आश्चर्य है कि संसार में बिना टकराये व बजाये कुछ नहीं बजता, लेकिन ‘‘ओ३म्’’ ऐसी ध्वनि है, जो बिना चोट के प्रकट होती है, अर्थात अनाहत निकलती रहती है। इसके उच्चारण के लिए मुंख में कहीं भी जीभ नहीं लगती और ओम उच्चारण पूरा होता है। जीभ बीच में, न ऊपर, न नीचे और ओठ भी पूरे इस तरह ‘‘ओ३म्’’ बोलते जैसे दिखते हैं। बिना जीभ टकराये ध्वनि प्रकट होती है।
इसीलिए भारतीय परम्परा में ऐसे वाद्ययंत्र की परम्परा थी, जिसमें बाहरी टंकार की अधिक जरूरत न हो, जैसे मीरा का इकतारा यही है। सब ध्वनियां आहात ध्वनियां हैं ‘‘ओंकार’’ अनाहात ध्वनि है, बिना बाहरी दबाव के प्रकट हो जाती है। जो बिना टकराने से प्रकटे, इसीलिए ये अनाहात ‘‘अनहद नाद’’ है। अनाहात का कमाल यही है, जो बिना बजाए बजे। अनाहात ध्वनि से पूरी दुनिया के शब्द प्रगटे हैं। जबकि संसार की सम्पूर्ण ध्वनियां आहात ध्वनियां हैं। आहत अर्थात जो टकराने से प्रकटे। वाद्ययंत्रें पर उंगलियां चलेंगी तो आवाज आयेगी।
ओम के अतिरिक्त अन्य अक्षरों में भी जीभ आदि अंगों की आहात व चोट पड़ती है, टकरायेगी तो आवाज होती है। इसलिए ऋषि-मुनियों ने ओंकार का श्रद्धा से पूजन, सम्मान किया, जीवन में धारण किया और अनुभूति करके बताया कि यह ध्वनि दुनिया को परमात्मा से, गुरुतत्व से मिलाती है।
जैसे घड़ी का पेण्डुलम स्वयं के साथ-साथ घड़ी के सभी पुर्जों को गतिशील रखने के लिए ऊर्जा बनाता और संचरित करता है, ठीक उसी तरह सृष्टि की परा-अपरा, चेतन से लेकर जड़ तक हर कण कण की विधि-व्यवस्थायें ॐ ओंकार नाद से ऊर्जा पाकर स्वसंचालित हैं। अनन्तकाल पूर्व से हमारे ऋषिगणों ने ॐ ओंकार को शब्दब्रह्म के रूप में अनुभूति कर लिया था।
इसे प्रकृति और पुरुष के मूल का सम्बन्ध सूत्र मानते हुए ओंकार के साथ अपनी तारतम्यता स्थापित करने के लिए हमारे संतों, ऋषियों, योगियों ने ध्यान, जप, योग, प्रार्थना, समर्पण, कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग से लेकर बहुविध प्रकार के निगुर्ण-सगुणात्मक साधनाओं का अनुसंधान किया और जन जन के आत्मकल्याण हेतु उन विधियों से लोगों को जोड़ने का प्रयास करते आ रहे हैं। इस धरा के कल्याण हेतु सम्पूर्ण विश्व भर में परमात्मा द्वारा भेजे गये अपने प्रतिनिधि संत, गुरु, फकीर, आचार्य आदि इसी तत्व को अपने शिष्यों, अनुयायियों के अंतःकरण में स्थापित करने हेतु आज भी प्रयासरत हैं।
‘‘ओ३म्’’ में परमात्मा का असीम प्रेम समाया है, विकास के तत्व, पोषण के तत्व बसे हैं। परमात्मा ने इसमें सारे साधन भर दिये हैं। जहां भी हम उसे जपने लग जायें, वह तप-स्थल, तीर्थ हो जाता है। बैठें, पुकारें और अपना मन उसकी तरफ लेकर चलें, तो जिंदगी में बहुत बड़ा परिवर्तन शुरु हो जाता है। इसके उद्गीत ध्यान को नित्य करने से साधक ब्रह्माण्ड की दिव्य ऊर्जा से जुड़ जाते हैं और जीवन आनन्द से भर उठता है। हमारे ऋषियों की मान्यता है कि जो साधक प्रकति के साथ घनिष्ठता साधने में सफल है, वही ओंकार नाद के निकट पहुंच सकते हैं। जो ॐ ओंकार नाद के सहारे परब्रह्म से घनिष्ठता साधने में सफल होते हैं, उसे प्रकृतिगत एवं ब्रह्म चेतनात्मक सम्पूर्ण सम्पदाओं-विभूतियों, ऋद्धियों-सिद्धियों का वैभव सहज प्राप्त हो जाता है।
अनुभव करने वाले साधकों का कहना है कि ॐ ओंकार नाद की साधना से सर्व प्रथम कान में सूक्ष्म आहत ध्वनि की अनुभूति होती है, तत्पश्चात मन केंद्रित होने लगता है और सूक्ष्म प्रकृतिगत हलचलें अनुभव में आती हैं, इसके बाद क्रमशः ‘अनाहत’ ध्वनि से जुड़ाव होने लगता है। जो साधक साधनामार्ग में विवेक पूर्वक टिके रहते हैं, उन्हें एक दिन परब्रह्म की अनुभूति सहज होने लगती है। परिणाम स्वरूप साधक अपने को पूर्ण व तृप्त अनुभव करता है। इसके अक्षर ‘अ’ ‘उ’ एवं ‘म’ के उच्चारण के लिए नाभि की प्राणवायु से श्वास प्रारंभ करके ओष्ठों तक 08 सैकंड, मस्तक तक उ एवं म् का उच्चारण 04 और 03 के अनुपात में अर्थात 7 सेकेन्ड, इस प्र्रकार 15 सैकंड में ओंकार का 8, 4, 3 के अनुपात से उच्चारण करने से सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति होती है और साधक मोक्ष का अधिकारी बनता है।
यह पवित्र गुरुपूर्णिमा काल है, इस दिव्य वेला में शिष्य की पात्रता और श्रद्धा अपने चरम पर होती है, शिष्य के अंतःकरण में गुरु केंद्र अंकुरण की बेला भी इस काल को कहते हैं। अंतःनाद के जागरण का शुभ मुहूर्त भी यही माना जाता है। ऐसी बेला में गुरु अपने पावन सान्निध्य में साधक को लाकर शिष्य की आत्मा में परमात्मा का प्रकाश जगाने के अधिक अनुकूल होते हैं। इसीलिए गुरुपूर्णिमा जैसे इस दैवीय मुहूर्ति काल में सद्गुरु द्वारा अपने प्रतीक्षित शिष्य को गुरुमंत्र जैसा महाकचव-ब्रह्मकवच देने का विधान है, जिससे साधक गुरुमंत्र के नियमित अभ्यास से खुद का खुद से परिचय पाता है।
अपनी आवश्यक कामनाओं की पूर्ति तथा अनुपयुक्त कामनाओं से मुक्ति पाता है और मोक्ष का अधिकारी बनता है। शिष्य में गुरुतत्व जगाने की यह परम्परा युगों-युगों से चली आ रही है। गुरु से प्राप्त मंत्र कवच को साधन कहते हैं, जिसके नियमित भजन अर्थात अभ्यास से शिष्य व साधक इसी ओंकार रूपी शब्द ब्रह्म की अनुभूति करता है। चहुंदिश गूंज रहे ओंकार नाद से जैसे जैसे तारतम्यता बढ़ती है, अंतःकरण में गुरुतत्व जगता है, कल्मष, दुर्गुण, दुर्व्यसन उड़ते जाते हैं और शिष्य आत्मज्योति जागृत करके परमात्मा का प्रकाश पाने का अधिकारी बनता है।
ये समस्त प्रश्नों के उत्तर सहज मिलते हैं। जीवन में पूर्णता एवं सिद्धि आती है। शिष्य ज्ञान की ओर, प्रकाश की ओर, अमरत्व की ओर बढ़ चलता है। ऋषियों ने शिष्य के इस आध्यात्मिक जागरण में गुरुतत्व रूप में व्याप्त ओंकार चेतना की महत्वपूर्ण भूमिका कही है। ओंकारनाद की महिमा को आत्मसात करने वाले हमारे प्रत्येक साधक शिष्य का जीवन ऋद्धि-सिद्धि व सुख-समृद्धि से भर उठे, गुरुपर्व पर यही आशीर्वाद है।
3 Comments
Shri Gurudev ke Charnon main Koti Koti Pranaam
हरि ॐ जी
जय श्री गुरू महाराज दी
श्री गुरु चरणों में कोटि कोटि प्रणाम
सद्गुरु जी अति अद्भुत wow अद्भुत
अतीव सरल, सुंदर शब्दों में ॐ प्रणवक्षर की उच्चरण व परब्रह्म से साक्षात्कार की विधि देने के लिये शुकराना जी शुकराना
Thanks a lot Guruwar
Hame guru karna hai