विश्व भर में आज योग का डंका बज रहा है, विगत दो दशक में योग का जन विस्तार हुआ है, लेकिन याद करें विगत 30-35 वर्ष पूर्व का वह दौर जब योग विज्ञान योगाभ्यास उसी तरह की कल्पना आम जनमानस से कोशों दूर थी। उन दिनों देश के एक-दो साधनाश्रमों-विश्वविद्यालयों तक योग सीमित था।
पहला मिशन द्वारा योग विज्ञान संकल्पित साधना शिविरों में गुरुदेव के निर्देशन में ध्यान-साधनाओं में योगासन के अनेक पक्षों का प्रयोग कराये जा रहे थे। इस प्रकार मिशन से जुड़कर लाखों भक्तों, शिष्यों, युवा विद्यार्थियों-महिलाओं ने पूज्य महाराजश्री के मार्गदर्शन में विविध आसनों, प्राणायामों, बंद-मुद्राओं के योगाभ्यास सूत्र सीखे। इसी क्रम में विविध क्षेत्र से जुडे़ सरकारी-गैरसरकारी प्रकल्पों के सेवाकर्मी, जीवन साधकों ने जीवन प्रबंधन, तनाव प्रबंधन, समय प्रबंधन के लिए योगभ्यास के विविध पक्षों के याग अभ्यास का लाभ लिया। साधकों की साधना को गहराई देने के लिए भी पूज्य सद्गुरुदेव उन्हें सर्वप्रथम आसनों का योगाभ्यास अवश्य कराते थे।
योग स्वयं में दर्शन, विज्ञान एवं व्यवहार के शुद्धतम समुच्चय का विज्ञान
पूज्य श्री सुधांशु जी महाराज कहते हैं– ‘‘योग स्वयं में दर्शन, विज्ञान एवं व्यवहार के शुद्धतम समुच्चय का विज्ञान है। दूसरा इससे शरीर, मन, भावों में परस्पर तारतम्यता बढ़ती है। अनंतकाल से यहां के ऋषियों-योगियों के लिए योग जीवन निर्माण, जीवन प्रबंधन का विषय रहा है, शोधमय व्यवहार का विषय रहा है। हमारे ऋषिगण हर नागरिक के जीवन को योगमय बनाकर उन्हें समाज के नवनिर्माण से जोड़ने में सदियों से संलग्न रहे हैं, परिणामतः हमारे देशवासियों की सम्पूर्ण जीवन व्यवस्था योगमय रही। यहां की जीवनशैली, यहां की परिवार व्यवस्था, समाज निर्माण की परम्परायें, राष्ट्रीय रीति-नीतियां योग चेतना से प्रेरित रही हैं। शरीर को स्वस्थ, मन को स्वच्छ एवं आत्मा को परिष्कृत करना व्यक्ति को अपने निज स्वभाव में स्थिर करना हमारे योग का लक्ष्य है।’’
योग में युगीन समस्याओं का समाधान एवं युग की पीड़ा निवारण है
तीसरा, यहां सदियों से समय-समय पर नव यौगिक क्रांति हेतु नये-नये योगियों का प्राकट्य होता रहा है। कभी इन्हें परमात्मा का प्रतिनिधि कहा गया, कभी संत, गुरु, ऋषि, योगी व भगवान से संबोधित किया। राम, कृष्ण, गौतम, बुद्ध से लेकर अनेक ऋषि एवं वर्तमान योगचेतना के सृजेता संतगण उसी परम्परा के वाहक हैं। योग में युगीन समस्याओं के समाधान एवं युग की पीड़ा निवारण का विधान निहित है, इसीलिए भारतीय योग सदैव मान्य रहा।
योग मूलतः जीवन के मूल की खोज है
फिर योगमय जीवन हमारे भारत की पहचान है। आंतरिक चेतना को विश्वव्यापी बनाने की संकल्पना वाला देश है भारत। भारतीय जीवन में योग मूलतः जीवन के मूल की खोज से जुड़ा है, भारतीय चेतना में रचा-बसा ‘योग’ आसन एवं क्रिया पद्धतियों से कहीं आगे चेतना का समग्रता के साथ रूपांतरण में समर्थ है, यह ऐसा आत्म अनुसंधानात्मक विज्ञान है, जिसके प्रयोग से जीवन में भौतिकी के नियोजन की उच्च स्तरीय कला स्वतः जागृत हो उठती है। इसके विपरीत पश्चिम में योग एक विधा विशेष के रूप में महत्व पाता है।
अंत में इसके अतिरिक्त जीवन जीते हुए लोगों से जो गुनाह हुए हैं, उनको अपराधबोध से मुक्त करने हेतु प्रायश्चित की विशेष शैली रूप में भी योग को लोगों तक पहुंचाया। अर्थात गुनाह और प्रायश्चित के बीच संतुलन रूप में भी पूज्य महाराजश्री ने योग को प्रस्तुत किया। इस प्रकार लाखों लोगों में अपनी गलतियों को अपने सदगुरु व अपने श्रेष्ठ संबंधी के सामने स्वीकार करने का साहस जगा और वे अंदर से प्रायश्चित करने का मार्गदर्शन पाकर अपराधबोध से मुक्त हुए। अर्थात गुरुवर ने अंतःकरण को परिष्कृत करने की शक्ति के रूप में योग को प्रतिष्ठित किया।
परित्रणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्ः
विश्व वसुधा को देवमय बनाना
गुरुदेव ने असंख्य लोगों में अपना आशीष देकर यह साहस जगाया। यही नहीं करोड़ों शिष्यों को राग, द्वेष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, अहम आदि-आदि से योग द्वारा मुक्त कराया।
कहने का आशय है कि हम सब अपने आप को योग से जोड़ें, जीवन में योग को स्थान दें, अब मान लीजिए योगमय वातावरण में जियें, योग भाव से संग्रह करें तो जीवन और समाज सब कुछ योगमय उठेगा, यही योग का अंतिम लक्ष्य है। तभी सब मिलकर विश्व वसुधा को देवमय बना पायेंगे। पूज्य महाराजश्री के विश्व को योगमय बनाने के संकल्प को डॉ- अर्चिका दीदी आगे बढ़ाने हेतु अहर्निश संकल्पित हैं।