मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ! इसे समाज के बीच ही रहना होगा औऱ ऐसा हो ही नही सकता कि आप सदा मीठी मीठी ज़िंदगी -जीवन ही जियोगे! रिश्तों के बीच उतार चढ़ाव तो आएंगे ही! एक सफल जीवन की कल्पना
सबसे अधिक तो हम परिवार के बीच ही यह अनुभव करते हैं ! जो रिश्ते हमारे जितने करीब के होते हैं ,उतने ही अधिक दुखदायी भी होते हैं! इस उतार चढ़ाव के बीच हमे रहना भी होगा और स्वयम को संतुलन में भी रखना होगा अन्यथा जीवन के कड़वे अनुभव हमे विचलित कर देंगे ओर हम अपना जीवन विषैला कर लेंगे!
मोह ही व्यक्ति को सबसे अधिक रुलाता है! जो अपने सबसे प्रिय हैं उन्ही के कठोर वचन हमे आहत करते हैं! जिन बच्चों को आपने कंधों पर बिठाकर दुनिया दिखाई ,वही बड़े होकर जब कहते हैं कि आपने हमारे लिए किया ही क्या है? तब व्यक्ति टूटकर बिखर जाता है !
भावनात्मक चोट ही सबसे ज्यादा व्यक्ति को आहत करती है! जिह्वा से बोले गए कड़वे वचन -जीवन भर भुलाए नही जाते , मानो छप गए हों ह्रदय पर! ओर ऐसी चोट अपने सबसे अधिक प्रियजनों से ही मिलती है! इसलिए हमें सजग होकर जीवन जीना चाहिए ,बहुत अधिक भावुकता दुख का कारण बनती है!
अपने कर्तव्य भी पूरी तरह निभाओ पर मोह के बंधन में मत बांधों ! अंत समय भी व्यक्ति को मोह ही रुलाता है , प्राण छूटते समय तक यदि आप संबंधों के , वस्तुओं के , धन के ,जमीन जायदाद के किसी भी मोह में बंधे हैं! तो व्यक्ति के प्राण भी सरलता से निकल नहीं पाते !
इसलिए समय रहते अपने को जाग्रत करने के लिए गुरु की शरण ओर उनके वचनों पर अनुशरण अति आवश्यक है ! क्योंकि गुरु ही आपको जीवन की सत्यता से अवगत कराते हैं और इस मोह के पाश से मुक्त करते हैं !
निवेदन यही की इससे पहले की जीवन की ठोकरें आपको सिखाएं , खुद ही संभल जाओ जैसे जैसे आयु बढ़ने लगे! उपराम होना शुरू करो, जब आपके दायित्व पूर्ण होने लगे तो अपना एक पैर घर मे ओर एक पैर गुरुधाम की ओर बढ़ाओ यानी समय को बांटना है कि हम थोड़ा समय घर के लिए रखे और अधिक समय गुरुकार्यो के लिए , सेवा के लिए अर्पण करें !
जीवन तो किसी न किसी तरह पूर्ण हो ही जायेगा! इसका सही उपयोग किस तरह करें कि हम अपने उद्देश्य भगवान को भी प्राप्त कर सके और सामाजिक दायित्व भी अच्छी तरह निभा सके जिससे एक सफल जीवन की कल्पना करते हुए ,गुरु की शरण मे रहते हुए लोक भी सुधार सकें और परलोक भी –यही जीवन की पूर्णता है !