विश्व को जरूरत है नारी के श्रद्धासिक्त अभिसिंचन की

विश्व को जरूरत है नारी के श्रद्धासिक्त अभिसिंचन की

International Women's Day

 

माता ही यदि हो अज्ञान, बच्चे कैसे बनें महान

             यहाँ माता का आशय राष्ट्र की नारी शक्ति से है और बच्चों का सम्बन्ध देश की प्रजा, जनता व जनसंख्या से। भारतीय ऋषियों ने नारी को राष्ट्र लक्ष्मी एवं विश्व की निर्मात्री शक्ति कहा है, वह राष्ट्ररूपी परिवार की रीढ़ है, धुरी है। उसकी उत्कृष्टता-विकृष्टता पर राष्ट्र की उत्कृष्टता, उत्थान एवं पतन निर्भर करता है। समुन्नत नारी ही विश्व को धरती का स्वर्ग बना पाती है। शास्त्रें में उसे ब्रह्मविद्या, श्रद्धा, शक्ति, पवित्रता, ममता, प्रशिक्षिका की गरिमा से नवाजा गया है। ‘यहां तक कि संसार में जो कुछ भी सर्वोत्कृष्ट है, उसमें नारीत्व प्रवाहमान बताया है।’ इन्हीं विभूतियों के समुच्चय के कारण नारी जहां कदम रखती है, नव सृजन का प्रवाह फूट पड़ता है, सहज सक्रियता उमड़ पड़ती है। घर देवालय बन जाता है, समाज नवसृजन से महक उठता है। जनमानस अभाव व दरिद्रता से मुक्त हो उठता है। राष्ट्र दृढ़ संकल्पशीलता का पुंज बनकर खड़ा होता है और विश्व में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की प्रतिध्वनि गूंज उठती है।

             नारी एक होकर भी अनेक आयामों से कार्य करती है, सम्बन्धों में वह माता, भगिनी, पत्नी, कन्या सभी दायित्व एक ही साथ पूर्ण करती है, तो सामाजिक क्षेत्र में कर्मठता, निष्ठा, संवेदनशीलता, निष्पक्षता की प्रतिमूर्ति बनकर खड़ी होती है। वहीं राष्ट्रीय व वैश्विक परिप्रेक्ष्य में असीम धैर्य, निःश्रेयस के साथ निर्माण व अभ्युदय का दायित्व निभाती है।

             वह अनेक बार नैपथ्य में डाली गयी, पर दिव्य सामर्थ्यबोध से पुनः-पुनः विश्वास रूपी नेतृत्व का आधार बनकर खड़ी हुई। वृहत्संहिता में ‘पुरुषाणां सहड्डं च सती नारी समुद्धरेत्’ का वर्णन है अर्थात् सती स्त्री अपने पति का ही नहीं अपने उत्कृष्ठ आचरण की सामर्थ्य से सहड्डों पुरुषों का कल्याण करती है। (यहां सती का आशय नारी की उत्कृष्टता से है।) दूसरे शब्दों में कहें तो ‘नारी को स्वस्थ, प्रसन्न, समुन्नत, शिक्षित, उत्कृष्ट, स्वावलम्बी बनाये रखने का दायित्व समाज का है। उसकी क्षमता को विकसित करने में लगाया धन, श्रम, मनोयोग एवं समय समाज एवं राष्ट्र को असंख्यों गुना होकर लौटता है। नारी जितना समर्थ बनेगी, राष्ट्र की संतानें उतना ही सशक्त व समृद्ध होंगी, क्योंकि वह निर्मात्री जो है।

सीमाओं से परे होती है माँ:

             हर राष्ट्र के नागरिक नारी शक्ति के रक्त, रस से निर्मित होते हैं। उनमें विद्यमान चेतना का

अभिसिंचन, परिपोषण, संस्कारों का विकास मां रूपी नारी द्वारा ही सम्भव बनता है। ऐसे में यदि नारी का रक्त व रस परिपोषित होगा, तो नारी पोषित

होगी। तभी नारी की संतानें स्वस्थ व समुन्नत पैदा होंगी और राष्ट्र व विश्व प्रखर पीढ़ी से भर उठेगा। यदि मां ही दुर्बल होगी, तो विश्व से अनीति-अत्याचार मिटाने वाले सूरमा कहाँ से आयेंगे। ये सूरमा वैज्ञानिक, कलाकार, विद्वान, दार्शनिक, समाज सेवक, प्रशासक, राजनेता, मनीषी, उद्योगपति, महापुरुष के रूप में हों या देश की सीमा रक्षा करने वाले वीर सिपाही, वे सभी माँ की गोद में खेल-खेल कर

धरती माँ को पुष्पित-पल्लवित करते हैं। इसीलिए  नारी किसी एक व्यक्ति की जननी नहीं हुई, अपितु उसे राष्ट्र मां, विश्व माता की गरिमा देना भी कम ही है। वास्तव में एक-एक नारी, वह किसी भी देश की सीमा में निवास क्यों न करती हो, है वह जगद्जननी ही। क्योंकि मातृत्व शक्ति के कारण वह सदा सीमाओं से परे होती है। अतः उसे उचित सम्मान मिलना ही चाहिए।

वह देवी है:

             नारी देवी कही गयी है, देवता उसके अनुचर। इसलिए कि वह अल्प में ही संतुष्ट होती है, जबकि अनुदान-वरदान वह वृहद स्तर पर लुटाती है। संसार में कबीर, सूर, तुलसी, समर्थ गुरु रामदास, संत रविदास, वंदा वैरागी, संत तुकाराम, आचार्य चाणक्य, रामकृष्ण परमहंस, महर्षि रमण, महर्षि अरविंद, सरदार भगत सिंह, अशफाक उल्ला खां, रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, स्वामी विवेकानंद, सुभाष, गांधी, पं- श्रीराम शर्मा आचार्य से लेकर वर्तमान राष्ट्रसन्त श्री

सुधांशु जी महाराज जैसे अनेक युग दृष्टा हैं, जो देवत्व की दिव्य धाराओं को साधिकार धरा पर उतारने में समर्थ हुए। वह सभी किसी न किसी मां की कोख से जन्में। इन दिव्य पुत्रें में देवत्व से परिपूरित संस्कार उनकी माताओं ने ही भरे हैं। इससे स्वतः सिद्ध होता है कि जो जीवन में देवत्व जागृत करे, उसे देवी नहीं तो और क्या कहें?

यही है आत्मबोध का समयः

             बड़े दुःख का विषय है कि इतनी दिव्यता से ओतप्रोत नारी शक्ति के लिए ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ को ‘एक दिवस’ घोषित करके उसके उत्थान की सोचनी पड़ी। नारी जाति की यह दुर्बलता-दयनीयता, परावलम्बी, पददलित जिंदगी का कारण कहीं अलग नहीं हो सकते। इसी समाज, इसी विश्व की उसकी ही संतानों ने उसे उपेक्षा एवं पिछड़ेपन का न केवल शिकार बना दिया, अपितु, उसके अंतः की गहराई तक अबला होने का भाव भरकर नारी वर्ग को हीनता के स्तर तक पहुंचाया। यद्यपि उसकी मौलिकता आज भी दिव्य है, जरूरत है नारी को आत्मबोध कराने की। उसकी भावना को समुचित सम्मान स्नेह, प्रोत्साहन, शिक्षण, उत्कृष्ट संकल्पना से भरा जा सके, तो नारी के व्यक्तित्व पर जमंी राख हटेगी और वह पुनः अभ्युदय प्राप्त करेगी। जैसे अंगारे पर यदि राख की परत अंगारे की ज्वलनशीलता, ताप की प्रचंडता को प्रकट नहीं होने देती, ठीक वैसे ही आज की नारी भी कोयले के ढेर में उपेक्षित पड़े हीरे की तरह हो गई है। अब व्यक्तिगत स्तर से संगठनात्मक, संवैधानिक, सरकारी व वैश्विक सहकार भाव से नारी को पुनः उसकी गरिमा दिलाना ही होगा। इसके लिए हर स्तर पर प्रयास जरूरी है।

             दिव्य तपस्विनी, राष्ट्रनिष्ठ इन नारियों को वैश्विक नारीजागरण के लिए खड़ा करके विश्व को समुन्नत, समृद्ध, सशक्त बनाना, विश्व की आधी आबादी के रूप में नारी शक्ति को आगे लाना, उसके हाथ में पारिवारिक, सामाजिक, प्रशासनिक, राजनैतिक एवं आध्यात्मिक आंदोलन का नेतृत्व

सौंपना इसका प्रमुख लक्ष्य है। तभी विश्व निर्माण का मार्ग प्रशस्त होगा। क्योंकि नारी निर्मात्री है, जो अपनी संतानों का निर्माण कर सकती है, उसके लिए विश्व निर्माण कठिन नहीं। वैदिक परम्परा में भी नर-नारी दोनों साथ मिलकर कदम उठाते थे। आज युग पुनः पुकार रहा है कि विश्व की मातायें सृजन में लगें।

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