आम मान्यता है कि बात करने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति की आवश्यकता होती है, अर्थात लोग दूसरों से ही बात करते हैं, लेकिन गौर से देखें तो जब उसके पास कोई दूसरा व्यक्ति नहीं भी होता, तब भी उसके बातचीत का कार्यक्रम सतत जारी रहता है। हां जब वह मौन दिखता है, तब भी अपने आपसे कुछ न कुछ बातचीत करता ही रहता है। वास्तव में व्यक्ति के मन व अंतःकरण में सतत होने वाली यह बातचीत आत्मसंवाद कहलाता है। यह हर पल चलता रहता है, इस आत्मसंवाद के परिणामस्वरूप व्यक्ति के जीवन में जो भावसंवेदनायें जन्म लेती हैं, उनके प्रभाव से जीवन में सकारात्मक व नकारात्मक परिस्थतियां घटित होती हैं।
देखने में आता है कि इस आत्मसंवाद में 80 से 90 प्रतिशत विचार नकारात्मक होते हैं, परिणाम स्वरूप व्यक्ति के जीवन में नकारात्मक परिस्थितियां घटित होने लगती हैं। इसी आत्मसंवाद को बदलने में समर्थ अस्त्र साबित होती है प्रार्थना। विद्वानों ने प्रार्थना को जीवन में आमूलचूल बदलाव की भाव साधना भी कहा है, भावदशा में उतर कर की गयी प्रार्थना से कुछ ही समय में व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन विधेयात्मक बनने लगता है। मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि अपने दुःख वाली बातें भूलने, भावसंवेदनाओं को सकारात्मक दिशा में मोड़ने, नकारात्मक चिन्तन की आदत बदलने का कारगर प्रयोग प्रार्थना में समाये हैं।
‘‘प्रार्थना आध्यात्मिक प्रयोग है, जो हमारी श्रद्धा की शक्ति के साथ जुड़कर चमत्कार दिखाती है, प्रार्थनायें दुःख से पार ले जाती हैं। धन्यवादी भाव से की गयी प्रार्थना जीवन में अकल्पनीय चमत्कार लाती हैं, इंसान के आंखों में करुणा जगाती है। श्रद्धा-विश्वास के सहारे इंसान के जीवन में गहराई से भाव संवेदना का जब सहज उदय होता है तो प्रार्थना प्रकट होती है। वास्तव में प्रार्थना दिव्य सदभावों की सूक्ष्म तरंगें ही तो हैं, जो सबको शान्त्वना देतीं, प्रेरणा भरतीं, संभालती और सफल करती हैं।
वास्तव में शान्त मस्तिष्क होकर भगवद्प्रेरणा व दिव्य प्रकाश की अनुभूति पूर्ण प्रार्थना अवस्था में साधक सहज ही प्रकृति को नजदीक से अनुभव करने लगता है और ब्रह्माण्ड में फैले परमपिता परमात्मा के आनन्द, उसकी शान्ति से जुड़ने का अहसास पाता है। तब उसे मधुर, शिष्ट, शान्ति-शालीनता की गहराई में प्रवेश मिलता है। उस असीम, अनन्त सत्ता के प्रति श्रद्धा भाव से विनम्र लगाव बढ़ता है और तब परमसत्ता इस आर्त भाव की पुकार सुनकर सहायता के लिए दौड़ पड़ता है। जीवन चमत्कार से भर उठता है।
कहते हैं भावश्रद्धा से जब सिर झुकते हैं आभार के लिए, और वाणी बह उठती है धन्यवाद के लिए, तब प्रार्थना का उदय होता है। इसी अवस्था में प्रार्थना ताकत पाती है कल्याण के लिए। प्रार्थना के लिए मन एवं अंतःकरण का पूरी तरह परमात्मा के लिए समर्पित होना जरूरी है। श्रद्धा भाव से भरे पवित्र अंतःकरण की गहराई से पुकार लगाने पर परमात्मा अवश्य कृपा करता है। वेदों-उपनिषदों की प्रार्थनाएं, ट्टषियों के हृदय से प्रकट हुई प्रार्थनायें, संत साधक, सिद्ध के हृदय से प्रकट हुई प्रार्थनायें, पवित्र हृदयी महामनाओं द्वारा शिलाओं पर बैठकर की गयी प्रार्थनाएं सर्वाधिक इसीलिए कुबूल हुई हैं।
क्योंकि इन सभी ने अपने अहम से मुक्त होकर दूसरों के हित कल्याण के लिए प्रार्थनायें की और परमात्मा ने इनकी झोली कभी खाली नहीं रहने दी। आध्यात्मवेत्ता बताते हैं कि ‘‘मानव जीवन पंचकोषों का खजाना है। अन्नमय कोष, प्राणमय कोश, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनन्दमय कोश। जैसे-जैसे जप, साधना, गुरु निर्देशित सेवा-सहयोग, समर्पण, प्रायश्चित, पवित्रता भरे जीवनक्रम आदि से ये शुद्ध होते जाते हैं, व्यक्तित्व की संवेदनशीलता बढ़ती जाती है। वैसे वैसे व्यक्ति का व्यक्तित्व पवित्र व पारदर्शी होता जाता है। इस पारदर्शी व्यक्तित्व के सहारे दूसरों के कल्याण के लिए, दुख-पीड़ा से उसे मुक्ति दिलाने के लिए की गयी प्रार्थना फलीभूत होती है।
अंतःकरण को प्रार्थना योग्य बनाने के लिए उपवास, मौन, अंतःकरण में संवेदना भरी शांति की अनुभूति करें। शरीर शुद्धि, मन शुद्धि, प्राण शुद्धि के लिए अन्य विशिष्ट व्यवहार अपनायें। नियमित उपासना, मंत्र जप, स्वाध्याय, दान, सेवा, गुरुनिर्देशित धर्मादा सेवा आदि से आनंदमय अवस्था में पहुंचा हुआ कोई भी साधक पवित्र, पारदर्शी जीवन जीता हुआ प्रार्थना मार्ग से स्वयं एवं अन्य जरूरत मंदों के जीवन में चमत्कार ला सकता है। किसी के दुखद जीवन को सुखमय बना सकता है। इसीलिए प्रार्थना को जीवन में आमूलचूल बदलाव की भाव साधना कहा गया है। इन सबके बावजूद प्रार्थना के क्षणों में हृदय से प्रेम उमड़ पडे़ और प्रेम के आंसू अवश्य बहने चाहिए, इस प्रकार बिना शिकायत प्रभु कृपाओं के लिए धन्यवादी भाव से की गयी प्रार्थना पूर्णतः फलित होती हैं।
प्रार्थना के लिए न तो कोई निश्चित शब्द होते हैं और न ही कोई निश्चित समय कि साधक इतनी देर तक प्रार्थना करे, अपितु जब दुख देखकर व स्वयं में द्रवित होकर अंतःकरण अंदर से खुल पड़े, आंखें भीगने लगे, हृदय भावों में गहरे तक डूबने लगे, रोम रोम में पुलकन उठने लगे, तो समझना चाहिए की प्रार्थना फलित होने के स्तर पर आ गयी है।
इसप्रकार किसी किसी की प्रार्थना पांच मिनट में फलित हो सकती है और कोई वर्षों सिर पटकता रहे, फिर भी कोई लाभ नहीं मिलता, ऐसा भी सम्भव है। सामान्यतः प्रार्थना के लिए किसी आसन पर टिकने की आवश्यकता नहीं है, अपितु जरूरत है भाव संवेदना के जागरण की, वह कैसे जगे इस पर ध्यान देना आवश्यक है। फिर भी जैसे-जैसे जीवन में पवित्रता जगेगी, पारदर्शिता बढे़गी, अनुभूतियां गहरी होंगी, शुद्ध-शांत, सात्विक भाव संवेदनायें उदय होंगी, प्रार्थना अपना पफ़ल देने लगेगी। वैसे गुरु के कृपा पात्र, मंत्र साधना व गुरुकृपा पाकर ध्यान का अधिकारी व्यक्ति लोक कल्याण भाव से जब भी प्रार्थनायें करेगा, वे सफल होंगी। उसकी प्रार्थना से लोगों के दुख-दर्द मिटेंगे।