भारतीय संस्कृति में गुरु एवं ईश्वर के समक्ष क्षमाप्रार्थना, तीर्थ, सरोवर, नदी तट में स्नान, गुरु व देव दर्शन, व्रत-उपवास, दान-पुण्य करने, पूजा-पाठ आदि से अंतःकरण में पुण्य जगाने जैसी अनेक प्रकार की परम्परायें हमारे देश में प्रचलित हैं, सदियों से लोग उनका लाभ लेते आ रहे हैं। लेकिन अंतःकरण में समाये, जाने-अनजाने किये गये पाप, दुष्कर्म, दुराचार, हिंसा, परपीड़ा, जीव हत्या, दूसरों का बलात धन-शक्ति को हड़पना आदि अनेक पक्ष हैं, जो जीवन भर नासूर की तरह दुःख का अहसास दिलाते रहते हैं। इनसे निजात पाने के लिए हमारी संस्कृति एवं सनातन मान्यताओं में प्रायश्चित का विधान है।
प्रायश्चित का आशय है ‘‘अपनी भूलों-गलतियों को स्वीकार कर तद्नुरूप स्वयं के लिए उसी स्तर का स्वैच्छिक दण्ड निर्धारित कर उसे भुगतना और पूर्व में की गयी इन गलतियों के समान स्तर का सत्कर्म, जप, पुण्यदान, तप, यज्ञ, चाण्द्रायण साधना, गौ सेवा, वृद्ध सेवा, गुरुकुल सेवा आदि करके हिसाब बराबर कर लेना, इससे पाप शांत होते हैं।
अध्यात्मविदों की मान्यता है कि “ जैसे पैर में काटा चुभने, पेट में विषैला पदार्थ पहुंच जाने, ऑंख में कोई तिनका पड़ जाने पर नींद-चैन-शांति सब गायब हो जाती है, ठीक उसी तरह मनुष्य से जाने-अनजाने हो गये दुष्कृत्य व अनौचित्यपूर्ण कर्म भी उसे सुख-सौभाग्य से वंचित करके, आत्मिक प्रगति के मार्ग में बाधा बनते हैं। यहां तक कि व्यक्ति कष्ट-दुःख भोगते हुए विक्षिप्त अवस्था में जीवन जीने को मजबूर होता है। इसीलिए जैसे विष को निकालने के लिए वमन का विधान है, वैसे ही पाप कृत्यों की मलिनता को जीवन से दूर करने के लिए शास्त्रों में प्रायश्चित विधान की व्यवस्था है।य” वास्तव में अपनी भूल पर पछतावा और तद्नुरूप दण्ड व भरपायी स्वीकार करना साहस का विषय है, यहीं से आत्मविकास का नया मार्ग खुलता है। शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक तीनों स्तर पर शांति-संतोष मिलता है और व्यक्तित्व विकास नये ढंग से प्रारम्भ होता है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि “व्यक्ति द्वारा भूतकाल में हुए कुकृत्य जो उसकी जानकारी में नहीं हैं अथवा जानकारी में होने के बावजूद व्यक्ति उन्हें दबा-छिपा लेता है, परन्तु उसके अवचेतन मन में गहरे तक घुसे वे पाप व अनौचित्यपूर्ण कृत्यों के सूक्ष्म संस्कारों का जब तक विविध विधि से विरेचन नहीं हो जाता, तब तक वे उस व्यक्ति के जीवन में उद्विग्नता, उचाट, नित्य के व्यवहार में चिड़चिड़ापन, हीनता, निराशा, कार्य में असफलता आदि से लेकर आत्म प्रताड़ना सहित अनेक शारीरिक, मानसिक रोगों को जन्म देते रहते हैं।”
विशेषज्ञ कहते हैं – ‘‘दुष्कर्मों के दुष्प्रभाव से मन की भीतरी परतों में जटिल मनोवैज्ञानिक ग्रंथियां जन्म लेती हैं। जिससे अनेक जटिल प्रकृति के शारीरिक, मानसिक रोग जन्मते हैं, व्यक्तित्व लड़खड़ा उठता है। अनेक लोगों को तो पापकर्म के चलते जीवनभर कुढ़ता, खीजता देखा जाता है। यदि इससे छुटकारा न मिला, तो ऐसे व्यक्ति को अर्ध विक्षिप्त, अर्ध मृतक, रोगी स्तर का तिरस्कृत जीवन तक बिताना पड़ सकता है।
ये कुकृत्य आदत-अभ्यास एवं स्वभाव का अंग बन जाते हैं, तो एक सीमा के बाद उस व्यक्ति के मन-मस्तिष्क-भावनाओं यहां तक शरीर की नस-नाड़ियों, शारीरिक अंगों में विकृति के रूप में प्रकट होते, आत्मप्रगति से लेकर सामाजिक व रचनात्मक सोच तक जबाब दे जाती है, आत्महीनता जन्म लेती है, लाख प्रयास के बावजूद बनते कार्य विगड़ने लगते हैं। मनःस्थिति बिगड़ने से अपने ही निर्णयों का जीवन पर विपरीत असर पड़ता है। सामाजिक स्तर पर उपेक्षा मिलती है, अंततः ऐसा व्यक्ति अपने को अकेला असहाय अनुभव करता है। इसलिए समय रहते इनका प्रायश्चित तप किसी समर्थ योग्य गुरु आदि के मार्गदर्शन में पूरा करते रहना चाहिए।
इसके निवारण हेतु भारतीय संस्कृति में प्रायश्चित विधान विशेष स्तर का विशेष प्रकार का तप माना गया है। इसमें अपनी गलतियों को स्वीकार करने एवं भविष्य में वह गलतियां न दोहराने का साहस पैदा करने के आयात्मिक तप प्रयोग रूप में होता है। साधक में अपने अंदर सुधार का आश्वासन भी प्रायश्चित से जगता है।
पश्चाताप से अंतःकरण में स्वच्छ, निष्कपट, दुराव रहित मन वाले व्यक्तित्व का निर्माण होता है। व्यक्ति अपने अंदर की अनैतिक ग्रंथियों को खोलकर स्वच्छ, पवित्र, निर्मल मनः स्थिति तैयार करता है, जिससे आत्म उत्थान भरा सुविकसित जीवन जिया जा सके। यद्यपि इस प्रायश्चित विधान के लिए अनेक धर्मग्रंथ भरे पडे़ है, लेकिन गुरुओं, गुरु आश्रमों, गुरु निर्धारित विधानों की भूमिका इसमें सदा से महत्वपूर्ण रही है। समर्थ सद्गुरु गुरु के धार्मिक, सेवापरक संकल्पों, चाण्द्रायण तप, यज्ञ, दान, वैचारिक विधि से अंतःकरण की गहराई में उतरकर निराकरण का मार्ग दिखाते और उसे उस दल दल से निकालते हैं। पूज्य सद्गुरुदेव अपनों के आत्मउत्थान एवं भौतिक सुख-समृद्धि के संकल्प से प्रतिवर्ष चाण्द्रायण तप-अनुष्ठान, साधना-जप-यज्ञ आदि का विधान इसी उद्देश्य से तो पूरा करते हैं। यह विधान अपनायें, सम्भावित दुःख-कष्ट से बचें। जीवन का नवनिर्माण करें।