कहते हैं ‘‘व्यक्ति की किस्मत परमात्मा लिखता है। पर उसका विधान इस प्रकार है कि भाग्य की जीवन में 40%, कर्म की 40% एवं 20% भूमिका कृपा की होती है। संचित कर्म के बीज को तप, साधना, भक्ति के द्वारा मिटाया जा सकता है, लेकिन वही संचित कर्म जब प्रारब्ध बन जाता है, तो उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। इसलिए कठोर तप, सेवा, जप, ध्यान और गुरु कृपा प्राप्त करके अपने संचित कर्म को मिटाने पर ध्यान देना चाहिए। क्रियमाण, संचित एवं प्रारब्ध तीन प्रकार के कर्मों में क्रियमाण कर्म ही संचित फिर प्रारब्ध बनता है।
मान्यता है कि बुद्धिमत्तापूर्वक सद्कर्म, दान, सत्संग, सेवा, पूजा-जप करने, माता-पिता की सेवा व गुरुजनों का आशीर्वाद प्राप्त करने से जीवन में सौभाग्य जागृत होते हैं। इसलिए कहा गया है कि अपने धन में से 2% अंश दान अवश्य करें। स्वास्थ्य संवर्धन, सेवा, जप के लिए समय निकालें, इससे व्यक्ति बदकिस्मती के समय भी सुरक्षित रह सकता है। स्वयं पर नियंत्रण, वाणी पर नियत्रंण, स्वाद पर नियंत्रण, लालच भरी दृष्टि पर नियंत्रण साधकर चल सके तो जीवन में धर्म उतरता है। धर्म से जुड़ने से हम ईश्वर के निकट होने लगते हैं।
इस सबसे जीवन कष्टों से बचा रहता है, मुसीबतें आती हैं, पर कुछ विगड़ता नहीं। यही महत्वपूर्ण भूमिका होती है कृपा की। गुरु का रक्षा कवच कर्म की लाख जटिलताओं में भी अपनी भूमिका निभाता है और भाग्य को डूबने नहीं देता। साधक के सुख सौभाग्य का मार्ग प्रशस्त करता रहता है। परन्तु जीवन में इस कृपापूर्ण सौभाग्य के लिए अपने सद्प्रेरक व सद्गुरु से जुड़े रहना आवश्यक है। परमात्मा की ओर सफल यात्र का आधार भी गुरु ही है। इसीलिए जगह-जगह गुरु महिमा गाई गयी है। गुरु के साथ पूर्ण श्रद्वा, पूर्ण प्रेम, पूर्ण शांति, पूर्ण ऊर्जा, पूर्ण आनंद से जुड़ना आवश्यक है। सद्गुरु के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा ही कृपापूर्ण भूमिका निभाती है।
गुरु का चित्त में स्मरण मात्र से शिष्य के अंतःकरण में करुणा का जागरण हो, आलस्य-पाप दूर हो उठे तो समझ लें श्रद्धा अपना काम कर रही है। इससे शिष्य अविद्या से भी मुक्ति पाता है। गुरु व गुरुमंत्र का ध्यान, सुमिरन करने वाली नारी अखण्ड सौभाग्यशाली बनती है तथा उसका चित्त सदैव अडिग एकनिष्ठ बना रहता है। सत्यनिष्ठ साधकों को गुरु ध्यान से ब्रह्म विद्या की प्राप्ति होती है और ऐसे साधकों का सहड्डधार स्थित ब्रह्मकमल खिल उठता है।
गुरुध्यान से जीवन में समृद्धि, तप के प्रति उत्साह जगता है, दिव्य तेज प्रकाशित होता है तथा जीवन एवं हृदय से दुख, दरिद्रता एवं कुमति, कुविचार एवं दूषित भावों का नाश होता है। इसीलिए जो शिष्य गुरुतत्व का ध्यान-अनुसंधान करने में संलग्न हैं, उनके कर्मबीज जलकर भस्म होते हैं और जीवन का सौभाग्य जगता है। तभी तो कहते हैं कि न कर्म बड़ा है न भाग्य। जिस पर सद्गुरु की कृपा है, ईश्वर से निकटता है, उसी का जगता है सौभाग्य। सहज ही परमात्ममय होकर जीवन जीता है।
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परम पूज्य पतित पावन श्री सदगुरु देव महाराज जी के श्री चरणों में कौटी कौटी परणाम नमंन भागयशाली महशुश कर रहे हैं शुक्रिया बहुत बहुत शुक्रिया जय हो सदगुरु देव महाराज जी जय हो सभी भक्तों पर दया करुणा बनाये रखना सदगुरु देव महाराज औम गुरुवै नम औम नमो भगवते वासुदेवाय नम
कोटिश: नमन महाराज श्री।।