हर व्यक्ति सामाजिक, राष्ट्रीय क्रांति की बात करता है, परन्तु जिस आधार पर यह सब होना है, उसकी ओर विरले ही ध्यान देते हैं। वह परिवर्तन का आधार है माँ की कोख। माँ की कोख वह भूमि है, जिसमें क्रांतिकारी बीज पलते हैं। माँ उन्हें संस्कारों से शक्ति देती है और वे जन्म के बाद समाज में बिखर कर वही करते हैं, जो वह माँ की कोख में बन पाते हैं। इसीलिए भारतीयदर्शन में माँ की कोख को श्रेष्ठ, संस्कारशील व जागृत करने वाली उर्वर भूमि मानते हैं और उस पर बल दे कहते हैं कि जैसी कोख वैसा समाज, वैसी ही राष्ट्रीयता व विश्व बंधुत्व।
विशेषज्ञ कहते हैं-नारी के शरीर और मन का विशेष अंश लेकर बालक जन्मता है, इसीलिए उस पर अपनी माँ की विशेषताएं एवं आस्थाएं आजीवन बनी रहती हैं। मनोवैज्ञानिक शोधकर्ता बताते हैं कि पांच वर्ष की आयु तक बच्चे अपने आधे जीवन का व्यवहार, आधी सांस्कृतिक पढ़ाई व प्रशिक्षण माता की गोद, उसकी समीपता में पाते हैं। माता सुभद्रा द्वारा गर्भकाल में ही अभिमन्यु को चक्रव्यूह विद्या से परिचित कराना। माता मदालसा द्वारा अपने बच्चों को जैसा चाहा वैसे गुण, कर्म, स्वभाव वाला बनाना इसके उदाहरण हैं। यही बात आज भी प्रत्येक माँ पर समान रूप से लागू होती है। वह अपने कोख रूपी सांचे में संतान की मनोभूमि ढालती है।
कालान्तर में भारत की नारी का स्तर रमणी, कामिनी, बन्दी एवं उपेक्षित सा हो गया। तब पग-पग पर लांछन, तिरस्कार, प्रताड़ना, पराधीनता, असंतोष, घुटन एवं कुण्ठाओं के फलस्वरूप वह अपनी आध्यात्मिक विशेषताएं खोकर हीन प्राणों वाला जीवन बिताने लगी। ऐसे उद्गम से उपजे हुए बालक उत्कृष्ट व्यक्तित्व के बन भी कैसे सकते हैं? माँ की कोख एक भूमि ही है। अतः उचित उर्वर भूमि के लिए घर-परिवार के बीच संस्कार परम्परा का बीजारोपण आवश्यक है। पूज्य श्री सुधांशु जी महाराज सत्संग, जप, ध्यान, साधना आदि अभियान द्वारा यही तो कर रहे हैं। कभी मैसूर का चंदन, पंजाब का गेहूं, नागपुर का संतरा, भुसावल का केला, लखनऊ का खरबूजा भूमि के कारण ही प्रसिद्ध हुए थे। इसी तरह बालकों की शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक एवं आत्मिक प्रगति में मातायें प्रधान कारण होती हैं। वास्तव में आज जरूरत है समाज को दिव्य व्यक्तित्वों से भरने की। इसके लिए मातृशक्ति की आंतरिक चैतन्यता को जगाना होगा।
नारी के गौरव को जनमानस में स्थापित करने के लिए नई पीढ़ी को युग अनुसार प्रेरित करना होगा। हमारी सामाजिक क्रांति की प्रक्रिया संस्कार मूल पर ही निर्भर है। जीवन के प्रत्येक आयामों में इसे गौरवान्वित ढंग से प्रतिष्ठित करना होगा। साथ ही हर एक नारी चेतना के चरित्र-चिंतन व व्यवहार में उच्च प्राणों का जागरण करना होगा। नारी शक्ति की दिव्यता-पवित्रता को जन-जन की गौरव गरिमा से जोड़ना होगा। गुरुओं की चिंतनधारा दुर्गा, सीता, पार्वती, लक्ष्मी, काली, गायत्री आदि के गुणों, उनकी संवेदनशीलता, दिव्य स्वरूप के प्रति जनमानस में गौरवमयी भाव जगाने का प्रयास कर भी रही है। इसे अधिक प्रखर करने की जरूरत है। जिससे समाज में दिव्य कोख वाली मातायें दिव्य संतानों को जन्म दे सकें और भारत विश्व गुरु बनें।