवस्था के चलते देश का आम जनमानस गरीब व अभावग्रस्त न होकर न्यूनतम में निर्वहन का पक्षधर बना रहा और देश को विश्व गुरु का दर्जा हासिल था।
दूसरा पक्ष कि तब उन्हें सीधे पर्यावरण शिक्षा भले नहीं दी जाती थी, लेकिन प्रकृति एवं पर्यावरण के बीच रहकर शिक्षण मिलने के कारण बच्चों में जैवविविधता को प्रभावशाली बनाये रखने हेतु संवेदनशीलता सहज विकसित होती रहती, जिससे विद्यार्थी अपनी मानवीय प्रकृति और जैव-भौतिक परिवेश के बीच एक तारतम्यता व सम्बद्धता को विकसित कर सके, इस पृथ्वी पर रहने वाले प्राणी व वनस्पतिक जगत के बीच शुद्ध हवा, शुद्ध पानी, शुद्ध आहार आदि के महत्व को समझते हुए परस्पर सह अस्तित्व से पूर्ण सुऽद जीवन का मार्ग प्रशस्त रख सकें। गुरुकुल में यह शिक्षण-प्रशिक्षण जीवन शैली में आंतरिक मानवीय सद्गुणों के विकास के हित में सृजनात्मक नित्य नव प्रयोगों, सामाजिक व्यवस्था में सकारात्मक बदलाव और पर्यावरण संवर्धन-पोषण के लिए जाने जाते थे।
शिक्षा पद्धति जीवन पद्धति का प्रमुऽ आधार गुरुकुल सदैव वनों में स्थित होने के चलते विद्यार्थियों को पर्यावरण से जुड़ने, उनकी महत्ता समझने एवं उनके प्रति संवेदनशील बने रहने का सहज अवसर मिलता था। छान्दोग्योपनिषद्, विष्णुपुराण आदि ग्रंथों में ऐसे गुरुकुलों के वर्णन मिलते ही हैं। कृष्ण तथा बलराम ने स्वयं संदीपनि के गुरुकुल में अध्ययन किया। रामायण में भारद्वाज तथा बाल्मीकि के गुरुकुलों का उल्लेऽ मिलता ही है। बाल्मीकि, कणाव, संदीपनि आदि के आश्रम भी वनों में ही थे। देश में पुनः ऐसे गुरुकुल विकसित हो, यह युग की आवश्यकता है। पूज्यवर के मार्गदर्शन में यह मिशन गुरुकुलों को पुनर्जीवित करने हेतु प्रयत्नशील है। स