हर मनुष्य पुरुषार्थ करता ही है, लेकिन जिंदगी को सम्हालते हैं उसके सुकर्म, अच्छी सोच, ईश्वर अनुशासन, ईश्वर कृपा, जप, ध्यान, सत्संग, गुरुकृपा, आशीर्वाद और तीर्थ आदि। इनसे जीवन में हिम्मत और हौसला आता है, पवित्रता जगती है और सावधानी भरी चुस्ती-फुर्ती बढ़ती है। अच्छाई के लिए अपना मजबूत इरादा बनता है, दृढ़ निश्चय, अथक परिश्रम की संकल्पशक्ति पैदा होती है। आत्मबल लबालब हो उठता है, परमात्मा व गुरु की कृपा चहुं ओर से बरसती है तो व्यक्ति उन्नति एवं सफलता की सीढ़ियां छूने लगते हैं। आज का युग तकनीक का है, पर लाख तकनीकी प्रगति के बावजूद लक्ष्य की ओर बढ़ने में मुश्किलें व परेशानियां काफी ज्यादा बढ़ी हैं, लेकिन दृढ़ संकल्प, सद्पुरुषार्थ, सद्गुरु की कृपा दृष्टि सान्निध्य, तीर्थचेतना का आशीर्वाद, परमब्रह्म परमेश्वर का अनुशासन साथ हैं, तो विपरीत माहौल में भी सब लक्ष्य हाशिल कर लेते हैं।
यद्यपि गौर करें तो मानव जीवन एक यंत्र जैसा भी है, हर यंत्र की तरह इसको चलाने की तकनीक है, लेकिन हर यंत्र की आंतरिक बनावट व सर्किट एक जैसा नहीं रहता, सबका अपना अपना सर्किट और संचालन का अलग अलग ढंग होता है। इसीप्रकार मनुष्य का भी अपना आंतरिक सर्किट है, जिसके अन्दर उतरने पर पूरा सर्किट यंत्र जैसा ही दिखता है, लेकिन इसे ऊर्जा मानव के इस स्थूल शरीर मात्र से नहीं मिलती, अपितु इसे ऊर्जा मिलती है मनुष्य के सदभावों, सदविचारों, चिंतन, चरित्र, दृढ़ संकल्प शक्ति, आंतरिक चेतना और इससे भी महत्वपूर्ण है ईश्वर विश्वास से।
ये मनुष्य के ऊर्जा सर्किट हैं, लेकिन इन्हें भी शक्ति प्रेरणा की जरूरत होती है, अतः मूलतः मनुष्य का
1. अपना सद्पुरुषार्थ
2. सद्गुरु की कृपा
3. तीर्थचेतना का आशीर्वाद
तीन ऐसे महत्वपूर्ण पक्ष हैं, जिनके सहारे व्यक्ति को अपने लक्ष्य को हाशिल करने और जीवन को शिखर से जोड़ने में पूर्ण सहायता मिलती है। इस प्रकार मानव शरीर रूपी यह यंत्र प्रत्यक्ष देवता की
भूमिका निभाते हुए भौतिक क्षेत्र में सफलता दिलाता ही है, ईश्वर अनुशासन का पालन करते हुए इस धरती पर साक्षात ईश्वर को उतार सकने जैसी सामर्थ्य से भर जाता है।
विद्वान कहते हैं कि स्वयं का दृढ़ संकल्प, सद्गुरु की कृपा, ईश्वर अनुशासन, सकारात्मक सोच, सूझबूझ व गुरु निर्देशित साधना व्यक्ति को अपनी कमियों से उबारने, समस्याओं से बाहर निकालने में मदद करती है और उसकी आत्मा को बलवती बनाती है। हां समस्याओं से वही घिरे रहते हैं, जो संकल्प निभाना शुरू तो करते हैं, लेकिन उसे बीच में ही छोड़ देते हैं। उदाहरणार्थ कोई व्यक्ति अपने अच्छे स्वास्थ्य के लिए संकल्प करे और कुछ कदम चलकर वह अपने संकल्प से बदल जाये, तो यही मुकर जाने की आदत अंदर के आत्मबल, उत्साह एवं साहस को कमजोर करता है, इससे व्यक्ति अपने लक्ष्य को पाने से असफल रह जाता है।
इसके विपरीत जो प्रातः जगकर बिस्तर से नीचे खड़ा होता है, वही सूर्य दर्शन करके, योगाभ्यास अपनाकर अपना स्वास्थ्य संवर्धन कर पाता है। हर प्रकार की प्रगति का मार्ग यही है। इसलिए आवश्यक है अपने संकल्प पर दृढ़ रहने और उसे प्राणप्रण से निभाने की।
संकल्प निभाने वाला ही महान बनता है। यदि चुनौतियों से जूझते हुए सम्पूर्ण बदलाव का संकल्प निभाएंगे तो आत्मपरिवर्तन, समाज परिवर्तन के साथ साथ आमूलचूल बदलाव लाने में कामयाब होंगे ही। यह तो हुई एक प्रणाली जो हमें सफलता के शिखर तक ले जाती है। इसी के साथ जीवन लक्ष्य को लेकर व्यक्ति की अपनी मान्यतायें भी उसे सफलता के शिखर तक पहुंचाने में कारगर साबित होती हैं।
अध्यात्मविद जीवन की सबसे बड़ी सफलता मोक्ष को मानते हैं और इस मुक्ति व मोक्ष के लिए जीवन में सद्गुरु का सान्निध्य आवश्यक बताते हैं। इस प्रकार सफल जीवन के सद्गुरु महत्वपूर्ण सहारा हैं। उनके अनुसार परमब्रह्म के परम आनन्द की झलक दिखलाने का कार्य गुरु करता है, गुरु ही आत्म चेतना को उच्च धरातल पर पहुंचाकर उस परमतत्व की अनुभूति कराता है।
गुरु के ज्ञानपूर्ण प्रयोगों से शिष्य को भौतिक एवं आत्मिक दोनों दृष्टियों से समृद्धि प्राप्त होती है, गुरु शरण में रहकर वह सभी तरह के दुःखों से बचा रहता है। इसलिए कबीर नानक, रैदास से लेकर श्रेष्ठ महापुरुषों, संतों ने गुरु की महिमा गाई है। व्यक्ति का मान-सम्मान, प्रतिष्ठा बढ़ाने में भी गुरु मदद करता है। गुरु का सान्निध्य सबके लिए समान होता है, इसलिए गुरु के द्वार पर कोई बड़ा-छोटा नहीं होता, वहां सब समान होते हैं। एक समान बिरादरी निवास करती है गुरु के दर पर वह होती है गुरु की बिरादरी, गुरु निर्देशित सेवा, साधना, सत्संग, सिमरण, जप, दान, सत्संग की बिरादरी। इसीलिए ‘गुरुमुख’ होने का पद इससे बड़ा पद कहा गया है।
इसी आधार पर गुरु सबसे बड़ी अमीरी शिष्य को दे जाता है, वह है:-
1.दिल की अमीरी
2. आत्मा की अमीरी
3. भक्ति-साधना की अमीरी
4. सेवा-दान एवं
5 संतोष की अमीरी
यह भी ध्यान रहे गुरु अनायास कुछ भी नहीं बनाता, अपितु गुरु युग को, काल को भांपकर उसी के अनुरूप शिष्य को गढ़कर खड़ा करता है और दोनों अपने को सफल शिखर पर खड़ा अनुभव करते हैं। गुरु का गढ़ा शिष्य युगीन क्रांति ही लाता है। इसीलिए गुरुओं और शिष्यों के मिलन पर होने वाले निर्माण विश्व में अद्वितीय कहे गये हैं। यहां यंत्रवत कुछ नहीं होता, अपितु सब कुछ भावसंवेदनाओं, श्रद्धा, विश्वास पर आधारित होता है।
इसके लिए शर्त है कि गुरु के पास अपनी प्रतिष्ठा, रुतबा सबकुछ भुलाकर, अकिंचन बनकर पहुंचें। वह प्रसन्न हो गया, तो सर्वस्व शिष्य में उड़ेलने को संकल्पित हो जाता है। भगवान शिव कहते हैं कितने भी बड़े याज्ञिक हो, संत हो, ज्ञानी-ध्यानी, तपस्वी, व्रती, योगी बन जायें, लेकिन गुरु का आशीर्वाद-कृपा प्राप्त नहीं है, तो कुछ फलेगा नहीं। शिखर चढ़ने के लिए साधना व सदपुरुषार्थ मार्ग पर सदगुरु का समय-समय पर निर्देशन की जरूरत पड़ती है, जीवन के वैभव, सुख-सम्पदा, समृद्धि, भौतिक सम्पन्नता के लिये भी गुरु की छाया में रहकर साधना आवश्यक है। गुरुदेव की विधि और उनके अनुशासन को अपनाकर संसार का सबसे बड़ा आनंद, परमेश्वर की झलक परम के सुख की अनुभूति, सम्पूर्ण समृद्धि की प्राप्ति तथा जीवन के घोर दुःखों से बचाव ‘सद्गुरु’ की शरण में आकर ही सम्भव है।
आंतरिक ऊर्जा को जगाने में मनोविश्लेषक कहते हैं अपने भावों, विचारों एवं आंतरिक ऊर्जा को जागृत रखने के लिए मनुष्य को सकारात्मक वातावरण की जरूरत होती है, इसकी पूर्ति संत-सदगुरु की तपः स्थली में होती है, जिन्हें तीर्थ कहा जाता है। विश्लेषक बताते हैं तीर्थ स्थल सकारात्मक ऊर्जा के स्त्रोत्र होते हैं। इसीलिए व्यक्ति जैसे ही तीर्थ का ध्यान करता अथवा तीर्थ चेतना पर श्रद्धा-विश्वास जगाता है, उसी क्षण वह सकारात्मक ऊर्जा से भर उठता है।
निराश से निराश मन का व्यक्ति भी ऊर्जावान, आत्मबल सम्पन्न हो उठता है। इसीलिए तीर्थ चेतना से जुड़े लोग घोर कष्ट-कठिनाइयों में भी सदैव प्रसन्न व सकारात्मक ढंग से जीवन जीते और जीवनपर्यन्त सफल देखे जाते हैं। अध्यात्मवेत्ताओं ने लोगों के मन व जीवन को सकारात्मक ऊर्जा से भरने के लिए तीर्थों की बड़ी महिमा बतायी है और तीर्थ सेवन को वरदान कहा है। तीर्थों में पहुचने पर जीवन की तरंगें शरीर से आत्मा की ओर बहने लगती हैं और व्यक्ति की चेतना ऊर्ध्वगामी हो उठती है।
कहते हैं कि जहां बैठकर संत, सदगुरु समाधिस्थ हुए हैं, उन्होंने परमात्मा का दर्शन पाया, वहां विद्यमान तरंगें व्यक्ति की चेतना को ऊंचा उठाती और जीवन में सफलता की शक्ति जगाती हैं। तीर्थक्षेत्रों में साधना करने से विशेष अनुभूतियां होने की मान्यता प्राचीन हैं। तीर्थों में पहुंचते ही ध्यान सहज लग जाता है, जीवन में सकारात्मक बदलाव आने लगते हैं। तीर्थ के दिव्य वातावरण से प्रभावित होकर व्यक्ति की नकारात्मक ऊर्जा सकारात्मकता में बदलने लगती है। क्योंकि तीर्थक्षेत्र आध्यात्मिक ऊर्जा के पुंज जो हैं। इसीलिए शास्त्रें में जीवन के आमूलचूल रूपांतरण के लिए तीर्थक्षेत्र में तप, साधना, दान, यज्ञ आदि का विधान रखा गया है।
वास्तव में जीवन में जितना आवश्यक है सदपुरुषार्थ, उससे कहीं अनेक गुना जरूरी है उस पुरुषार्थ को जागृत, सकारात्मक एवं ऊर्जावान बनाये रखने हेतु किसी प्रेरक की। प्रेरणा भरी ऊर्जा का हस्तांतरण करता है सद्गुरु व उसकी कृपा और सदसंकल्प भरे लक्ष्य के अनुरूप मनोदशा तैयार करने में सहायक बनते हैं तीर्थ। जीवन में सद्पुरुषार्थ, सद्गुरु एवं तीर्थ को आत्मसात करें और और शिखर आरोहण का लक्ष्य सफल करें।
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Param Poojya Sadguru Maharaj ke paawan charanon me saadar naman
संतोष की अमीरी महत्वपूर्ण है। किसीके पास सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं होता और किसीके पास बहुत कम होकर भी सब कुछ होता है
Jay Ho Gurudev Sadar Pardam