संघर्ष भरी जीवन राहों पर चलने की हिम्मत प्राप्त करने का पवित्र साधन प्रार्थना है। प्रार्थना अपने प्रेम को भगवान के प्रति अर्पित करने का सरल किन्तु विशेष ढंग है। उस परम सत्ता के प्रति प्रेम, उसकी कृपाओं को याद करके अंतःकरण में खुशी के आंसू और मुस्कान भर उठने की हूक जगाती है प्रार्थना। कहते हैं भावश्रद्धा से जब सिर झुकते हैं आभार के लिए, और वाणी बह उठती है धन्यवाद के लिए, तब प्रार्थना का उदय होता है। इसी अवस्था में प्रार्थना ताकत पाती है।
प्रार्थना के लिए सर्वप्रथम मन पूरी तरह भगवान को समर्पित होना जरूरी है। श्रद्धा भाव से भरे पवित्र मन की गहराई से पुकारने पर अवश्य वह कृपा करता है। वेदों-उपनिषदों की प्रार्थनाएं, ऋषियों के हृदय से प्रकट हुई प्रार्थनायें, संत साधक, सिद्ध के हृदय से प्रकट हुई प्रार्थनायें, पवित्र हृदयी महामनाओं द्वारा शिलाओं पर बैठकर की गयी प्रार्थनाएं सर्वाधिक इसीलिए कुबूल हुई हैं। क्योंकि इन सभी ने अपने अहम को विलीन करके दूसरों के हित कल्याण के लिए प्रार्थनायें की हैं। अतः यही ढंग होना चाहिए हमारी भी प्रार्थना का। जब मांगने की बारी आयी, तब उन संतों ने ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।’’ के भाव से मांगा। इसलिए परमात्मा उनकी झोली कभी खाली नहीं रहने दी।
वास्तव में प्रार्थना की सफलता के लिए भावों की निष्छलता और लोक कल्याण भावना का होना बहुत आवश्यक है। प्रार्थना में जब निश्छल प्रेम के साथ भक्त अपने भगवान के प्रेम में निमग्न हो, उसे उसका हो जाने की चाहत के साथ पुकारता है, पूर्ण प्रेम अर्पण कर पुकारता है, तो प्रार्थना अवश्य स्वीकार होती है। प्रार्थना की इस अवस्था में भक्त के भाव हृदय की भाषा बनकर प्रकट होते हैं।
ऐसी प्रार्थना में तीव्र संवेदना, गहरी चाह होती है, पर किसी के अनिष्ट की भावना कदापि नहीं होती। प्रार्थना द्वारा भक्त अपने भगवान की सत्ता का प्रयोग केवल अपनी सुख-सुविधाओं और विलासिता के लिए भी नहीं करता, अपितु अपना दुःख-दर्द दूर करने, अपनी खुशी के लिए, जीवन पर छाये गहरे कुहासे हटाने के लिए प्रार्थना करता है।
प्रार्थना भी एक प्रकार का संवेदनाभरा विज्ञान है, प्रार्थना के प्रयोगकर्ताओं का कहना है कि हर दिन की प्रार्थनायें ताजी हों, क्योंकि पुराने रटे-रटाये शब्द भावों से खाली होने के कारण प्रभावी नहीं रह पाते। जैसे ताजे फूलों को भगवान के चरणों में चढ़ाते हैं, ऐसे ही प्रार्थना के ताजे भाव अन्दर से नित्य पैदा करें। इसके लिए गहरी श्रद्धा जरूरी है।
अंदर श्रद्धा-भावना गहरी होता है, तो प्रार्थना अन्दर से पैदा होती है, फिर वह सफलता, सौभाग्य के साथ शान्ति भी देती है। वैसे प्रार्थना में शब्द बोलने की जरूरत नहीं है, अपितु हृदय खोलने की जरूरत है। श्रद्धामय हृदय से जो निकलेगा, वह परमात्मा सुनेगा, टूटे-फूटे शब्दों में भी। सच कहें तो प्रार्थना के समय केवल भक्त की श्रद्धा भावनाएं पहुंचती हैं, शब्द नहीं।’
‘‘प्रार्थना आध्यात्मिक प्रयोग है, जो हमारी श्रद्धा की शक्ति के साथ जुड़कर चमत्कार दिखाती है। कोई भी व्यक्ति जब प्रार्थना का सहारा लेकर उस असीम, अनन्त सत्ता के प्रति श्रद्धा भाव से झुकता है, तो परमसत्ता आर्त भाव से की गयी उसकी पुकार सुनकर सहायता अवश्य करता है। वैसे धन्यवादी भाव से की गयी प्रार्थना जीवन में अकल्पनीय चमत्कार लाती है।
यह प्रार्थना ही है जो इंसान के आंखों में करुणा जगाती है, श्रद्धा-विश्वास के सहारे असहाय इंसान के जीवन में गहराई से भाव संवेदना का सहज उदय होता है तो प्रार्थना अवश्य फलित होता है। वास्तव में प्रार्थना दिव्य सदभावों की सूक्ष्म तरंगें ही तो हैं, जो सबको संभालती और सफल करती हैं। अतः सदैव शान्त मस्तिष्क होकर भगवद्प्रेरणा व दिव्य प्रकाश की अनुभूति के साथ प्रार्थना करें। इस अवस्था में साधक सहज ही प्रकृति को नजदीक से अनुभव करने लगता है और ब्रह्माण्ड में फैले परमपिता परमात्मा के आनन्द, उसकी शान्ति से जुड़ने का अहसास पाता है। तब उसे मधुर, शिष्ट, शान्ति-शालीनता की गहराई में प्रवेश मिलता है।
प्रार्थना सूर्य की रश्मियों के साथ जुड़ सके तो बहुत-सी सम्पदाओं के साथ ‘‘पश्येम् शरदःशतम्, जीवेम् शरदः शतम्’ शृणुयामः शरदःशतम्’’ की शक्ति जगाती है। अतः प्रार्थना के प्रयोगों को प्रभावशाली बनाने के लिए नित्य प्रातः सकारात्मक भाव से अभ्यास करें, इससे साधक की प्रार्थना में शक्ति जगती है। प्रार्थना के क्षणों में हृदय से प्रेम उमड़े और आंखों से प्रेम के आंसू अवश्य बहें, इस प्रकार बिना शिकायत प्रभु कृपाओं के लिए धन्यवाद करते हुए की गयी प्रार्थना पूर्णतः फलित होती है।
प्रार्थना के लिए कोई निश्चित समय नहीं होता कि साधक कितनी देर तक प्रार्थना करे, अपितु जब अंतःकरण अंदर से खुलने लगे, आंखें भीगने लगे, हृदय भावों में गहरे तक डूबने लगे, रोम रोम में पुलकन उठने लगे, तो समझना चाहिए की प्रार्थना फलित होने के स्तर पर आ गयी है। किसी किसी की प्रार्थना तो पांच मिनट में ही फलित होने लगती है, संत करुणामय अवस्था मेें जीवन जीते हैं, अतः उनका भाव हर पल प्रार्थना के अनुरूप बना रहता है।
सामान्य जन को प्रार्थना के लिए एक आसन पर टिकने की आवश्यकता नहीं है, अपितु भाव संवेदना कैसे जगे इस पर ध्यान रखना चाहिए। जैसे-जैसे अनुभूतियां गहरी होंगी, शुद्ध-शांत, सात्विक भाव संवेदनायें उदय होंगी। गुरुमंत्र जप व ध्यान के द्वारा गुरुकृपा के अधिकारी बनने पर भी प्रार्थनाये काम करने लगती हैं। इसके पीछे अंतकरण की पवित्रता का विज्ञान काम करता है।
आइये! अपने सद्गुरु से प्रार्थना की विधि सीखकर अपने ईश्वर को मनायें और ईश्वर की कृपा व स्वयं के पुरुषार्थ से जीवन में असंभव दिखाई देने वाली चीजें भी संभव बनायें।