विकलांगता कैसी भी हो, जीवन, समाज एवं राष्ट्र की सशक्त भूमिका को कमजोर कर ही देती है। इस समय पूरा विश्व अंतरराष्ट्रीय विकलांगता दिवस मना रहा है, जो पूर्णतः शारीरिक स्तर की विकलांगता पर केन्द्रित है।
समाज को विकलांगजनों के आत्मसम्मान, स्वास्थ्य, स्वावलम्बन उनके अधिकारों को लेकर प्रयत्नशील होना ही चाहिए। आम लोगों में ऐसे व्यक्तियों के प्रति राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समझ विकसित होनी ही चाहिए। वर्ष में प्रत्येक 3 दिसम्बर को विकलांग लोगों को लेकर विश्व स्तर पर चिंतन, मनन एवं जागरूकता के कार्यक्रम वर्षों से आयोजित होते आ रहे हैं। इस वर्ग के कल्याण व सुरक्षा को लेकर जनसहयोगी भाव जगाने, समाज में इनकी भूमिका को बढ़ावा देने, स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए जन सामान्य में सहायता भावना विकसित करने के उद्देश्य से यह अभियान आवश्यक है।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 3 दिसम्बर, 1991 को प्रतिवर्ष अंतरराष्ट्रीय विकलांग दिवस के रूप में मनाने की स्वीकृति के बाद 1992 से इसे पूरी दुनिया नई-नई थीम के साथ लगातार मना रही है। ‘‘कला, संस्कृति और स्वतंत्र सहन-सहन, ‘‘नयी शताब्दी के लिए सभी की पहुंच’’ सभी के लिए सूचना क्रांति, ‘‘विकलांगों में नेतृत्व और उनकी भागीदारी को बढ़ावा देना’’ आदि अनेक थीमों के साथ यह अभियान सम्पन्न हो चुका है। इसके सकारात्मक प्रभाव भी सामने आये हैं।
वास्तव में शारीरिक विकलांगता को दूर करना और ऐसे लोगों को समाज की मुख्यधारा का सम्मान दिलाना समय की मांग है। इसी के साथ उस विकलांगता की दिशा में भी ध्यान देने की बड़ी जरूरत है, जिसके चलते एक चलता-फिरता सही सलामत व्यक्ति व समाज लकवाग्रस्त हो जाता है।
‘‘अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी, जातिवाद, एकाधिकारवाद, सरकारों की अलोकतांत्रिक नीतियां, बेरोजगारी, नारी-पुरुषों के बीच असमानता, मानवीय हक का अपहरण, कानूनी सिकंजे से मनुष्य के हक को समाप्त करना, भ्रष्टाचार, बुनियादी संसाधनों का अभाव, संसाधनों पर बौद्धिक चतुरता आदि से नियंत्रण, धार्मिक उन्माद, नागरिक अधिकारों का हनन, अभिव्यक्ति की आजादी पर कुठाराघात, कट्टरता जैसे अनेक पक्ष हैं, जो सम्पूर्ण समाज व विश्व को धीरे-धीरे विकलांग बनाते और समाज के लोक परम्परागत ढांचे के पहिये को हजारों साल पुरानी अविकसित रीतियों की ओर मोड़ देते है।
‘‘मानव अपने मनुष्य होने का गौरव दिलाने वाले सद्गुणों दया, करुणा, प्रेम-शांति, निजस्वभाव जैसे गुणों की उपेक्षा से आत्मिक-आध्यात्मिक विकलांगता का शिकार बन रहा है। मनुष्य को रुढ़िगत मान्यताओं के परिप्रेक्ष्यों के आधार पर आंकना भी विकलांगता ही तो है। विश्व के अनेक देश हैं, जहां विश्व की आधी आबादी नारी को दासत्व जैसे कानूनों में डालकर पुरुषवर्ग को श्रेष्ठ साबित करने का दम भरा जा रहा है। अनेक धार्मिक मिथकों के सहारे मानव जाति पर शिकंजा कसना और अपनी मान्यता को श्रेष्ठ ठहराना भी एक प्रकार की विकलांगता ही तो है।’’
ऐसा नहीं है कि कानून, रुढ़िवादी परम्पराओं, मान्यताओं के नाम पर ही समाज एवं लोकजन की मनोदशा को
कुण्ठित कर विकलांग बनाया जा रहा है, अपितु आधुनिकता का अतिवाद भी हम सबको बौना बना रहा है। तथाकथित सभ्य दिखने व आधुनिक साबित करने की दूषित सोच ने आज मनुष्य एवं मनुष्यता दोनों पर संकट के बादल खड़े कर दिये है।
आहार को ही लें, मनुष्य की सोच आज लगभग स्वाद व दिखावे पर केन्द्रित होती जा रही है। परिणामतः पौष्टिकता के अभाव में शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो रही है, लोग बीमारी का शिकार बन रहे हैं, शरीर में तरह-तरह की विकृतियां जन्म ले रही हैं। विज्ञापन की दुनियां के सहारे आहार-विहार जीवन शैली तय करना भयावह स्तर की विकलांगता है। ‘‘फास्टफूड’’ जैसे अपौष्टिक अवैज्ञानिक विकृत आहार व फैशन के नाम पर फूहड़, असभ्य शरीर एवं मन को कुंठित करने वाले वस्त्रों के प्रति रुचि विज्ञापन ने तो जगाई है।
आज भारत सहित विश्व अपने पौष्टिक मोटे व परम्परागत अन्न की उपेक्षा करके स्वाद के कहर को जीवन से जोड़े जा रहा है। देश के हर गली-चौराहे पर नूडल्स, बर्गर, पिज्जा, फ्राइडचिप्स से लेकर न जाने सेहत को विकृत करने वाले कितने प्रकार के अखाद्य पदार्थों की भरमार है। जिसके लिए नई व युवापीढ़ी टूटती दिखती है। जबकि ये तले भुने, फास्टफूड, कैमिकल आधारित आहार शरीर को कमजोर एवं हड्डियों को खोखला करते हैं। पाचन तंत्र से लेकर किडनी, लीवर, आंत सभी पर इनका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यह स्वादगत विकलांगता शरीर और मन-मस्तिष्क-भाव संवेदनाओं तक को भी विकलांग बना रही है। एक रिसर्च के अनुसार ‘‘तले-भुने आहार हमारे शरीर में विकृत कोलेस्ट्राल को बढ़ावा देते हैं तथा रक्त वाहिनियों में बाधा डालते हैं, जिससे हाईस्ट्रोक की सम्भावना बढ़ जाती है। कई-कई फास्टफूड में सोडियम की अधिकता से शरीर में पानी की कमी हो जाती है। जो ब्लडप्रेशर, कोरोनरी हार्ट डिजीज से लेकर किडनी रोग, मोटापा, जैसी समस्या पैदा करते हैं।
फैशन एवं प्रदर्शन पर गौर करें, आखिर शरीर को चुभने वाले, मस्तिष्क के नर्बस सिस्टम पर अवैज्ञानिक प्रभाव डालने वाले कपड़े एक प्रकार की विकलांगता को ही बढ़ावा तो देते हैं। इसी तरह जीवनशैली में छाई अप्राकृतिक अतिवादिता के चलते आज कार्बनडाई आक्साईड जैसी गर्म गैसों को बढ़ावा मिल रहा है। प्रकृति से दूर व एयरकण्डीशन के अतिवादी उपयोग, आवास का कंक्रीटीकरण, जीवाष्म ईधन के प्रयोग जैसे कदमों ने तालाबों, नदियों को सूखने, जल को प्रदूषित होने, जलवायु को असंतुलित करने, वृक्ष-वनस्पतियों को सूखने में मदद की है। पर्यावरण की दृष्टि से एक प्रकार की विकलांगता को ही बल मिला है। वायुमण्डल में लगातार बढ़ता कार्बनडाई आक्साइड और पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से हो रहे
विकिरणजन्य विस्फोट को न रोका गया, तो जीवन व वनस्पति जगत से लेकर सम्पूर्ण मानवता पर संकट खड़ा हो सकता है। ‘इंटरनेशनल आर्गनाइजेशन फार माइग्रेशन’’ के आंकलन के अनुसार 2050 तक जलवायु परिवर्तन के चलते असंतुलन बढ़ेगा और लगभग 20 से 70 करोड़ लोगों के जीवन पर संकट आ खड़ा होगा।’’ इस जलवायु चक्र के दुष्प्रभाव के चलते खाद्यान्न संकट भी बढ़ेगा, लोग भुखमरी के शिकार होंगे।
इन सब प्रकार की भयावहता के बावजूद विश्व की बड़ी आबादी का धर्म के नाम पर अधार्मिक व्यवहार करना, मनुष्य का अपने मानवीय गुणों से दूर होते जाना, ऋषि प्रणीत शाश्वत मूल्यों की उपेक्षा को आखिर भावनात्मक, आत्मिक विकलांगता ही तो कहेंगे। ऐसे अनेक संकटों के निवारण के लिए सही शिक्षा और सही जागरूकता की दिशा में कदम उठाना ही एक मात्र उपाय है।
आइये! शारीरिक के साथ इन सब ओर प्रवेश कर रही विकलांगतापरक विकृतियों के शिकार समाज को नये युगीन मूल्यों, वैज्ञानिक शोधों के सहारे सम्हालें। तभी हमारा ‘‘विकलांगता दिवस’’ मनाना सार्थक होगा।