ऋग्वेद का यह मंत्र ‘‘अग्निना रयिमश्नवत पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम्।।’’ हमें संदेश देता है कि हम ईश्वर के बनाए नियमों से ही धन कमाएं। अनुचित रीति से कमाया धन हम से दूर रहे अर्थात् धर्म से कमायें और धर्म व दान में खर्च करें।
इस प्रकार वेद मनुष्य को लोभ से परे रहने का उपदेश देता है। इस लोभ के अनेक रूप हैं। अपने स्वास्थ्य का नाश करके धन प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते रहना भी लोभ है। परिवार व बच्चों की उपेक्षा करते हुए धन कमाने में लगे रहना भी लोभ है। धोखा देकर, चोरी, घूसखोरी, करचोरी, भ्रष्टाचार आदि से धन कमाना भी लोभ है। दहेज प्रथा भी लोभ का ही एक रूप है। धन कमाने के ये सारे तरीके बेइमानी वाले हैं और हमारी आत्मा को पतित करते हैं। मनुष्य इन्हीं के लोभ-लालच में पड़कर सर्वत्र निंदनीय बनता है।
यह सच है कि इस संसार में सर्वत्र अर्थ की प्रधानता है। जीवन में प्रत्येक कार्य के लिए धन आवश्यक है। छोटा काम हो या बड़ा, धर्म हो या राजनीति, साधना हो या अनुष्ठान सभी के लिए धन की आवश्यकता होती है। अतएव हमारे वेदों से लेकर ऋषियों तक ने धन संग्रह को भी एक आवश्यक कर्तव्य बताया है, पर सद्पुरुषार्थ से ही अधिकाधिक धन कमाने की सराहना है। इससे ऐश्वर्य और श्रीवृद्धि का वरदान मिलता है। श्रीवृद्धि और सौभाग्य के लिए ज्ञान और दक्षता आवश्यक गुण हैं। दक्षता किसी विशिष्ट कार्य में अनुभवजन्य कुशलता को कहते हैं। यह कुशलता ही समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करती है। मनुष्य जीवन में ईश्वर के बाद चरित्र और फिर धन का महत्वपूर्ण स्थान है।
पर मनुष्य की धन से कभी तृप्ति नहीं होती। यह एक बहुत बड़ा विकार है। लोभ मनुष्य की बुद्धि को अज्ञानरूपी अंधकार से ढांप देता है। उसकी बुद्धि अज्ञान से ढक जाती है, तो वह अमानवीय कर्म करने में भी किसी प्रकार की लज्जा अनुभव नहीं करता। निर्लज्ज बनकर वह अपने धर्म की हानि कर लेता है। इस प्रकार वह धन, धर्म और सुख तीनों को नष्ट कर देता है। अनीतिपूर्वक कमाया हुआ धन मन को अशांत और बेचैन रखता है, ऐसे घर और परिवार बुरे कार्यों में फंसकर बरबाद हो जाते हैं तथा मनुष्यता का नैतिक पतन होता ही है।
इसीलिए हमारे वेद निर्देशित करते हैं कि मनुष्य को धर्मानुसार आचरण करते हुए ही पुरुषार्थ करके अधिक से अधिक धन कमाने का प्रयास करना चाहिए। जो धन पवित्र होता है, वह सुख, शांति व संतोष प्रदान करता है। मनुष्य ऐसे धन को स्वयं अपनी आवश्यक आवश्यकता पूर्ति के पश्चात् शेष को समाज के उत्थान में व्यय करके आनंदित होता है। जन सामान्य का उस धन से उत्कर्ष होते देखकर वह मन ही मन प्रफुल्लित भी होता है। यही पवित्र धन लोगों में सात्विकता का विकास करता है तथा सबको सत्याचरण में प्रेरित करता है।
इस प्रकार ईमानदारी की कमाई ही शुभ फलदायक होती है और इस कमाई से किया हुआ ‘दान’ सर्व पुण्यकारी साबित होता है।
2 Comments
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Thanks Guruji Pranam
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