संस्कृत में एक श्लोक है-
वदनम् प्रसाद सदनम्, सदयम् हृदयम् सुधमुचो वाचः। करणम् परोपकरणम्, ऐषां तेषानु ते वन्द्या।।
अर्थात् जिनके मुखमण्डल पर सदैव प्रसन्नता विराजमान रहती है, जो अपने जीवन में शान्त, सन्तुष्ट और प्रसन्नचित्त रहते हैं।
सर्दी-गर्मी, लाभ-हानि, जीत-हार और सुख-दुःख की विषम परिस्थितियों में प्रसन्नता से भरपूर रहते हैं, मधुर-मुस्कान जिनके मुख मण्डल पर सदैव तैरती रहती है। वे लोग इस जहान में वन्दनीय हैं, धन्य हैं और पूज्यनीय हैं। क्योंकि दुनिया में स्वर्ग की स्थापना उन्हीं के कर कमलों से संभव होती है जो प्रसन्न होते हैं।
प्रसन्नचित्त रहने के लिए कुछ विशेष चिन्तन करना जरूरी है। जैसे कि कहा जाता है ऐसे न कमाओ कि पाप हो जाए, ऐसे कार्यों में न उलझो कि चिन्ता का जन्म हो जाए, ऐसे न खर्च करना कि कर्ज हो जाए, ऐसे मदमस्त होकर न खाना कि मर्ज हो जाए, ऐसी वाणी न बोलना कि क्लेश हो जाए, और संसार की उबड़-खाबड़ राहों में ऐसे लड़खड़ाकर न चलना कि देर हो जाए। प्रसन्न रहने के लिए यह महत्वपूर्ण संदेश है।
प्रसन्नता का वास उन्हीं के दिलों में होता है, जिनके मन में कोई क्लेश नहीं होता, जिनके सिर पर कर्जा नहीं होता, शरीर में रोग नहीं होता, चिन्ता और अशान्ति से जिनका कोई संबंध नहीं है। उनके ऊपर प्रभु की कृपा है और वे लोग ही दुनिया में प्रसन्न रहते हैं। क्योंकि परमात्मा की कृपा के बिना यह अनमोल गुण प्राप्त नहीं होता। जिस पर प्रभु की कृपा होती है वही इस उलझन भरी दुनिया में मुस्कुरा सकता है।
दुनिया की कृपा से तो मनुष्य को उलझनों के सिवाए क्या मिलता है? दुनिया वालों को रोज मनाते हैं, लेकिन दुनिया रोज रूठ जाती है। संसार के संबंध में प्रतिदिन विश्वसनीयता पैदा करने का प्रयास करते हैं किंतु विश्वास रोज टूट जाता है। इससे प्यार करने का प्रयास करें तो वैर बढ जाता है।
जिनके प्रति बड़ी-बड़ी आशाएं होती हैं, उन्हें निराशा परोसने में देर नहीं लगती। लेकिन क्या कभी किसी को परमात्मा की भक्ति में निराशा, हताशा, चिन्ता, दुःख, समास्याएं और विश्वासघात मिला? प्रभु के घर से तो सभी की झोलियां प्रसन्नता के प्रसाद से परिपूर्ण होती हैं।
~ आचार्य सद्गुरुदेव परम पूज्य सुधांशु जी महाराज
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Hari Om guruji pranam