महाभारत कृष्ण की ओर से वैश्विक संदेश भी था कि कोई भी नाजायज रूप से नियंत्रण करने का साहस न करे। अर्जुन का चयन श्रीकृष्ण ने अपने इस संकल्प संदेश के अनुरूप किया था। यही कारण है कि जब अर्जुन युद्ध क्षेत्र में इसे व्यक्तिगत युद्ध मानकर निराश-हताश होने लगा, तो उन्होंने कड़ी फटकार के साथ उस व्यक्तिगत हीनताओं से उसे बाहर निकाला और कहा कि ‘‘अर्जुन यह युद्ध तुम्हारे घर-परिवार के लिए नहीं है, न ही तुम्हारे परिवार को न्याय दिलाने तक सीमित है। बल्कि इस दुनिया में, सम्पूर्ण आर्यवर्त में रहने वाले जितने लोग हैं उनकी सम्पत्ति, उनके हक को छीन कर उनके राज्य के ऊपर बैठने की चाह रखने वाले एक-एक व्यक्ति के लिए संदेश है। अर्थात् यह युद्ध अधिकार के लिए गिद्ध दृष्टि लगाकर बैठे ऐसे सबके लिए संदेश है।
कृष्ण कहते हैं कम से कम खून बहे, लेकिन सर्जरी पूरी हो। अतः अर्जुन ध्यान रखें कि तुम अगर इसे अपना काम भी मानने लगे हो, तो भी न हताश हो और न जल्लाद और कसाई वाला रूप धारण कर लेना। अपितु चित्त तुम्हारा शांत रहे, जैसे डॉक्टर का। क्योंकि जो चित्त शांत कर अपना फर्ज निभा रहा है, उसे सर्जरी करते समय निराशा-घबराहट नहीं होगी। श्रीकृष्ण भगवान के संकल्प अनुसार अर्जुन से वही किया कि कम से कम खून बहे, रक्त अधिक न बहे, सर्जरी पूरी हो।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिस क्षण आप स्वयं के वश में होते हैं, उस समय स्थितियां अनुकूलता में बदल जाती हैं। अतः राग द्वेष से विमुख होकर ही दुनिया में कार्य करना चाहिए। ‘आत्मवश्यैर्विधेयात्मा’ अर्थात् आत्मवश होकर अपने आपको अपने वस में रखकर ही सफलता से कार्य पूरा किया जा सकता है। यदि दूसरों के वश में चले रहे हैं, तो लक्ष्य भटकेगा ही क्योंकि जब तक आपको बाहर की दुनिया संचालित कर रही है, तब तक आप कठपुतली ही हैं।
मन और इंद्रिया प्रकृति के वश में आसक्ति और विरक्ति दो धाराओं के बीच बहती है, अतः दोनों में अनुशासन भी जरूरी है। वैसे भी जीवन नियमों के अनुशासन में जिंदगी जीना ही अनुशासन है। नियम के अधीन रहना, नियमों के अनुशासन में जिंदगी जीना ही अनुशासन है। नियम में रहने से ही आदतें बनती हैं। मन नियमित है, तो नियमितता से बुद्धि लय में आती है। विपरीततायें मिटती हैं। जो मन हवा के रूख अनुसार बहता था, वही अनुशासित होते स्थिर होगा, फिर व्यक्ति किसी भी तरफ जाकर नहीं खड़ा होगा। न्याय-अन्याय के सामीप्य को समझेगा, अनुशासित मनुष्य मन और इन्द्रियों को वश में करके, विषयों का भोग भोगते हुए, आसक्ति और विरक्ति से ऊपर उठकर, अपने को अपने में अवस्थित करके, प्रभु के शाश्वत रूप में जोड़ कर चलेगा। तब उसे प्रभु प्रसाद मिलना शुरू हो जाएगा।
व्यक्ति अपने अनुशासन में जीने लगता है। तब वह ‘आत्मवश्य’ होता है अर्थात इस अवस्था में इंद्रियां तो दौड़ाएंगी, मन दौड़ाएगा, लेकिन अनुशासन जीवन में है, तब वह आत्मा वश्य, खुद के वश में हो सच्चा जीवन जियेगा। विचलित नहीं होगा अर्थात् नियम से आदतें नियमित होंगी, अनुशासित-व्यवस्थित होंगी और तब मन सुमन बनेगा। बुद्धि सुबुद्धि बन लयबद्ध हो जाएगी, जीवन सजीवन हो जाएगा। सब कुछ ‘‘आत्मवश्यैर्विधहात्मा विधेहात्मा’’ होगा अर्थात् व्यक्ति अपने को व्यवस्थित कर लेगा, तब शास्त्र के निषिद्ध विषयों का भोग नहीं करेगा। विषयों के विरुद्ध नहीं चलेगा, यही मर्यादामय जीवन का संदेश है। वास्तव में जहां मर्यादाएं टूटी वहीं गड़बड़ है। इसलिए जीवन में हर व्यक्ति को अपनी मर्यादाएं बांधनी पड़ती है। जीवन चलाने के लिए जो विधान शास्त्र सम्मत है, ऋषियों ने जो मार्ग बताया, महाजन जिस मार्ग को अपना रहे हैं, उसी पर चलने का संदेश कृष्ण देते हैं। अर्थात् ‘‘आत्मानुशासन’’ में जिएं और जीवन चलाने के लिए जो अनिवार्य कार्य है वही करें। घृणा वाले कार्यों से दूर रहें। यही जीवन है। यही धर्म है। जहां धर्म है, वहीं कृष्ण है।
तभी भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि अर्जुन तुमने धर्म छोड़ दिया,तो मैं तुम्हारा रथ छोड़ दूंगा। अर्थात् व्यक्ति को कोई न कोई पक्ष चयन तो करना ही पड़ेता है। यहां एक कौरवों का पक्ष, एक पांडवों का है अर्थात् कंस, दुर्योदन की सेना में भर्ती होना चाहते हैं या कृष्ण की सेना में। यह हर व्यक्ति को देखना पड़ता है, बीच में कोई नहीं रह सकता। कृष्ण रथ पर भले अर्जुन के बैठे हैं, लेकिन कर्म अर्जुन को ही करना पड़ रहा है। वैसे भी एक बार कौरवों के पक्ष में चले गए तो जीवन गिर गया। बहुत सारे लोग ऐसे पेच सिखा देंगे कि व्यक्ति कभी बाहर नहीं निकल पाता। लेकिन धर्म व सत्य का मतलब लकीर का फकीर भी हो जाना नहीं है। जैसा त्रेता युग ‘‘प्राण जाए पर वचन न जाए’’। जो कृष्णत्व में सम्भव नहीं है। यहां परिणाम को स्थापित करना ही धर्म स्थापित होना है। यही कारण है कृष्ण को धर्म स्थापित करने के लिए दाएं-बाएं भी चलना पड़ा।
इस दृष्टि कृष्ण को समझना आसान नहीं है, उन्होंने कदम-कदम पर मर्यादाएं दीं हैं। लेकिन मर्यादाओं को तोड़ते भी दिखे हैं। यहां मर्यादाओं का मतलब यह नहीं है कि स्वयं को ही मार बैठो। इसलिए थोड़ा दाएं-बाएं होना पड़े या युद्ध से भागो नहीं, यह महत्वपूर्ण है, पर पीछे हटकर, कभी झुककर, कभी विनम्रता से, कभी कुछ देकर-लेकर, कभी समझा कर और कभी भागकर भी युद्ध जीता जा सके तो जीतो। क्योंकि विसंगतियों से घिरे सत्य को बाहर लाने के लिए यह जरूरी है। इसलिए श्रीकृष्ण रणछोड़ भी बने और जो कार्य आवश्यक था, वह करा दिया। यही कृष्णत्व है।