कहीं तेज आवाज में संगीत (Loud Music Dispute) बजा रहे व्यक्ति को एक पड़ोसी गोली मार देता है, किसी स्थान पर भीड लोगों का सामान तोड़ डालती है, किसी के भाषण को सुनकर लोग पागलों के जैसा लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार करने लगते हैं, वहीं टीवी चैनलों पर बहस देखकर अक्सर लोग सही को सही और गलत को गलत कहने की शक्ति गंवा बैठते हैं। यहां तक कि पक्षधर बनकर अपने परिवारी जनों से ही मन मुटाव पैदा कर लेते हैं। कहीं सड़क पर चलते वाहनों के बीच परस्पर हल्की सी खरोच लगते ही एक व्यक्ति दूसरे को पीट-पीट कर अधमरा कर देता है। ऐसे ही अनेक प्रकार के अपराध समाज के लगभग हर कोने में प्रतिदिन देखने को मिल रहे हैं।
इस बदलते स्वभाव के संदर्भ में विशेषज्ञ कहते हैं ‘‘वास्तव में समाज अब शरीर के दायरे को पार करके तेजी से मन की अवस्था में प्रवेश कर रहा है, इसलिए आज घर-परिवार के बीच से लेकर घर के बाहर समाज, बाजार से लेकर सड़क तक घटने वाली घटनाओं, लोगों के जीवन से जुड़ी समस्याओं के पीछे छिपे कारकों को भी हमें मनोविज्ञान के सहारे तलाशने और अध्यात्म के सहारे उनके समाधान के अवसर खोजने होंगे। हमारी प्रशासनिक व्यवस्था, पुलिस कानून व्यवस्था के नाम पर एक दूसरे पर कानूनी कार्यवाही करके इतिश्री भले कर लेता है, लोकतंत्र का चौथे स्तम्भ मीडिया घटनाओं की संख्या गिनकर लोगों के सामने परोसकर अपना पल्लू झाड़ लेता है। हमारे राजनेता इन घटनाओं को अपने वोट के चस्में से निरख अपने भाग्य को सराहकर आनन्दित हो लेते हैं। इन सबके बावजूद समस्यायें जो जहां थीं, वहीं पड़ी रह जाती हैं।
वास्तव में मनुष्यता की जगह लोगों में हो रहे पशुओं की मनोवृत्ति वाले बदलावों से आज समाज चिंतित है। क्योंकि इससे केवल वही प्रभावित नहीं हो रहे, जो इन गतिविधियों में शामिल हैं, अपितु वह वर्ग कहीं अधिक प्रभावित होकर सहमता नजर आता है, जो शांत प्रिय, मेहनती और देश के संवैधानिक एवं मानवीय आचरण का पालन करता है। ऐसे में समाज में इस तरह भय पूर्ण हिंसक वातावरण बनाने के पीछे काम कर रहे लोक मनोविज्ञान पर शोध करके निकले निष्कर्षों के आधार पर समाज के बीच इन संदर्भो में मानक तय करने की आज सबसे बड़ी जरूरत है।
यदि जीवन से जुड़े इन बुनियादी पक्षों को संवेदनशील एवं मानकीय बनाने की दिशा में कार्य न किया गया, तो यह छूत की बीमारी एक दिन सम्पूर्ण मानवता को निगल सकती है। फिर हमारे नुमाइंदे जो चांद-मंगल ग्रह पर दुनिया बसाने की कल्पना में अपने वैज्ञानिकों को लगा रखे हैं, वह व्यर्थ ही कहा जायेगा। परमात्मा की ओर से मिली इस सुंदर धरती को हम एक तरफ ओछे स्वार्थ बस गंदला करें और दूसरी ओर जनमानस को चांद मंगल, सूर्य की यात्र का ख्वाब दिखाये, तो इसे युग का बौराया पन ही तो कहेंगे। वास्तव में इन सबके आमूलचूल समाधान के लिए हमें लोगों के मनोंभावो में हो रहे आमूलचूल बदलावों और इससे प्रभावित होते मस्तिष्क पर संजीदगी से कार्य करने की जरूरत है।
घटना होने के बाद कानून के सहारे किसी को जेल पहुंचा देने, किसी पर मुकदमा कायम करने की परम्परायें सदियों पुरानी हो चुकी हैं। ये उस आदिम युग की हैं, जब सामान्यतः व्यक्ति शरीर के दायरे में जीवन जीता था और शरीर को पोषित करने वाली वस्तुओं जैसे भूख मिटाने के लिए रोटी, तन ढकने के लिए कपड़ा और परिवार के साथ जीवन बिताने के लिए एक छत पाकर अपने को संतुष्ट अनुभव करता था। उसके सामने वस्तुओं की बराइटियां विचारों-भावों की विविधतायें कोई मायने नहीं रखती थीं। तब किसी व्यक्ति द्वारा किया जा रहा कोई कृत्य दूसरे व्यक्ति के मन को न्यूनतम प्रभावित करता था। जबकि आज व्यक्ति उन दायरों को पार कर चुका है, ऐसे में हमें अपने मानकों के साथ मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने की दिशा में आध्यात्मिक मनोविज्ञान का पूर्ण सदुपयोग करते हुए कार्य करने की जरूरत है।
जब देवों की मूर्ति पर तर्क नहीं था, पौराणिक दृष्टांतों को लोग सत्य मानते थे, पुरोहितों की वाणी और आचरण को ईश्वरीय मानने की परम्परा थी, पुरोहित भी अपने शारीरिक मानकों के अनुरूप समाज हित में जीवन को आचरण स्तर पर संतोष पूर्ण निर्वहन करता था, तब अपराध एवं कानून, न्याय की प्रचलित परम्परायें काम आ जाती थीं। पर आज स्थितियां बदल चुकी हैं। आज प्रबंधन के मायने, धर्म के मायने बदल रहे हैं, आज नयी पीढ़ी का हर व्यक्ति उपदेश के दायरे से आगे बढ़कर लोगों के आचरणों में प्रवेश कर रहा है, वह स्वयं को पारदर्शी बनाये रखने के लिए दूसरों के जीवन में पारदर्शिता, पवित्रता की चाहत रखता है।
ऐसे में जब वह हर जगह खोखला पन पाता है, तो फ्रेस्टेट होता है, उसमें लोगों व समाज के प्रति झुझलाहट आती है, स्वयं गलत होते हुए भी उसे स्वीकार नहीं कर पाता। ऐसी नई पीढ़ी यदि सम्हाली न गयी तो वह समाज के बनाये गये जीर्ण मानकों पर चलने से इंकार करेगी ही, और कर भी रही है। ऐसे में किसके अंदर से उबलते मन का गुबार कब फूट पडे़ कहना मुश्किल है। इससे स्वतः स्पष्ट है कि व्यक्ति के अंतःकरण में आदर्शों के प्रति बदलाव भाव लाने के लिए हमें उसे अपने श्रेष्ठ आचरण व आदर्श-चरित्र के समूहों के सहारे नया वातावरण देने की जरूरत है। तब नई पीढ़ी अपराधों की दुनियां से मुक्त होकर आदर्श की दिशा में नये मानक गढ़ सकेगी।
वैसे भी अपराधों की दुनियां में इन दिनों आयी बाढ़ में केवल धन, विलासिता व उपयोग के साधन ही आधार नहीं हैं, अपितु अपराध ने व्यक्ति की मानसिकता में घर बना लिया है। इसे हृदयहीनता, संवेदनहीनता, आदर्श हीनता, आचरण हीनता से उपजी मानसिकता के प्रति विद्रोह कह सकते हैं। अपराध की भाषा आज शारीरिक सुख तब भी न होकर, मानसिक व भवनाओं में बदल गयी है। पहले अपराध होते थे, लेकिन किसी पक्ष की जान जोखिम में न पडे़, यह ख्याल अपराधियों को भी रहता था, जबकि आज हर छोटी से छोटी परिस्थिति में जान पर बन आती है। इससे भी दुखद पक्ष है कि जिनके ऊपर अपराध रोकने का दायित्व है, वे स्वयं अपराधियों के पाले में खडे़ दिखते हैं।
‘‘जब अपराध को अंतःकरण जीवन की सहज आवश्यकता मानकर स्वीकार करने लगे, ऐसे में शारीरिक दण्ड, परम्परागत सदियों पूर्व बने कानूनों व स्थूल प्रयासों के सहारे इसे समाप्त कैसे किया जा सकता है? इसके लिए हमें लोगों के मनः अवस्था पर काम करना होगा और उसी स्तर के मानकीय नियम-कानून का सहारा लेना होगा, जिससे कानून व न्याय अपराधी में भय जगाने तक सीमित न रहे, अपितु इसके सहारे जनमानस के चिंतन में आदर्श भी स्थापित किया जा सके।’’
मनोवैज्ञानिकों को अपने शोध की दिशा को व्यक्तित्व निर्माण की ओर मोड़ना पडे़गा। सच है कि यह कार्य हमारा धर्मतंत्र सदियों पूर्व से सम्हालता आ रहा था, लेकिन उसमें भी मन एवं भाव अवस्था पर आज कम कार्य होता नजर आ रहा है। परिणामतः हमारा धर्मतंत्र भी केवल बाने, पहनावे, दिखावे, आडम्बर का शिकार होता जा रहा है। हर धार्मिक तंत्र अपनी संख्या बढ़ाने एवं गिनाने में लगा है। आचरण एवं आत्मा स्तर पर कार्य करने का लक्ष्य उसका थमता सा दिख रहा है। इस स्थिति में नव धर्माचार्यों एवं करुणहृदयी सतों, मनोवैज्ञानिकों का ही सहारा दिखता है जो अपने नये प्रयोगों के सहारे समाज को ऐसा वातावरण दें कि नयी पीढ़ी में चिंतन-चरित्र, आचरण की संवेदनशीलता स्थापित हो सके।