ज्ञान-विज्ञान गुरुमुख होने पर ही जीवन में फलित होता है। ब्रह्मज्ञानी गुरुओं के मुखारविन्द से ज्ञान की यह अजस्त्र धारा अनन्त काल से प्रवाहित होती आ रही है। क्योंकि ज्ञान का आदि स्त्रोत्र स्वयं परमब्रह्म परमेश्वर है। गुरु उस परमात्मा का चयनित भेजा गया प्रतिनिधि है और वह प्रभु की अनन्त ज्ञान रश्मियों से ओतप्रोत है, जो धरती पर अज्ञानता के तमस का तिरोभाव करने आया है।
अज्ञानरूपी अंधेरे का वजूद भी तब तक है, जबतक सद्ज्ञान का सवेरा न हो। गुरु ज्ञानरूपी सूर्य ही तो है। जब वह किरणें शिष्य के अन्तःकरण पर पड़ती हैं, तो विकार, वासना और अज्ञान का अंधेरा स्वयं भाग जाता है। क्योंकि अज्ञानरूपी अंधकार और सद्ज्ञानरूपी प्रकाश का सहअस्तित्व कहां असंभव है। इसी अवस्था में शिष्य में ब्रह्म ज्ञान उदय होता है।
ब्रह्मज्ञान दुनिया की वह दौलत है जिसे पाने के बाद मनुष्य के जीवन में सुख और शान्ति आती है। जो सिद्धों और गुरुओं से ही प्राप्त होता है। इसीलिए जीवन में जितने भी सम्बन्ध हैं, उन सम्बन्धों में सबसे महान, पवित्र और सच्चा सम्बन्ध सद्गुरु का माना गया है। सद्गुरु के द्वारा ही शिष्य के हृदय में सद्ज्ञान का प्रकाश होता है।
यही तो गुरु गीता कहती है-
गुकारः प्रथमो वर्णो मायादि गुण भासकः।
रुकारो द्वितीयो ब्रह्म माया भ्रान्ति विनाशकृत्।।
अर्थात् प्रथम वर्ण गुकार माया (प्रकृति) के गुणों का सम्बन्ध भौतिक ज्ञान से है, जबकि दूसरे रुकार का सम्बन्ध आध्यात्मिक और आत्मा से है। रुकार के माध्यम से सद्गुरु अपने शिष्य को सद्ज्ञान देता है और उसको आत्मबोध एवं ब्रह्मबोध कराता है। वास्तव में अन्धकार को प्रकाश में बदलने का, असत्य से सत्य की राह दिखाने का और मृत्युरूपी दुःख से बचाकर अमृत से जोड़ने का कार्य सद्गुरु ही करता है। अतः गुरु सत्यस्वरूप है।
अगर सद्गुरु की कृपा से ज्ञान का दीप हृदय में प्रदीप्त हो गया, तो सम्पूर्ण कष्ट, क्लेश दूर हो जाएंगे, अंधेरा स्वयं भाग जाएगा। वैसे भी अज्ञान का अंधेरा कोई कूड़ा-करकट नहीं है कि उठाकर बाहर फेंक दिया जाए। क्योंकि अंधेरा का अपना कुछ भी अस्तित्व नहीं है, प्रकाश का अभाव ही अंधेरा है। अगर ज्ञान रूपी प्रकाश जग गया, तो अज्ञान के अंधेरे का अस्तित्व समाप्त हो ही जाएगा। तब वैर, कष्ट, क्लेश, दुःख, पीड़ा सभी मिट जाएंगे। अज्ञान मिटेगा तो भक्ति भी जागेगी और जीवन ऊंचाइयों की ओर बढ़ेगा। यही ज्ञान सिद्धि की ओर भी ले जाता है। जीवन में दिव्यता लाता है। गुरु प्रेरित इस ज्ञान के प्रभाव से व्यक्ति साधारण इंसान नहीं रह जाता। तब वह अपने जीवन को दिव्य गुणों से सजाने का मार्ग खोज लेता है।
पेट भरना और परिवार की समस्याओं को दूर करने में लगे रहना साधारण-सी बात है। वेद कहते हैं अपने को मजबूत बनाकर चलो। अपनी महिमा, विशालता, उदारता को समझो, क्योंकि तुम्हें खुद ही दिव्य ज्ञान से स्वयं का निर्माण करना होगा। इस आधार पर अपनी संकल्प शक्ति पर विचार करें, उसे दृढ़ करें और अपने अनुशासन को जगायें। इस दिशा में बढ़ने के लिए मन, बुद्धि, इन्द्रियां सब अपनी-अपनी बात मुझसे कर रही हैं या नहीं यह चिंतन करें। इस प्रकार जब अपने-आप पर शासन करना आयेगा, तब दूसरों पर भी शासन कर लेंगे। अगर खुद पर नियन्त्रण नहीं कर पाये, इंद्रियों के प्रवाह में खिचते रहे तो जगत् की हर वस्तु तुम्हारे नियन्त्रण के परे होगी।
पर भगवान की इस राह पर चलने के लिए सरलता अनिवार्य है। भगवान को सरलता पसन्द है। ज्ञानी तो हम बन सकते हैं, पर सरलता गुरु कृपा बिना असम्भव है। हमें सरल ज्ञानी बनाने की शक्ति गुरु ही रखता है। वह हमें तप द्वारा सरल करता है। सरल ज्ञान के साथ-साथ अंतः में मासूमियत, भोलापन, स्फूर्ति और उल्लास भरा स्वभाव जगता है। बनावट से मुक्ति मिलती है।
बुद्ध ने अपने को बनावट मुक्त ही तो किया। अपने निज स्वभाव जैसा वेश धारण किया। विवेकानन्द ने भी अपने स्वरूप को जगाया। संत कहते हैं ‘‘बड़ा बनने के लिए गुरुज्ञान की आवश्यकता होती है। गुरुओं की प्रेरणा लेकर चलेंगे, तो दिव्य विराट होेगे ही। गुरु कृपा से भीतर की ज्ञान अग्नि विद्या जागृत होती है, तब अग्नि दृष्टि बनती है। फिर वैराग्य का जन्म होता है। तब वस्तुएं अनायास बारी-बारी से छूटने लग जाती हैं। इस मनःस्थिति में ब्रह्म कमल कीचड़ से ऊपर उठकर तालाब के ऊपरी भाग में स्थिर हो जाता है। फिर जैसे पानी की बूंदें कमल के पत्तों पर मोती के समान शोभित होती हैं। वैसे ही गुरु कृपा से बना ज्ञानी व्यक्ति मन में त्याग की स्थिति बनाकर संसार के वैभव को देखता है। वह भी हर प्रकार के अटैचमेंट व डिटैचमेंट से मुक्त होकर।’’
जैसे सूर्य संसार की हर वस्तु पर अपनी किरणें सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों पर समान रूप से फेंकता है, लेकिन सूर्य की किरणें कभी अपवित्र नहीं होती। इसी तरह संसार में गुरु है। पूज्य श्री सुधांशु जी महाराज कहते हैं ‘‘गुरु ज्ञान का अमृत कभी अपूर्ण अपवित्र नहीं होता। शिष्य-साधक के अंदर सुप्त पड़े हर अमृत कण को सद्गुरु अपनी कृपा दृष्टि से प्रकट करके उसे भी निर्लिप्त कर देता है। है। यह प्राकट्य ही ब्रह्मकमल का जागरण है, मोक्ष धारा है। मोक्ष के पथ पर चलने वाला हर मनुष्य संसार के पदार्थों से अनासक्त हो श्रद्धा और ज्ञान दोनों के साथ सहज सामंजस्य बैठा लेता है। इस प्रकार जीवन की सच्चाई प्रकट होती है। तब पढ़ना-लिखना, सुनना-सुनाना, मनन करना, आचरण करना, प्रयोग में लाना, सब सहज हो जाता है। आइये! गुरुकृपा के सहारे ब्रह्मकमल जगायें।