नारी हमें अपने संस्कारों के बल पर अपने हाथ से कहीं न कहीं कुछ दान करने, अंदर की सहन शक्ति को बढ़ाने, घरों में लोगों को एक दूसरे को मिलाने, जोड़ने की आदत डलवाती है। एक राजा ने अपने मंत्री से पूछा 20 लोगों का एक परिवार है, वे सब लोग एक साथ इकट्ठे बैठ जाते हैं और खुश रहते हैं, उनके खुश रहने का कारण क्या है? मंत्री बोले, राजन् आप हमारी दादी जी से मिलिये।
राजा उनकी दादी जी से मिलने गया, तो देखा वह 80 लोगों के परिवार में सुख-शांतिपूर्ण रह रही हैं। यह देखकर वह आश्चर्यभाव से सबके खुश रहने का कारण पूछा। दादी ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया कि इसका कारण ‘माँ’ है। हमारा मातृत्व भाव है। हाँ माँ। माँ अर्थात् नारी में समाहित करुणा, प्रेम, दया एवं धैर्य भाव। नारी के प्रति श्रद्धा-सम्मान भाव। जीवन में नारीत्व के गुण करुणा, ममता, वात्सल्य, संवेदना, सहनशीलता, परस्पर प्रेम, शालीनता के ये गुण जहां होंगे, समाज-संस्कृति का उत्थान सुनिश्चित सम्भव है।
माँ के सान्निध्य से व्यक्ति की आंतरिक शक्ति बढ़ती है। परमात्मा से जुड़ जाना सम्भव होता है। जब उससे जुड़ेगा तो अपना भी उद्धार और दुनिया का भी उद्धार कर लेगा। फिर वह प्रगति करेगा लेकिन अहम रहित। माँ का एक रूप है भक्ति मैं देखता हूं, जैसे-जैसे व्यक्ति ऊपर बढ़ता, उसे सम्मान मिलना शुरू होता है, तब ही वह प्रगति रोक बैठता है, भक्ति रोक बैठता है, अहंकार में आ जाता है और उसके अंदर की यात्र, दर्शन की यात्र रुक जाती है। दर्शन की यात्र प्रदर्शन की यात्र बन जाती है। वह वासना की यात्र में उतर जाता है। इस प्रकार व्यक्ति की जिंदगी से प्रकाश चला जाता है। फिर भक्ति उपासना जाती है और चिन्ता, व्यथा आती है। भक्ति भी ‘माँ’ ही तो है।
भक्ति की ओर रुचि लगे, रस आने लगे, हम भक्ति के आसन पर बैठने लगें। यह भाव माँ के आशीर्वाद व माँ के संस्कार से ही सम्भव है। माँ ही ईश्वर से जोड़ती है, गुरु से मिलाती है। इसीलिए नारी को भारतीय संस्कृति में देवी स्वरूप स्थान प्राप्त है। उसमें धैर्य है, करुणा है। अपनाने का साहस है। त्यागने का जज्बा है। देखा होगा अपने घर में कि सभी लोगों को खिलाने के बाद ही माँ खाती है।
व्यंजन कितना भी स्वादिष्ट क्यों न हो, पर उसे खाने से पहले खिलाने में संतुष्टि मिलती है। तभी तो कहा गया है कि ‘‘यस्य नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता।’’ उसके इस त्याग-धैर्य के कारण ही सभी देवताओं के नाम के पहले उसकी श्री शक्ति अर्थात नारी चेतना प्रतिष्ठित की जाती है। जैसे सीता राम, राधे कृष्ण, भवानी शंकर आदि। तभी तो कहा गया कि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं-
‘‘जननी जन्म भूमिस्च स्वर्गादपि गरीयशीः।’’
प्यारा शब्द है माँ, जिसे पुकारते ही याद आती है वह गोद जिस में विश्राम, आराम, शांति-प्रेम-करुणा सभी मिलते है। माँ जीवित हो या अपनी जीवन यात्र पूरी करके परलोक सिधार चुकी हो, माँ का भोला चेहरा, उनके साथ बिताये बचपन के दिन जीवन जीने की प्रेरणा शक्ति देते हैं। याद आता है कि बचपन में जब कभी हम गिरे, तो माँ अपना सारा काम छोड़ कर दौड़ती और अपनी बाहों में थाम लेती।
बदले में माँ न कभी हमारे मुंह से धन्यवाद शब्द सुनना चाहती और न ही कभी वह अहसान जताती कि मैंने तुम्हारे लिए बहुत किया। एक सांसारिक माँ में हमें विश्वमाता की ही अनुभूति तो होती है। विश्व माँ तो पूरे विश्व की है। वह ब्रह्मा की कलम माँ सरस्वती, विष्णु की समृद्धि माँ लक्ष्मी, शिव की शक्ति माँ पार्वती रूप में विश्व भर में फैले अपने बच्चों को सम्हालती है। माताओं ने ही तो बचपन से संस्कार देकर महानता के आदर्श स्थापित किए हैं। माँ सुमित्र, मदालसा, माँ सुनीति आदि इसी नारी चेतना का आदर्श रूप है, जो प्रतिक्षण धन्य मानी गयी है।
प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी, माता विद्यते यस्य स मातृमान।।
अर्थात् माँ धन्य है क्योंकि वह गर्भ से लेकर जब तक बालक की विद्या पूरी न हो, तब तक अपनी सुशीलता-शालीनता व धर्मशीलता का आशीर्वाद देती है। माता मदालसा ने अपने बच्चों को इसी भाव से संस्कार देकर अपना लोक कर्तव्य पूरा किया, परिणामतः दो पुत्र योग समाधि की तरफ चल पड़े, दूसरा एक पुत्र राजा बन गया। माँ सुमित्र ने अपनी ‘मैं’ को कभी आगे नहीं रखने का बालकों को संस्कार दिये। तो जिस समय भगवान श्रीराम वन जाने लगे, लक्ष्मण रामजी के पीछे-पीछे चल पड़े। माँ सुमित्र ने अपने पुत्रें को सेवक के रूप में ऐसा संस्कार दिया कि आज भी राम-सीता के नाम के साथ लक्ष्मण का नाम सहज ही निकलता है। यह है भारतीय नारी चेतना।
माँ सदा अपने पुत्र के लिए हित कामना ही करती है। हाँ संसार की कामना करने वाली माँ पुत्र के लिए संसार के पदार्थों की कामना करेगी। चाहेगी कि पुत्र को वह सब मिल जाए, जिससे उसे दुःखी होना न पड़ेगा। जबकि ब्रह्म मार्ग वाली माँ कहेगी पुत्र आकांक्षा न रख, मोह न रख, आसक्ति न रख, कर्तव्यपरायण बन। वह प्रार्थना करेगी कि मेरा पुत्र अनासक्त भाव से अपना कर्तव्य पूरा करे, उसे किसी भी प्रकार का कष्ट न हो। जैसे माता सुनीति ने अपने पुत्र ध्रुव को तप व भक्ति द्वारा उस विश्वपिता की गोद में बैठाया। माँ के मार्गदर्शन से ही ध्रुव के जीवन को नया रूप मिला। ऐसी ही एक माँ थी जीजाबाई, जिसने हिन्दुस्तान को महा पुरुष दिया शिवा के रूप में। असफाक, वीर अब्दुल हमीद, सरदार भगत सिंह, आजाद, गांधी, सुभाष आदि अनन्त वीर देश भक्त हुए इस भूमि पर जिन्हें माँ के आशीर्वाद व संस्कार ने गढ़ा। यही नारी चेतना का कमाल।
माँ दिव्य गुणों- संस्कारों द्वारा सन्तान का भविष्य संवारती है। अपनी संतान के लिए ढेरों दुआयें देती है। प्रमाणित मान्यता है कि माँ
द्वारा हृदय की गहराइयों से दी जाने वाली दुआओं में इतनी शक्ति भरी होती है कि वह अकाल मृत्यु को भी टाल सकती है। प्रत्येक माँ बचपन से ही बच्चों को लाड़-प्यार के साथ-साथ महान पुरुषों के जीवन से जोड़ती, संस्कार देती है। अपने बच्चों की अच्छाई-बुराई वह समझती, बड़ा होने पर उसके बच्चों की गणना उन्नति के शिखरों को छूने वाले महानपुरुषों की श्रेणी में हो, ऐसी चाहत रखती है। माँ द्वारा दिए अच्छे संस्कारों के कारण जब बच्चा प्रतिदिन सुबह शाम संत-महापुरुषों के चरणों में झुक कर श्रद्धा से प्रणाम करता और सन्मार्ग पर चलकर महानता का शिखर छूता है, तो माँ गद्गद हो अधिक आशीर्वाद से उसे भर देती है, इससे स्पष्ट है कि नारी चेतना का सान्निध्य न हो, तो जीवन नीरस ही रहेगा।