सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड मानव शरीर जैसा ही है, जैसे शरीर के साथ अतिवाद बरतने पर शरीर शारीरिक-मानसिक रोगों के रूप में अपना क्षोभ प्रकट करता है, फिर उसका उपचार करना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार सम्पूर्ण प्रकृति के साथ दुराचार होने, प्रकृति के जल, वायु, मिट्टी, ऊर्जा संसाधन, पर्यावरण आदि प्रदूषित करने, प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने से प्रकृति भी अपना उपचार तो करेगी ही। वह उपचार भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि से लेकर अनेक घातक रोग-महामारियों के रूप में सामने आते हैं। आज का ‘कोराना संकट’ इसी अतिवादिता का परिणाम ही तो है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि प्रत्येक सभ्यता के पीछे एक जीवन दर्शन अवश्य काम करता है। उसी आधार पर उस सभ्यता के पक्षधर अपना रहन-सहन, व्यवहार, खान-पान संसाधनों का प्रयोग, उपयोग आदि करते हैं। जीवन दर्शन विकृत है, तो प्रकृति विक्षुब्ध होगी ही। ‘‘वर्तमान का वैश्विक संकट भी ‘जीवन दर्शन’ जीवन मान्यता का ही परिणाम है। जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप प्रकृति अब अपना स्वयं उपचार करने पर विवश है। अभी तो कोरोना एक अकेला संकट सामने है, यदि सही सोच, सही जीवन शैली की दिशा में कदम न उठा तो मानव नामक प्राणी को और भी अनेक संकटों का सामना करना पड़ सकता है। अतः पूर्ण समाधान के लिए जरूरत है भारतीय ऋषियों पर आधारित प्रकृति अनुकूल जीवन दर्शन को व्यवहार में लाने की, जो शाश्वत मूल्यों-सिद्धांतों पर टिका है। भारतीय जीवन दर्शन में उतरना ही युग का समाधान है।’’
स्वाद एवं प्रदर्शन आधारित जीवनः
पाश्चात्य ‘जीवन दर्शन’ जीवन को मात्र एक जिंदगी की यात्रा मानकर चलता है। इसीलिए पाश्चात्य भोगवादी मान्यता के लोग मिली हुई वर्तमान जिन्दगी को अधिक से अधिक भोग लेना चाहते हैं। इस मान्यता पर जीवन जीने वाले व्यक्तियों की स्वास्थ्य नीतियां, वैज्ञानिक नीतियां, संसाधनों की उपयोग पद्धति, पारिवारिक सम्बंध, रहन-सहन, शिक्षा नीतियां, राजनीतिक निर्णय, संगीत-साहित्यिक चेतना, विविध निर्माण पद्धतियां यहां तक कि सरकारों का संचालन, धार्मिक रीति-नीति, रीति-रिवाज, परम्परायें, रस्म आदि सबका लक्ष्य यही होता है कि नागरिकों को मिले हुए इस वर्तमान जीवन को बेहतर सुख-सुविधा से भरपूर बनाने हेतु प्रकृति के संसाधनों का दोहन अधिक से अधिक कैसे करें। इस प्रकार सम्पूर्ण जीवन ‘स्वाद एवं प्रदर्शन’ पर आकर टिक गया है ।’’
सम्पूर्ण विश्व में अनैतिकता-अनास्था का ताण्डव इसी ने खड़ा किया। इन मान्यता वालों ने माना कि जब शरीर तक ही जीवन है, तो क्यों न येन केन प्रकारेण सब कुछ हड़प लिया जाये। प्रकृति का अंधा दोहन किया जाये। आज लोगों के मनों में छाया अनाचार, अत्याचार, शोषण, पाप, अतिसंग्रह, वैभव, विलास, हड़प संस्कृति जैसी विकृतियां इसी पदार्थपरक दृष्टि ने स्थापित की हैं। अपहरण, आतंकवाद, अतिवादिता, कट्टरता, नर-नारी के प्रति घोर वस्तुपरक वासना दृष्टि, असम्मान, जातिगत द्वेष, परस्पर अहमन्यता, पारिवारिक विखराव, जीव हत्या, भ्रष्टाचार, शोषण से लेकर अनेक कुकृत्य इसी भोगवादी जीवनदर्शन का परिणाम हैं। इससे मुक्ति के लिए हमें भोग को महत्वहीन मानना होगा। प्रकृति का दोहन करने, जीव-जन्तुओं पर अपने सुख-स्वाद, फैशन-प्रदर्शन के लिए अत्याचार करने के भाव को तिलांजलि देनी होगी।
जबकि कर्मफल सिद्धांत और पुनर्जन्म पर आधारित भारतीय सनातन दर्शन भारतीय चेतना की गहराई से निकलने वाला ऐसा शाश्वत जीवन प्रवाह है, जो वर्तमान जीवन को केवल मृत्यु होने तक ही नहीं देखता, अपितु इस जीवन के बाद भी जीवन यात्रा जारी रहने की संकल्पना पर विश्वास करता है और उसी अनुरूप जीवन नीतियां तैयार करता है।
भारतीय सनातन मान्यता में ‘फिर मिलेंगे’ सूत्र जैसा आत्म तत्व पर अवलम्बित जीवन काम करता है। इस ईशावाष्योपनिषद का सूत्र ‘‘अंधंतमः प्रविशन्ति ये के चात्महनोजनाः’’ विश्वास के साथ प्रत्येक क्रिया कलाप में कर्म व कर्मफल का सिद्धांत जोड़कर जीवन जीने का विधान है।
ईसाई धर्म के विद्वान जोजेफस भी लिखते हैं कि ‘‘रूहें सब शुद्ध होती हैं, अच्छे मनुष्यों की आत्मायें फिर से अच्छे शरीर में जाती हैं, जबकि दुष्कर्मियों की रूहें सजा भुगतती हैं और थोड़े समय बाद फिर नया जन्म लेने के लिए भेजी जाती हैं। इसमें भी पुनर्जन्म का ही संदेश है। पर इसमें आत्म परिष्कार भाव न होकर, लगता है कि दण्ड देने के लिए कोई फैक्ट्री जैसी व्यवस्था है, जहां जाकर व्यक्ति धुलकर फिर मनुष्य बनता है। अर्थात् मनुष्य को अन्य जीव-जन्तुओं व प्रकृतिगत संसाधनों के साथ मनचाहा व्यवहार करने की छूट यह जीवनदर्शन देता दिखता है। पश्चात दार्शनिकों में ऐसे अनेक की पुनर्जन्म में आस्था थी। पर कर्म फल सिद्धांत पर वे मौन ही थे। यही कारण है कि वहां सम्पूर्ण प्रकृति को भोगने के लिए मनुष्य के अधीन कर दिया गया। जबकि भारतीय मान्यता के कारण व्यक्ति स्व अनुशासित रहने को प्रतिबद्ध है।
शाश्वतबोध प्रकृतिबोध युगधर्म:
जीवन को प्रमाणिकता, वैर रहित होकर जीने, जवाब देही के साथ जीने, मनुष्य ही नहीं, जीव-जन्तुओं, वृक्ष-वनस्पतियों के साथ संवेदनशीलता भरे व्यवहार को विकसित करना ही युगधर्म है। भारतीय सनातन दर्शन हमें इसी भाव से जोड़ता है। इसमें प्रत्येक वर्ग, जाति, धर्म के व्यक्तियों, अन्य योनियों के प्रति इसलिए सद्भावनायें हैं कि न जाने कब अगला जन्म किस धर्म व किस वर्ग-जाति व योनि में मिल जाये। इसीलिए मनुष्य के इतर अन्य जीव, वनस्पतियों के प्रति भी सम्मान व्यक्त करने को इस मान्यता का प्रत्येक व्यक्ति स्वप्रेरित रहता है। पुनर्जन्म में देश, काल, परिस्थितियों का बंधन बाधक भी नहीं है। इसलिए देश-काल के प्रति भी उसमें वैर नहीं रहता।
इसीलिए हमें अपने ऋषियों एवं भारतीय सनातन परम्परा के वाहक जैमिनी, दधीचि, कणाद, वशिष्ट, आदिगुरु शंकराचार्य से लेकर ठाकुर रामकृष्ण परमहंस आदि इस धारणा के अनुरूप कि वर्तमान जन्म में अर्जित की गयी, आंतरिक योग्यता व सुकर्मों का लाभ अगले जन्म में भी मिलता है, इस संकल्पना से जीवन जीने की आज जरूरत है। ऐसे जीवन दर्शन वाले व्यक्ति की बायलोजिकल प्रणाली सामान्य रहती है, परन्तु मन, बुद्धि व अंतःकरण का आंतरिक स्तर निरंतर विकसित होता जाता है और वह नैतिक, परोपकारी, सदाशयी, पुरुषार्थी, सेवाभावी बने रहकर व्यक्तिगत आदर्शवादिता एवं सामाजिक सुव्यवस्था में मददगार होकर जीवन जीता है।