‘विद्या’ से विनय आना चाहिए ‘अहंकार’ नहीं
जीवन में जानना तो बहुत आसान है परन्तु उसे जानकर आत्मसात् करना बड़ा ही कठिन है। विद्या सार्थक तभी होती है, जब जीवन का वह एक अभिन्न हिस्सा बन जाए। ज्ञान वह होता है जो जीवन में उतरकर सत्य का दीप प्रज्वलित करे। जब जीवन में सत्य प्रकाशित होना शुरू होता है तब व्यक्ति में नम्रता अंकुरित होने लगती है और यही विद्या का सर्वोत्तम फल भी है। नम्रता से जीवन में पात्रता आती है और पात्रता पूर्णता के लिए पहली शर्त है।
प्राचीन ग्रन्थों में एक उल्लेख मिलता है कि श्वेतकेतु नाम का एक जिज्ञासु विद्यार्थी अपने पिता उद्दालक की आज्ञा पाकर आठ वर्ष की अवस्था में गुरु के पास विद्या अध्ययनार्थ गया। वहां जाकर लगभग 16 वर्ष तक उसने विद्योपार्जन किया। उसने गुरु के सान्निध्य में रहकर अनेक विद्याएं पढ़ीं, अनेक शास्त्रें का अध्ययन किया। जब उसे अध्ययन करते हुए 24 वर्ष व्यतीत हो गए, तब वह गुरुकुल से पिता के घर वापिस लौटा। अध्ययन के बाद उसके अंदर कुछ अहंकार आ गया था। उसे लगा कि मैंने सारे शास्त्रें को पढ़ा है, सभी विद्याएं पढ़ी हैं। अब मैं ज्ञानवान् हो चुका हूं। अब तो समस्त ज्ञान मेरे पास है।
जैसे ही घर जाकर उसने अपने पिता को प्रणाम किया, तो उस प्रणाम में उसके अहंकार की पुट झलक रही थी। उसे लगा कि मेरे पिता तो बहुत कम ज्ञानी हैं, मैं तो बहुत कुछ जानता हूं। मेरे पिता ने तो इतने ग्रंथ पढ़े भी नहीं हैं जितने मैंने पढ़े हैं। जब वह पिता को प्रणाम करके बैठा, तो पिता उद्दालक ने प्यार से अपने पुत्र श्वेतकेतु के सिर पर हाथ फेरकर पूछा, पुत्र गुरुकुल से स्नातक हो गए हो? उसने अपने पिता की ओर अहंकार-भरी दृष्टि से देखकर कहा हां! मैं स्नातक हो गया।
पिता ने फिर कहा, बेटा! क्या तुम वह भी जानकर आए हो जिसके जानने के बाद फिर कुछ जानना शेष नहीं रहता। क्या तुम्हें उसकी जानकारी मिल गई, जिसके जानने के लिए मनुष्य संसार में आया करता है। हे पुत्र! क्या तुमने उस पथ का पता लगा लिया है जिस पथ पर चलने के बाद फिर कोई मार्ग तय करना शेष नहीं रहता। क्या उस लक्ष्य तक तुम पहुंच गए हो, जहां से कोई रास्ता आगे जाता ही नहीं? इन प्रश्नों को सुनकर श्वेतकेतु को बड़ा अजीब लगा।
पिता ने फिर पूछा बेटा! तुमने क्या वह देख या पा लिया है, जिसे देखने के बाद अन्य किसी वस्तु को देखने या पाने की जरूरत नहीं पड़ती। इस सभी प्रश्नों को सुनकर श्वेतकेतु का मन हिल गया।
श्वेतकेतु कुछ क्षण रुककर पिता की ओर देखकर बेाला-ऐसा तो कुछ भी मैंने नहीं पढ़ा। पिता ने कहा कि बेटा! आध्यात्मिक यात्रा यहीं से शुरू होती है। उन्होंने कुछ बर्तनों की ओर इशारा करके कहा, पुत्र! देखो, सामने जो मिट्टी के बर्तन रखे हुए हैं, उन बर्तनों को उठाकर लाओ। उसमें जिनमें कटोरी, थाली और गिलास थे। पिता ने बेटे से पूछा कि बताओ? इन बर्तनों की मिट्टी एक जैसी है या अनेक? तो श्वेतकेतु ने कहा कि एक जैसी है। पिता ने कहा फिर इन बर्तनों के नाम अलग-अलग क्यों हैं? श्वेतकेतु सुनकर कहता है कि व्यवहार चलाने के लिए नाम अलग-अलग रखे गए हैं, लेकिन मिट्टी सबमें एक ही है।
पिता ने कहा कि पुत्र! एक बार और ध्यान से देखो, इंसान जो वस्त्र पहनता है वह कहां से आता है? वस्त्र बनते हैं धागों से, धागे बनते हैं कपास से, कपास आती है पौधे से और पौधा आता है मिट्टी से। हर वस्त्र मिट्टी से आता है। बर्तन मिट्टी से आते हैं। अन्न भी मिट्टी से आते हैं। जिस मकान में इंसान बैठता है वह भी मिट्टी का बना हुआ होता है।
मनुष्य जो तन है, वह भी मिट्टी से बना हुआ है ऐसा प्रतीत होता है कि मिट्टी से ही हम आते हैं और मिट्टी में ही समाते है। सबके मूल में मिट्टी ही है लेकिन तरह-तरह के खिलौनों को बनाने वाला कौन है? इन खिलौनों को बनाकर फिर मिट्टी कर देने वाला कौन है? आध्यात्मिक यात्रा शुरू करने पर ही समझ में आता है कि वह ही एक शक्ति है ‘परमात्मा’। यह सुनकर श्वेतकेतु का दिमाग घूमने लगा। और उसका अहंकार टूट गया। विद्या ददाति विनयम्—-विद्या से विनय आनी चाहिए ‘अहंकार’ नहीं।