तीन गुणों का समर्थ संतुलक अमिट देश भारत | Independence Day | sudhanshu ji maharaj

तीन गुणों का समर्थ संतुलक अमिट देश भारत | Independence Day | sudhanshu ji maharaj

तीन गुणों का समर्थ संतुलक अमिट देश भारत

तीन गुणों का समर्थ संतुलक अमिट देश भारत
‘पुनर्जन्म’ अर्थात् फिर-फिर जन्मने, मरकर फिर जन्म लेने की सशक्त भावना। यह भावना ही किसी व्यक्ति को युवा बनाये रखती है। ऐसी भावना वाले व्यक्ति जिस भी देश में होंगे, उस देश में युवापन होगा व ऊर्जा शक्ति हिलोर मारेगी। ऐसी ही दिव्य चेतना वाला युवा देश है भारत। इसीलिए यह देश अनंतकाल से इस धरती पर स्थित भी है और विश्व का प्रेरक भी बनता आ रहा है। विश्व गुरु की भूमिका न जाने कितनी बार अपना भारत देश निभा चुका है। क्योंकि यहां का हर आदमी अनोखी चेतना में जीता है कि ‘‘मैं फिर मिलूंगा’’। इसीलिए जीवन भर उर्वर बना रहना चाहता है। ‘‘फिर मिलूंगा’’ अर्थात् मरकर फिर वापस आऊँगा। यही है पुनर्जन्म की शक्ति। अक्सर कहते सुनते हैं कि पहले भी हमारे बहुत जन्म हो चुके हैं, और इससे आगे भी बहुत जन्म होने वाले हैं। वास्तव में यह वह दिव्य ऊर्जा चक्र है जिसमें हम बंधे हुए हैं।

मरकर भी अमरता का स्वप्नः
विश्वभर का इंसान किसी के मोह में पड़ा दिखता है, किसी चीज के संग्रह में किसी के साथ वह लड़ाई-झगड़े में पड़ गया। कहीं वैर पला, कभी ईर्ष्या आ गयी। कहीं वासनाओं का जाल आ गया। किसी न किसी कारण दुनिया भर में मनुष्य जड़ता अपनाता रहा। पर इस भारत देश का इंसान आत्म कल्याण व लोक कल्याण भावना के लिए शुभ इच्छा जगाये रखी कि कैसे जड़ता से मुक्त हो सकता हूं? जन्म-जन्मान्तरों की कड़ी के बीच भी मस्तिष्क में भगवान का दिया, आशा का दीप जलाये रखा। श्रेष्ठता की सम्भावनायें बनाये रखीं कि वर्तमान संस्कार को धोना है, आत्म परिष्कार में आगे बढ़ना है।
यही है भारत के ऋषियों द्वारा गढ़ा यह संसार दर्शन। जिसमें न जाने कितने जन्मों का साथ जुड़ा हुआ है, हर एक का, हर किसी के साथ। मृत्यु के पार जाकर पुनर्मिलन की सम्भावना संजोने वाला देश हमारा भारत है। मरकर भी अमरता का स्वप्न यही है।

गुणों का कमालः
कहते हैं मनुष्य के अंदर तीन गुण हैं सत्व, रज, और तम। इन तीन गुणों से जिंदगी चलती है। सत्व गुण प्रकाश वाला गुण है, इसका रंग सफेद धवल है। रजो गुण गतिशीलता, जो कर्म का प्रतीक है, ये लाल है। तीसरा है तमोगुण। यह निद्रा, आलस्य का गुण है, इसलिये इसका रंग काला है। सम्पूर्ण विश्व पर नजर दौड़ायें तो भारत ही ऐसा देश है, जहां की प्रकृति में इन तीनों का संतुलन है और यहां हर व्यक्ति इनके संतुलन का प्रयास करता है। यह तो आन्तरिक गुणों की बात हुई।
वाह्य प्रकृति की दृष्टि से देखें तो कुछ देशों में 18-18 घण्टे सूरज निकलता है। कुछ जगहें ऐसी हैं जहां छः-छः महीनें की रातें और छः महीने के दिन होते हैं। संसार के सभी देशों के हिसाब-किताब अलग हैं। यह उनकी इन तीन प्रकृतियों में अंसतुलन का ही तो प्रभाव है। लेकिन भगवान ने जितनी कृपायें भारत पर की हैं, उतनी और कहीं नहीं की। अन्य देशों में किसी एक गुण अर्थात् कहीं सत ही सत प्रधान है, कहीं रज ही रज है, कहीं तम की ही प्रधानता है। इसीलिये उन देशों के लोग मानवीय मूल चेतना अर्थात् मनुष्यता के निज स्वभाव तक पहुंचने में असफल रहें। जीवन भर एकांगी होकर जीते रहे। कहीं भोग ही भोग, कहीं अभाव, कहीं तम अर्थात् आलस्य-निराशा-जड़ता है।

भ्रमपूर्ण अतिवादिताः
जीवन के लिए गुणों का सामंजस्य चाहिये। तभी धर्म और शरीर का सुख दोनों सम्भव है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ‘तत्व सत्यम्’। सतो गुण अन्य गुणों की अपेक्षा बहुत अधिक श्रेष्ठ है। सत्य व प्रकाश फैलाने वाला व्यक्ति बड़ा गुणी होता भी है। यह सतोगुण सुख देता है, पर यह मनुष्य को ज्ञान की तरफ मोड़ता हुआ, दुनिया में बांधे रखता है। वास्तव में सतोगुण भी मनुष्य को बांधता है।
यह बंधन इतना कठिन हैं कि यदि साधा न गया, तो व्यक्ति जीवन व्यवहार को तिलांजलि दे बैठैगा, तब विकास का पहिया रुक जायेगा। यदि दूसरी तरफ यह मुड़ गया तो नर संहार तक पहुंच जायेगा। नाजियों, अंग्रेजों ने यही तो किया अपनी सात्विकता के अहंकार में।
इसीप्रकार रजोगुण के लिए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि रजोगुण मनुष्य में असीम आकांक्षाओं को जन्म देता है। इसी के कारण मनुष्य तरह-तरह के कार्य करता है। जो सतत तृष्णा में इंसान को बांधे रखे, वह है रजोगुण। रजोगुणी व्यक्ति के मन में अपनी इच्छाओं को बढ़ाने का, उन्हें विस्तार देने का भाव आता है, रजोगुण मनुष्य को इच्छाओं की तरफ ले जाता है। इन्छायें उसे तरह-तरह के कर्म के लिये प्रेरित करती हैं। उन्हीं के कारण वैर भी जागता है। इसी प्रकार किसी के अंदर नींद ज्यादा, प्रमाद ज्यादा है और जीवन में पागलपन सवार रहता है, तो ऐसे व्यक्ति को कहते हैं तमोगुणी। ऐसा व्यक्ति अपने घमण्ड में रहता है। तमोगुणी के अंदर बदले की भावना आ गयी, तो मिटती नहीं।
कहा गया है कि सतोगुण मनुष्य को सुख से बांधता है, तमो गुण आलस्य से बांधता है। रजोगुण कर्मों से बांधता है। आश्चर्य कि सबसे ज्यादा अभिमान आता है सतोगुणी के कारण। जो व्यक्ति के डूबने का सबसे बड़ा कारण बनता है। अंग्रेजी राज के सूरज डूबने में उनका समत्व का अभिमान ही तो था।

जिद सत्व गुण कीः
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि सतोगुण की अभिव्यक्ति तभी कल्याणदायी हो सकती है, जब उससे किसी पीड़ित व्यक्ति के जीवन में प्रकाश फैल रहा हो। व्यक्ति होश में जिये, होश में चले, होश में बोले, सोच-समझकर काम करे। अर्थात् व्यक्ति में दूसरों की सेवा में हाथ बटाने के भाव उठें। किसी पीड़ित को देख कर उसके प्रति करुणा फूट पड़े, समाज को उठाने में वह अपनी ऊर्जा लगाने को संकल्पित होने लगे। इसके विपरीत जिस जिंदगी में सत का जोश है, पर होश नहीं। वह जिद का कारण बनती है।
विश्व के अनेक देश इसी जिद का शिकार होकर समाप्त होते गये। अनेक नव उभरते साधक भी सत के अहंकार में अपना सब कुछ खो बैठते हैं। अंत में वे वहां से भी बुरी स्थिति में पहुंच गये, जहां पहले नहीं थे। भारत की स्थिति इस संदर्भ में इसीलिए विशेष है। यहां संतुलन का चक्र प्रकृति ने ही स्थापित कर रखा है।
अन्य दशों में कोई केन्द्रक नहीं है, जिसके प्रति वहां के नागरिक अपनी प्रवाहित शक्ति व ऊर्जा को समाहित करके उतना ही स्वीकार करें, जितना वे पचा सके, जितनी उनकी जरूरत है। यही कारण है कि किन्हीं देशों में भोग बढ़ा, तो बढ़ता गया। आलस्य-निराशा-जड़ता बढ़ी, तो बढ़ती ही गयी। जबकि भारत का नागरिक अपेक्षाकृत इस पीड़ा से मुक्त है। क्योंकि यहां का व्यक्ति अपनी हर ऊर्जित शक्ति को परमात्मा व गुरु की कृपा मानता है। उसी के प्रति समर्पित करके अतिवादिता से बचता है।

गुरु शक्ति संतुलकः
यहां का व्यक्ति चेतना शक्ति के संतुलन के लिये गुरु के संग रहकर जीवन में कुछ समय तक तप करने का मौका अवश्य ढूंढता था। गुरु के संग रहकर आत्म उत्थान की योजना बनाता है। शक्ति शोधक गुरु से जुड़ने के कारण यहां के व्यक्ति का लोभ भी हितकारी बन जाता है। उसे अधिक सम्पत्ति मिल जाये, तो वह समाज में लगायेगा।
सम्राट हर्षवर्धन का ही उदाहरण लें वे राजा थे अर्थात् रजोगुणी थे, पर साल में एक बार गंगा तट पर बैठकर यज्ञ और तप करने की परम्परा उन्होंने बना रखी थी तब और आज भी इस देश् के आम लोग कम से कम एक महीने तक पूर्णिमा से पूर्णिमा तक तप करते हुए अपनी पवित्रता को बढ़ाने, पापों को मिटाने का अभ्यास करते हैं। सम्राट भी एक महीना साधना, स्नान, दान-पुण्य के काम करते थे। उनका गुरु समर्पण इस स्तर का कि वहीं के किसी सामान्य व्यक्ति से पुराने वस्त्र मांगकर, पहनकर वापस लौटते थे, बिल्कुल सामान्य आदमी की तरह।
त्याग-भावना और समर्पण इस स्तर का कि जमीन पर उतरकर लोगों के सुख-दुःख को समझकर अपनी आत्मा को इतना पवित्र और बलिष्ठ बनाते थे कि न्याय करने में कोई खोट न रह जाये। ये हमारे देश की परम्परा थी। अर्थात् यहां का राजा भी सात्विक होकर लोक करुणा के लिए जीता था और तमोगुणी सेवा के लिये जीता था। यह प्रवृति ही देश के प्रत्येक नागरिक में संतुलन की ऊर्जा जगाती थी। परिणाम स्वरूप देश का नागरिक जीवन के अंतिम दिन तक ऊर्जावान युवा बना रहता था। यह संतुलन ही हमारे देश की विशिष्टता रही है। जो भारत को विश्व में सबसे अलग करती है, इसके लिये व्यक्ति किसी न किसी साधना प्रणाली को अपनाता था। वहीं गुरु व संत व्यक्ति की प्रकृति को परखकर उसके अनुसार उसे उन विधियों से जोड़ता था कि व्यक्ति की प्रकृति संतुलित हो सके। क्योंकि संतुलन में ही पूर्णता है।

गुण संतुलक विविध पद्धतियांः
वेदों में कहा गया कि कोई यज्ञ, दान-पुण्य, कर्म एवं कर्म-फल द्वारा, कोई योग द्वारा, तो कोई अपने आपको भक्ति से जोड़कर रखता है। देश में इसीलिए भक्ति, ध्यान आदि रस वाले व्यक्ति मिलते हैं।
इसके लिए क्रमशः यम, नियम, प्राणायाम, आसन, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि तक की स्थिति घटाना यहां के जीवन संकल्प में था। यहां से आध्यात्मिकता का जीवन में प्रवेश होता था।
आध्यात्मिकता में सबसे पहला स्थान पवित्रता है। दूसरा शौच, सन्तोष और सन्तुष्टि। तीसरी चीज भक्ति, आगे तप अर्थात् कष्ट सहन करना। सेवा भी एक नियम है। सेवा के लिये खुद के मान से मुक्ति। सेवा से हमारा भाग्य जल्दी से जल्दी सौभाग्य में बदलता है, जब व्यक्ति अपना अहंकार त्यागकर, अपने गुरुदेव परमात्मा की आराधना मानकर जरूरतमंद की सेवा करता है। अपने जीवन की अव्यवस्था को व्यवस्था में बदलता है, तो सेवा फलित होती है।

राष्ट्रीयता की स्थापना के लिये, अपनी आंतरिक व वाह्य प्रकृति में संतुलन लाने के साथ जीवन के अष्टांग नियमों का अभ्यास आवश्यक है। यहीं से जीवन में परमात्मा प्रवेश करता है। ऐसी अवस्था में साधक में संतुलन जगता है कि सज्जनों की, भले लोगों की रक्षा हो और दुष्ट लोगों का विनाश हो। अच्छाई और सच्चाई दुनिया में बनी रहे, बुराई मिटे। सज्जनों को संरक्षण मिले और दुर्जनों का सिर नीचा हो, जिससे दुनिया में अच्छाई फैले। इस प्रकार जो कार्य भगवान के हैं, वही कार्य भक्त करने लगता है। यही जीवन में राष्ट्रीयता की स्थापना।
ऐसे नागरिक का निर्माण जो दुष्टता को बर्दाश्त न करे। अभिमान न करे, स्वाभिमान कभी छोड़े नहीं, धर्म और भगवान के प्रति श्रद्धा रखें। फिर भी निर्लिप्त रहे, गुरु ही गढ़ सकता है।
गुरु भाव जगाता है कि हमारे अंदर के गुण असंतुलित कैसे रह गये? एक का प्रभाव अर्थात् सतोगुण प्रभाव जमाकर बैठा हो, तो साधक में जीवन कर्म के लिये रजोगुण की जरूरत अनुभव करता है। वह अनुभव कराता है कि ऊर्जा की पूर्णता के लिये तमोगुण की भी जरूरत और जागकर शांत बने रहने के लिये सतोगुण चाहिये। इसी प्रकार रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सतोगुण अंदर बैठ सके, ऐसी कोशिश भी करता है। इस प्रकार अनन्तकालीन यह यात्रा ही साधक को ऊर्जावान-आशावान-उर्वर बनाकर रखती है। जब तक कि जीवन लक्ष्य पा ले। इस देश की मिट्टी में समायी यह प्रवृत्ति ही देश को नव युवा बनाये रखने, अमिट रखने की चेतना जगाती है। अतः नागरिक का प्रत्येक कार्य राष्ट्र योग आत्मयोग बनता है।

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