हमे सुबह उठाकर प्रकृति से जोड़ने, स्वस्थ प्राण वायु, प्रसन्नता तथा बौद्धिक सशक्तता भरने का कार्य एक माँ ही तो करती है। सुबह उठते ही उषा पान की आदत डालने, जल सेवन से हमारे शरीर का रोगों से बचाव होता है, अम्लपित्त, कब्ज, मोटापा, रक्तचाप, नेत्ररोग, अपच आदि से राहत मिलती है यह भाव हमारे अंतःकरण में हमारी माँ ही तो भरती है। प्रातः स्नान करके स्वच्छ एवं सामान्य ढंग से तैयार होने, दिन में लगभग 1-2 बार मुंह में स्वच्छ जल भरके नेत्रें को ठण्डे एवं स्वच्छ जल से धोने, सरसों, तिल या अन्य औषधीयों के तेल से शरीर की नित्य प्रति मालिश करने, शरीर की क्षमतानुसार प्रातः भ्रमण, योगासन, व्यायाम नियम पूर्वक करने, नहाने से पहले, अपच, कब्ज, अजीर्ण, मोटापा जैसी बीमारियों से बचने के लिए भोजन के 30 मिनट पहले तथा 30 मिनट बाद तक जल का सेवन न करने, भोजन करने के तुरन्त बाद खेलना-दौड़ने, तैरने, नहाने से बचने, सोने से पहले एवं भोजन के पश्चात् लघुशंका जाने की आदत से हमारी माँ तो ही जोड़ती है। ऐसी अनेक जानकारियां हमारी माँ दे देती है, भले वह शिक्षित हो अथवा न हो। उसने इन्हें वर्षो तक अपने बड़े बुजुर्गों से सीखकर उसे अपने रोजमर्रा के व्यवहार में ढालकर सीख जो है। इसीलिए नारी को परिवार की धुरी माना गया है।
नारी घर की सदस्य ही नहीं है, अपितु उसके संकल्पों से सम्पूर्ण परिवार की दिशा-दशा तय होती है। जिस परिवार में नारी स्वस्थ, शिक्षित, संस्कारवान, स्वावलंबी, समझदार, जागरूक है, उन परिवारों में सृजनात्मक एवं रचनात्मक प्रवृत्तियां सहज जन्म लेती हैं। उनकी भावी पीढ़ी में स्वाभिमान होता है, भविष्य को लेकर एक स्पष्ट सोच होती है। हमारे महापुरुषों ने इसीलिए नारी को पुरुष के बराबर का सम्मान दिया था, हमारी भारतीय संस्कृति नर और नारी की समानता की पक्षधर रही है। इसीलिए भारतीय ऋषि परम्परा नारी शक्ति को प्रेम, दया, कोमलता, श्रद्धा, विश्वास की प्रतीक मानती आई है। नारी को देवी का रूप कहा गया है, उसे शक्ति-स्वरूपा माँ दुर्गा कहा जाता है। अलग-अलग रूपों में उसे पूजा जाता है। ‘‘या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।’’ यही तो है। आज उसे उतना सशक्त बनाने की आवश्यकता है कि वह खुद को कमजोर समझने से बच सके।
मान्यता है कि जो भी सर्वश्रेष्ठ गुण संसार में हैं, वे सभी गुण नारी में विद्यमान हैं। अर्थात नारी की संवेदनशीलता ने ही समाज में अपनत्व स्थापित किया है। नारी प्रेम एवं करुणा का रूप मानी गयी है। हमारा समाज उसे देवी कह कर पुकारता आया है, लेकिन आज भी सामाजिक रीतियां-नीतियां एवं परम्परायें कुछ ऐसी हैं जो उसे सम्मान से वंचित करते हैं, वह अपनी इच्छाओं को दबा लेने के लिए विवश हो जाती है। आज भी उसे शिक्षा से वंचित रहना पड़ता है। शहरी एरिया में भले नारियों ने पढ़ लिखकर ऊचाइयां छू ली हैं, लेकिन देश के ग्रामीण क्षेत्रें में आज भी नारी अशिक्षा का दण्ड झेल रही है। जरूरत है बच्चियों की पढ़ाई पर अधिक प्रमुखता ध्यान दिये जाने की।
कहते हैं शिक्षित पुरुष एक परिवार का भाग्य बदलता है, लेकिन एक शिक्षित नारी दो कुलों का भाग्य बदलती है। अतः जरूरत है प्रत्येक घरों में शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति, संस्कार, स्वावलम्बन, साक्षरता आदि का वातावरण बने। नारियों को शिक्षित करने के लिए उनके माता-पिता, पति तथा अन्य घर वाले भी पूरा प्रयत्न करें। जिससे पढ़ी-लिखी लड़कियां-लड़के अपने परिवार व समाज की अभिनव रचना में महत्वपूर्ण उदारदायित्व निभा सकें। सुभाष चंद्र बोस कहा करते थे कि नारी को शिक्षित कर सके, उसके आत्म-विश्वास को जगा सकें, तो परिवार, समाज और राष्ट्र का समुचित विकास सहज सम्भव हो सकेगा। हम नारी के भीतर छिपी अनन्त सम्भावनाओं, प्रतिभाओं को जागृत करके ही समाज को सशक्त कर सकते हैं।
नारी को त्याग का प्रतीक माना जाता है, वह अपने परिवार के लिए अपनी इच्छाओं का त्याग करती है। इसीलिए उसे परिवार का केंद्र और प्राण कहा जाता है। पीड़ा-कठिनाइयां सहकर भी परिवार में व्यवस्था बनाना, बच्चों को उच्च संस्कार देना और हर सम्भव सहयोग करना आदि सभी कार्य एक नारी अपना कर्त्तव्य मानकर निभाती है। इस प्रकार जो अपने व्यक्तित्व के बलपर पूरे समाज को बदलने की ताकत रखती है। उसे बिना सशक्त किये हम समाज को कैसे स्वस्थ, संवेदनशील, सशक्त कर सकते हैं।
नारी शक्ति जो हमारे लिए इतना त्याग करती है, उसके लिए हम भी अपना उचित योगदान दें यही युगधर्म है। आइये हम सब मिलकर अपने घर-परिवार की नारी को सम्मान से भरें, उसे शिक्षित बनायें, उसे स्वावलंबन से जोडे़ जिससे वह हमें तथा हमारे समाज को अनुपम अनुदान लौटाकर गौरवान्वित कर सके। इक्कीसवी सदी में नर और नारी के बीच समानता का संकल्प व्यवहार में लाकर ही इक्कीसवीं सदी नारी सदी की गूंज हम दुनियां को सुना सकते हैं। यह युग की माँग भी है।