दुर्योधन के मन में पाण्डव के प्रति बचपन में पड़ी ईर्ष्या की छोटी सी लकीर बढ़ती गयी। परिणामतः आगे चलकर सत्ता संघर्ष का कारण बनी और महाभारत जैसा रौद्र रूप सामने आया। बडे़ होकर दुर्योधन कौरवों के अगुआ बने, वे सभी किसी भी तरह पांडवों को राज्य संभालने का मौका देना नहीं चाहते थे, इसलिए पाण्डव को मार्ग से हटाने की कुत्सित रणनीति रचते रहे। इसी के तहत लाक्षागृह में पांडवों को मारने की कोशिश हुई। वर्णन आता है कि नगर के बाहर वार्णावर्त में एक सुंदर मेला लगा था, इसी मेले में लाख का घर बनाया गया। जिसमें पांडवों को रात्रि में शयन कराने की योजना बनी, बाकी लोग बाहर ठहरे।
वार्णावर्त के मेले में पाण्डवों की ओर से सभी निश्चिंत थे ही, चौकन्ना अगर कोई था तो विदुर। विशेष कि धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर तीन भाई थे, इसमें विदुर धर्मात्मा, विद्वान और पांडवों के शुभचिंतक थे। इसीलिए शासन का सम्मान करते हुए भी पाण्डवों के हित में लगे रहते थे। इसी क्रम में विदुर को अपने गुप्तचरों से जब पता चला कि दुर्योधन हर स्थिति में पांडवों को नष्ट करना चाहते हैं, सम्भव है आग लगा कर जला भी दें, तो चिंतित हो उठे और पाण्डव को बचाने में लग गये।
कहते हैं कि वार्णावर्त जाते समय युधिष्ठिर जब आशीर्वाद लेने के लिए विदुर के चरणों में झुके। तभी विदुर ने युधिष्ठिर को प्रश्नकूट के सहारे संकेत कर दिया। सच में तब के गुप्त संकेतक ही भिन्न थे, विदुर द्वारा युधिष्ठिर को प्रश्न शैली में दी गयी गुप्त सूचना अद्भुत थी। विदुर प्रश्न करते हैं कि युधिष्ठिर अचानक जंगल में आग लगने पर कौन सा ऐसा जीव है, जिसे उससे कोई फर्क नहीं पड़ता? यहां जंगल की आग पर जोर दिया गया जो अचानक दावानल अर्थात एक गोल घेरा बनाकर फैलती आग है। चारों तरफ से जलती हुई बीच में आती आग दावानल है, जिसमें बीच में फंसे हुए जानवर जलकर मर जाते हैं। तब युधिष्ठिर ने उत्तर में कहा उस आग में चूहा बचता है, क्योंकि चूहा जमीन में बिल बनाकर, उसमें 6 अन्य छेद बनाकर रखता है। आग का धुआं एक छेद से जाकर दूसरे द्वारा बाहर निकल जाता है और चूहा सुरक्षित बच जाता है।
युधिष्ठिर के मन में विदुर काका का अचानक पूछा गया प्रश्न कौंध गया कि बिना प्रसंग, संदर्भ व बिना किसी कारण कभी भी काकाश्री कोई बात नहीं करते, अतः अवश्य इनके प्रश्न का कोई न कोई अर्थ अवश्य है। यह प्रश्न पाण्डवों के मन में कौंधता रहा कि सम्भव है उस लाक्षागृह में कोई ऐसी आग अवश्य लग सकती है, इसलिए बचने के लिए जमीन में सुरंग खोद लेना चाहिए। तभी आगे रास्ते में एक व्यक्ति मिला, जिसने इशारे में बताया कि मैं भूमि सुरंग खोदने वाला हूँ । पाण्डव मेला स्थल पहुंच गये, सारे राग-रंग, नृत्य का आनंद लेते रहे, लेकिन जब रात्रि में सोने के लिए गए तब उन्हें फिर वही खनित्र द्वार से झांकता मिला और उसने जाते समय एक पत्ते को गिराया, यह देखकर पाण्डवों को काका विदुर का प्रश्न समझ आने लगा कि इस महल की लकड़ियों में लाख अर्थात ज्वलनशील पदार्थ लगा है। यह भी समझ में आ गया कि इसी भवन में ठहराकर हम लोगों को जलाकर मारने की योजना है। अब आगे की स्थितियां भी समझ में आने लगीं। तत्काल इन लोगों ने वह जगह भी ढूंढ़ ली, जहां से विदुर ने सुरंग बनवाकर इनके निकलने की व्यवस्था कर रखी थी। पाण्डवों ने रात्रि में उन लोगों के आग लगाने से पहले ही खुद आग लगाई और उस रास्ते से होते हुए निकल गए। बाहर जाकर जंगल में ब्राह्मण का वेश बनाकर पहचान छिपाकर विचरण करते रहे, इस बीच इनके साथ घटनाएं घटती रहीं, पर खुद बचते और दूसरों को दुख से बचाते हुए आगे बढ़ते रहे।
लम्बे समय बाद द्रौपदी स्वयंवर में एक घटना घटती है। उबलते तेल को देखते हुए मछली की आंख को बेधते हुए अर्जुन उस स्वयंवर को जीतता है और गले में द्रोपदी की वरमाला पड़ती है। चूंकि अर्जुन आदि सभी लोग ब्राह्मण भेष में थे, ऐसे में जितने राजा थे उनको शंका हुई कि ब्राह्मणों की यह हिम्मत कैसे हो सकती है? सभा तो क्षत्रियों की है। यद्यपि श्रीकृष्ण ने सभी राजाओं को समझाकर शांत किया कि तुम लोग निर्धारित मानक के अनुसार अपने शौर्य को नहीं दिखा पाए, इसलिए अब किसी की जीत से तुम लोगों को ईर्ष्या नहीं होनी चाहिए, वह कोई भी क्यों न हों। पर इस घटना ने ब्राह्मण वेश में पांडवों के जीवित होने की आशंका जगा दी। यहीं कुंती और पांचों पांडवों से श्रीकृष्ण की मुलाकात होती है। कृष्ण भगवान ने उस दौर में जो भूमिका निभाई, अर्जुन के सहारे उस युग कर्तव्य को स्थापित करते हुए ही महान उपनिषद् गीता का प्राकट्य हुई, वही आज लोक के बीच अमृत ज्ञान गीता बनकर प्रतिष्ठित है और जिस समुद्र मंथन से इसका प्राकट्य हुआ उसका नाम महाभारत पड़ा। जो हर सत्य के साधक को संदेश देता है कि भटके हुए प्रभावशाली लोगों की एक गलती भी बड़ी साबित होती है, जिसकी पीड़ा युग को भोगनी पड़ती है। कहते हैं मनुष्य के मन में लोभ, मोह, मत्सर आ जाय तो विनाश सुनिश्चित हो जाता है।
धृतराष्ट्र के मन में दुर्योधन के लिए बेटा होने का मोह था ही, राज्य उसी के पास रहे यह लोभ भी था। दुर्योधन मद का शिकार था, इसलिए उसी तरह के संगी साथी भी दुर्योधन को मिलते गए। दुर्योधन और भीम के बीच की परस्पर द्वैषात्मक स्थिति को द्रोणाचार्य सकारात्मक ढंग से नियंत्रित करने का दायित्व निभा रहे थे, लेकिन बढ़ती आयु के बावजूद इनके अंदर जल रही कटुता की आग ठंडी नहीं हुई, अंततः दुःखद पड़ाव महाभारत आ पड़ा। इससे स्पष्ट होता है कि हर व्यक्ति को ऊँचे से ऊँचे स्वप्न में जीना चाहिए, लेकिन बुरी से बुरी परिस्थिति के लिए भी सदैव तैयार रहना चाहिए।
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2 Comments
महाराज ने कितने सरल शब्दों में सब कुछ समझा दिया,नमन, नमन नमन
परम पूज्य सद्गुरु देव महाराज श्री के पावन चरणों में बारंबार नमन