मनुष्य जब अपने आपको निर्बल, अनुभव करता है, तो उसे किसी न किसी के सहायता की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे में कोई व्यक्ति अपनी सहायता दे, न दे, पर एक सत्ता है जो हमारे लिए प्रतिपल सहायता को तैयार रहता है, वह है परमसत्ता। उसे व्यक्ति अपनी-अपनी श्रद्धा अनुसार विविध नामों से पुकारते हैं। इस परम प्रभु को पुकारने, सहायता के लिए निवेदन करने का माध्यम बनती है प्रार्थना। प्रार्थना ऐसा आध्यात्मिक प्रयोग है, जो हमारी श्रद्धा की शक्ति के साथ जुड़कर चमत्कार दिखाती है। रास्ता भूला, भ्रमित व्यक्ति भी जब प्रार्थना का सहारा लेता है, उस असीम, अनन्त सत्ता के प्रति श्रद्धा भाव से झुकता है, तो जीवन में जिसकी कभी कल्पना नहीं की, वैसा चमत्कार स्वयं अनुभव करता है। तब वह उस प्रार्थना के सहारे विश्व ब्रह्माण्ड में नदियों को बहाने वाली, हवाओं को चलाने वाली, फूलों को खिलाने वाले, हृदय की धड़कन को जगाने वाली, अन्न को उत्पन्न करने वाली सत्ता का अंतःकरण से अहसास करता है।
प्रार्थना ही है जो इंसान के आंखों में करुणा, भावना की पानी भर लाती है और दिल श्रद्धा-विश्वास भरे दर्द से रो पड़ता है। वास्तव में व्यक्ति सामान्य दिनों में प्रार्थना करता ही है, पर जब इंसान असहाय होता है, तब इंसान के जीवन में इस प्रार्थना का गहराई से उदय होता है। वैसे प्रार्थना का भी एक विज्ञान है। प्रार्थना इसी विज्ञान के आधार पर फलित होती है।
तीव्र संवेदना प्रवाहः
प्रार्थना के लिए आवश्यक है कि वह हृदय की भाषा बनकर बाहर प्रकट हो। प्रार्थना में कोई तीव्र संवेदना स्वर चलना अर्थात् एक गहरी चाह होना आवश्यक है। पर ध्यान रहे, प्रार्थना में किसी के अनिष्ट की चाह नहीं होनी चाहिए, प्रार्थना में भगवान की सत्ता का प्रयोग केवल अपनी सुख-सुविधाओं और विलासिता के लिए कभी नहीं करना चाहिए। बल्कि अपना दुःख दूर करने के लिए और थोड़ी सी खुशी मांगने के लिए प्रार्थना होती है। जिससे जीवन पर छापे गहरे धुंध छट जायें। इस भावना के साथ जब विनम्रता से हाथ जुड़े हुए हों, तब वह प्रभु दयानिधान कृपा जरूर करता है। ध्यान रहे करोड़ों हाथ तो उठते रहते हैं उससे दुआओं के लिए, पर करोड़ों हाथ एक साथ जुड़ने पर भी किसी-किसी की प्रार्थनाएं ही स्वीकार होती हैं।
निष्छलताः
प्रार्थना में निष्छल प्रेम जरूरी है। व्यक्ति जब भगवान के प्रेम में निमग्न होकर उसमें लीन हो जाना चाहता है, उसका हो जाना चाहता है और उसी की मानता हुआ उसे पुकारता है, अपना सारा दुलार, प्रेम भगवान के लिए अर्पण कर देना चाहता है, तो ही प्रार्थना स्वीकार्य होती है।
धन्यवादी भावः
प्रार्थना में धन्यवादी भाव रखनी होती है। जब इंसान जीवन में थोड़ी-सी भी खुशी मिलने पर भगवान से आभार व्यक्त करने का अभ्यासी हो कि मेरे प्रभु! मुझमें तो इतनी पात्रता नहीं थी, परतेरी कृपा ही मेरे जीवन में खिली है, इसके लिए मैं आपका आभारी हूं, ये भाव जिस भी इंसान के अंतर से उठती है, उसकी प्रार्थना अनन्तर फलवती बनती जाती है।
देवत्व की भावनाः
वेदों की प्रार्थनाएं, उपनिषदों की प्रार्थनाएं, ट्टषियों के हृदय से प्रकट हुई प्रार्थनायें है। किसी साधक, सिद्ध के हृदय से प्रकट हुई प्रार्थनायें हैं,मुनि और सिद्ध द्वारा शिलाओं पर बैठकर की गयी प्रार्थनाएं कुबूल हुई हीं। यही ढंग होना चाहिए हमारी प्रार्थना का। इस स्तर से नीचे उतर कर की गयी प्रार्थना स्वीकार्य नहीं। जब मांगने की बारी आये और हमµ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।’’ के भाव से मांगेंगे, तो परमात्मा हमारी झोली कभी खाली नहीं रहने देगा।
जिस इंसान ने अपनी झोली फैलाकर मांगा भगवान से कि ‘सब सुखी हो जाएं, सभी निरोग हो जाएं। इस दुनिया में मुझे कोई दुःखी दिखाई न दे। जहां-जहां, जिधर-जिधर मैं चलूं, मेरी छाया जिस तरफ पड़े प्रभु सबका भला हो। ऐसे व्यक्ति की प्रार्थना कबूल भी हुईं साथ ही इन व्यक्तिगत प्रार्थनाओं को पूरा करने के लिए परमात्मा ने समुद्र ही उड़ेल दिया।
शुभकर्मों की प्रार्थनाः
खास बात कि हमारे शुभ भाव से किये कर्म एक प्रकार की प्रार्थना ही है। पूज्य सद्गुरुदेव कहते हैंµ‘‘आप अपने कर्म को कर्मठता से करो, दूसरों की निंदा न करें, अपना समय और ऊर्जा बर्बाद मत करें। लक्ष्य को याद रखें और सूर्य एवं चंद्रमा की तरह नियम और मर्यादा में रहते हुए गतिमान रहें, तो उसकी इस कर्ममय प्रार्थना से सम्पूर्ण जीवन फलित हो उठता है।’’
सूर्य केन्द्रित प्रार्थनाः
सूर्य को अपना आदर्श मानकर सर्वप्रथम प्रणाम करें। कि हे प्रभु! हे सूर्यदेव! मुझे भी इतना तेजस्वी बनाएं कि मैं जहां भी जाऊं मेरा तेजस्वी रूप चारों तरफ फैल जाए, मैं प्रकाश देने वाला, राह दिखाने वाला, सबको गतिमान करने वाला बन जाऊं। किसी की खुशी को छीनने वाला न बनूं। इस प्रकार की प्रार्थना को प्रकृति की शक्ति मिलती है। इसी के साथ प्रार्थना को प्रभावशाली बनाने के लिए नित्य प्रातः अपनी शÕया को जितना जल्दी हो सके त्याग कर देना चाहिए। क्योंकि सूर्य की रश्मियां अपने साथ बहुत सी सम्पदाएं लेकर आती हैं। उससे ‘पश्येम् शरदःशतम्, जीवेम् शरदः शतम्’ शृणुयामः शरदःशतम् की शक्ति आती है।’’ इस प्रार्थना से व्यक्ति अधीनता मुक्त होता चलता है।
अपनी हर प्रार्थना में जो कुछ हम भविष्य में होना चाहते हैं, वैसा वर्तमान में अनुभव करने का अभ्यास जोड़ें। इस तरह से अपनी प्रार्थना में शक्ति जगाकर प्रभु की कृपा के अधिकारी बनें और इस संसार में प्रार्थना की महिमा स्थापित करें। गुरुदेव यही तो चाहते हैं।
3 Comments
koti koti naman Maharaj shri ji
ap me sab sisyoo ki vedana umdti h vhi hamare .subh ki paratha ap ke kirpa hame milti h .uske liye guruvar hirdye se saranagat h . ap ka vhi bhav to hamai sab sae badi takat h .jo muskil samye m himat or dhariye bata h . guruvar sab kirpoo ka bahut bahut shukriya ji .
ap ki Anmol Vachan hamari sanjivni h .
Sadar pranam guruji, apki Vani me das saal se sun raha hu aur margdarshan le k kaam bhi kar raha hu….aur muje labh ho raha hai
Gurudev aapki mahima aparmpar hai
Aap deen dayal ho ,dayalu ho kripalu ho
Hamara pranam sweekar karo
Aapki kripa ka haath sada hamare uper bana rahe
Sadar naman