गुरु-शिष्य के सम्बंध का प्रारम्भ गुरुमंत्र दीक्षा से होता है और अडोल आसन पर गुरुनिर्देशित जप, उपासना, जीवन साधना, स्वाध्याय, सत्संग, गुरुसंकल्पित सेवा में भागीदार बनने से साधना को गहराई मिलती है और दीक्षा जीवन में फलित होती है। गुरुदीक्षा’ गुरु-शिष्य के बीच दैवीय अनुशासन अनुबंधों का बीजारोपड़ है, जिससे जीवन आंतरिक एवं वाह्य हर स्तर पर खिलता है।
गुरुनिर्देशन से जुडे़ प्रयोगों से शिष्य का अज्ञानता रूपी अंधकार जैसे जैसे दूर होता है, शिष्य के स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीरों का जागरण प्रारम्भ होता है, इस प्रकार एक सीमाबद्ध व्यक्ति वसुधैव कुटुम्बकम रूपी विराट यात्र की ओर चल पड़ता है। खास बात यह कि दीक्षा द्वारा शिष्य को सद्गुरु से उनके तप, प्राण एवं पुण्य का एक अंश प्राप्त होता है, वहीं जप, उपासना, सिमरन, सत्संग, सेवा आदि प्रयोगों के सहारे क्रमशः अंतःकरण में पुष्पित पल्लवित होता है। गुरु द्वारा प्राण-पुण्य-तप का अंश शिष्य के अंतःकरण में स्थापित करने की गंभीर सूक्ष्मतम आध्यात्मिक प्रणाली ही दीक्षा है, जिसके बल पर श्रद्धावान शिष्य प्रकाश की ओर चलता है, परमात्मा की ओर चल पाता है।
संतों के अनुभव बताते हैं कि गुरुदीक्षा से शिष्य के देखने की दृष्टि बदल जाती है, सावधान शिष्य अपने आत्म अस्तित्व से साक्षात्कार करने लगता है। दूसरे शब्दों में गुरु द्वारा शिष्य की ‘आत्म पुकार’ को दिशा देना यही तो है। एक ऊर्जा पुंज रूप में गुरु अपने शिष्य के जीवन में आकर उसके रिक्त अंतःकरण को पूर्णता के तप बिन्दुओं से भरता है। आत्म विशेषज्ञ कहते हैं-
‘‘शिष्य अपने श्रद्धाभरे अंतःकरण की जिस ऊर्जा फ्रिक्वैंसी से विश्व ब्रह्माण्ड में कारण स्तर पर व्याप्त गुरुतत्व की ओर अपनी संवेदना प्रेषित करता है, उसी फ्रिक्वैंसी व उसी तीव्रता से सूक्ष्म जगत शिष्य के सामने गुरु के किसी साकार स्वरूप को ला खड़ा करता है। इस प्रकार शिष्य अपने साकार गुरु के झरोखे से परमात्मा के मार्ग पर दौड़ पड़ता है। शिष्य को अपने आत्मिक अनुशासन से जोड़कर परमात्मा तक पहुंचाना सदियों से सद्गुरुओं पर यह दायित्व रहा है। प्राचीनकाल से भारत में यही गुरुओं की अनोखी निर्माण परम्परा चली आ रही है।
वैसे मंत्रदीक्षा गुरुमुख होने की प्रारम्भिक अवस्था है, जिसमें गुरु अपनी प्राण चेतना को निर्धारित मंत्र व विधि से शिष्य की पात्रता के अनुरूप उसकी चेतना में स्थापित करता है। इसी को गुरुमुख होना भी कहते हैं। यह ठीक वैसे ही है, जैसे कोई माली सावधानीपूर्वक किसी पौध की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए ‘कलम’ करता है। शिष्य गुरुमुख होने के बाद गुरु द्वारा दिये मंत्र को अपने श्रद्धा-समर्पण के अनुसार नियमित जप-उपासना में लाता है। नित्य गुरुमंत्र जप से शिष्य की श्रद्धा एवं आंतरिक पात्रता में सतत विकास होता जाता है। यदि यह अनुशासन बना रहा तो शिष्य एक दिन अपने गुरु सहित सम्पूर्ण समाज-राष्ट्र को गौरवान्वित अवश्य करता है।
प्रश्न उठता है गुरुदीक्षा के बाद गुरु और शिष्य के बीच का यह रिश्ता निभता कैसे है, तो उत्तर मिलता है श्रद्धा-निष्ठा के बल पर। शिष्य के लिए ‘गुरु’ के साथ श्रद्धाभरा रिश्ता माना जाता है। क्योंकि यह सम्बंध दोनों की प्राण चेतना के साथ सीधा जुड़ता है। ‘‘गुरु ऐसा चुम्बक है, जिससे शिष्य का जीवन जुड़कर फलित हो उठता है, अंतःकरण की सोई चेतना जग उठती है। इस तरह जीवन नियम में, नियम आसन में, आसन जप में, जप ध्यान में, ध्यान सेवा में, सेवा समाधि में और समाधि समर्पण में गुथकर सम्पूर्ण व्यक्तित्व रूपांतरित होने लगता है। यह एक प्रकार का रहस्यात्मक मिलन है।
गुरु-शिष्य के मिलन व गुरुदीक्षा के बाद गुरु निर्देशित साधनात्मक प्रयोगों को सफल बनाने हेतु शिष्य के लिए आसन सिद्धि आवश्यक है। मान्यता है कि शारीरिक व मानसिक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए कोई साधक विशिष्ट समय, विशिष्ट मन्त्र व गुरु मंत्र जप श्रद्धाभाव से 41 दिन लगातार एक आसन में बैठकर करता है तो आसन सिद्ध होता है। इसके बाद सामान्य अनुशासन में किया गया गुरुमंत्र जप व ध्यान साधक को साधना की गहराई से जोड़ता व व्यक्तित्व को आध्यात्मिक बनाता है। हर सावधान साधक को यह प्रयोग करके लाभ उठाना चाहिए।
वैसे भी साधक के जीवन में कुछ घटित होने की शुरुवात बिना आसन की अडोलता के सम्भव नहीं है। इसके बाद दीक्षा पुष्पित-पल्लवित करने में गुरु प्रदत्त मंत्र का नियमित निर्धारित संख्या में जप व सिमरन सहायक बनता है। इसके अतिरिक्त दीक्षा फलित करने की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कसौटी संयम है, इंद्रिय संयम, विचार संयम, समय संयम व धन-साधन संयम। इसी के साथ नियमित स्वाध्याय व सत्संग का योगदान आता है। इससे शिष्य को अपनी आध्यात्मिक पात्रता संवर्धित करने तथा गुरु दीक्षा को गहराई देने में सहायता मिलती है।
रात को नींद में जाने के 17 मिनट पूर्व अपने जीवन में जो चाहते हैं, उसे चलचित्र के रूप में अनुभव करने पर विशेष बल देते हैं, जो साधक अपने अवचेतन मन में इसे उतारने में सफल होता है, वह एक दिन उसे व्यवहार में परिणत होते देखता है। यह अभ्यास जो लगातार करता है, उसका मस्तिष्क ब्रह्माण्ड के मस्तिष्क से जुडने लगता है, तत्पश्चात वैसा ही जीवन में भी फलित होता है।’’ इसके अतिरिक्त गुरुदर्शन, गुरुआश्रम की नित्य मानसिक यात्र के साथ गुरुनिर्देशित सेवा से शिष्य का आत्मबल सशक्त होता है और दूसरों के कल्याण की शक्ति भी शिष्य में जगने लगती है। इन क्रमिक सोपानों के अनुसार आइये अपनी दीक्षा को गहराई दें और जीवन का आध्यात्मिक सोपानों से जुड़े ड़ें।
1 Comment
Mumbai, ke ghodbunder Wale aashram me kub hoga ?