आचार्य वह है, जो ‘आचार’ को, शिष्टता को ग्रहण कराता है। जो जीवन में महान आचरण देता है। जिसका संग करने से भक्ति का रंग चढ़े, योग का रंग चढ़े। जिसके प्रभाव में व्यक्ति संसार की महामाया से निपटने के लिए तैयार हो जाय। जो व्यक्ति में झगड़ों, क्लेष और कष्ट से ऊपर उठने की क्षमता उत्पन्न कर दे वह गुरु है। गुरु की एक परिभाषा और दी गयी है-‘जो बुद्धि में विशेष पैदा कर दे, वह गुरु है।’
ज्ञानी संतों को आचार्य कहा गया है। वायुपुराण में गुरु की बड़ी सुंदर परिभाषा दी गयी है-‘जो हमें बुद्धि दे और हमारी आंखें खोल दे। संसार में जीना सिखाए, संसार से पार होना सिखाए। जो हमें निर्मल बुद्धि प्रदान करे वही आचार्य है।’ व्यास ने आचार्य की परिभाषा की-‘जो ज्ञान के महान ग्रंथों जैसे शास्त्रें, वेदों इत्यादि को उनके सम्पूर्ण अर्थसहित इस ढंग से लोगों तक पहुंचा दे, शिष्य तक पहुंचा दे कि वे ज्ञान का चयन करने योग्य हो जाएं, ज्ञान को स्वीकार करने योग्य हो जाये, ज्ञान जीवन में उतर आये। ज्ञान व्यक्ति के जीवन में अनुभूति उत्पन्न करने लगे। ऐसी जो शक्ति प्रदान करता है, वही आचार्य है, गुरु है।’
आचार्य वह है, जो ‘आचार’ को, शिष्टता को ग्रहण कराता है। जो जीवन में महान आचरण देता है। जिसका संग करने से भक्ति का रंग चढ़े, योग का रंग चढ़े। जिसके प्रभाव में व्यक्ति संसार की महामाया से निपटने के लिए तैयार हो जाय। जो व्यक्ति में झगड़ों, क्लेष और कष्ट से ऊपर उठने की क्षमता उत्पन्न कर दे वह गुरु है। गुरु की एक परिभाषा और दी गयी है-‘जो बुद्धि में विशेष पैदा कर दे, वह गुरु है।’ एक बुद्धि धन की कामना करती है। एक बुद्धि वासना की इच्छा करती है, एक बुद्धि दूसरों को ठगने में लगी है, एक बुद्धि झगड़ों में रुचि रखती है, एक बुद्धि मात्र अपना ही भला सोचती है। लेकिन इन सारी बुद्धियों को जो सद्बुद्धि प्रदान कर दे, उसे आचार्य कहेंगे। व्यक्ति अपना भी कल्याण करे और संसार का भी कल्याण करे। व्यक्ति अपनी सात पीढ़ियों को ही नहीं, इक्कीस पीढ़ियां तारने वाला बन जाय। ऐसी शक्ति जो प्रदान करता है, वही आचार्य है, गुरु है।’ इसलिए गुरु का बड़ा महत्व है।
गुरु के सान्निध्य में जाने से शक्ति आती है। जीवन की दिशा बदल जाती है। इसलिए कहा जाता है कि जीवन में किसी को गुरु बनाना अत्यन्त आवश्यक है। गुरु वही है जो ब्रह्मनिष्ठ हो, परमात्मा में डूबा हुआ हो। जो संसार से भागना न सिखाये, संसार में जागना सिखा दे। इसका अर्थ क्या है? इसे छांदोग्य उपनिषद् में बड़े सुंदर ढंग से समझाया गया है।
छांदोग्य उपनिषद् में एक कथा है–चोरों ने एक धनी व्यक्ति को लूटकर, उसका माल छीनकर, उसे जंगल में एकांत स्थान पर पटक दिया। आंखों पर पट्टी बांधकर हाथ-पांव जकड़ दिये। उसे पेड़ के साथ बांधकर चोर चले गये। वह धनी व्यक्ति यह नहीं जानता कि वह कहां है? दुःख इस बात का भी है कि उसका सब-कुछ लुट गया। विकट समस्या यह भी है कि सिर पर मौत खड़ी हुई है। भविष्य अंधकारमय लग रहा है। अचानक उसकी दारुण दशा देकर, तड़पती आवाज सुनकर एक समझदार ज्ञानी व्यक्ति प्रकट हुआ। उसने कहा-‘घबराओ नहीं! मैं तुम्हारे पास हूं।’ आंखों से पट्टी खोली। वह कहने लगा-‘आपने यहां से तो मुझे खोल दिया, लेकिन मुझे तो ये भी पता नहीं कि मैं जाऊ कहां? मेरा
धाम कहां है? घर किधर है? कहां जाऊं?’ उस ज्ञानी व्यक्ति ने कहा कि इस जंगल से पार होने का रास्ता यह है। इसके बाद एक गांव पड़ेगा, उसके बाद दूसरा गांव, उसके बाद शहर आएगा। वहां पहुंचने के बाद तुम लोगों से पूछ कर अपने घर तक पहुंच सकते हो। बाद में वह व्यक्ति अपने घर तक पहुंच भी गया और उसे कोई कष्ट नहीं हुआ।
उपनिषद् के ऋषि ने इतनी बात लिखने के बाद समझाया कि खोल देने के बाद, समझाने के बाद वह व्यक्ति सच में ही अपने घर तक पहुंच गया और उसे फिर कोई कष्ट भी नहीं हुआ। ऋषि कहते हैं कि वास्तव में यह घटना हम सबके साथ घटती है। सच्चिदानंद परमात्मा का जो धाम था, वही धाम हमारा था। विषय-वासना के तस्करों ने हमें संसार में उठाकर फेंक दिया और हाथ-पांव बांध दिये। विवेकरूपी आंखों के बन्धन जकड़े हुए हैं। हम संसार के गहन वन में पड़े हुए, एक जन्म से नहीं, अनेक जन्मों से तड़प रहे हैं। कोई भी ऐसा नहीं, जो हमारी आंखों की पट्टी खोल दे। हमें वह मार्ग बता दें, जिस पर चल कर हम किसी ज्ञानी गुरु तक पहुंच जायं। वह गुरु जन्म-जन्मांतरों के दुःख को तोड़ने का रास्ता बता दे और अपने धाम पर पहुंचने का सही मार्ग दिखा दे। जो भवसागर से पार निकलने का मार्ग हमें बताता है, उसे गुरु कहा जाता हैं मनुष्य को गुरु की आवश्यकता सदा रहती है। गुरु की प्राप्ति के लिए मनुष्य सदा प्रयत्नशील रहता है।
गुरु सबसे पहले आंखों से पट्टी खोलता है। फिर तुम्हें अपने-पराए, सत्संग-कुसंग का ज्ञान देता हैं गुरु अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का संदेश देता है। इसलिए गुरु जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
परमात्मा से कुछ मांगो या न मांगो लेकिन एक चीज जरूर मांगना। परमात्मा से कहना-‘हे भगवान्! संसार के साधन, संसार की दौलत, संसार के पदार्थ जितने आपने दिये, उसमें से भले ही थोड़ा-सा कुछ कम करना चाहो तो करना, लेकिन अपनी श्रद्धा-भक्ति और अपना प्रेम कभी कम मत करना। मेरी झोली को प्रेम और श्रद्धा से भर देना, जिससे तेरे चरणों की तरफ सदा मेरा ध्यान बना रहे।’ श्रद्धा-भक्ति होगी तो व्यक्ति निरंतर परमात्मा की तरफ बढ़ता रहेगा। व्यक्ति श्रद्धाहीन हो जाय तो माता-पिता की सेवा भी नहीं कर पाता। परमात्मा की सेवा तो आगे की बात हैं इसलिए गुरु अनुशासन देता है, जगाता है, आंखों से पट्टी खोलता है। गुरु मनुष्य के बन्धन भी खोलता है। कोशिश करता है कि जहां-जहां से मनुष्य बंधा हुआ है, वहां से खोल जा सके।